बतंगड़ बेतुक : चलि रई ए जमींदान्नि की पावरी

Last Updated 06 Mar 2021 11:41:37 PM IST

झल्लन ने पहले हमें निहारा, फिर माथे पर एक बल उभारा और बोला, ‘ददाजू, आज आप कुछ ढीले बदन हो, सच्ची बताओ, चिंता मगन हो या चिंतन मगन हो?’


बतंगड़ बेतुक : चलि रई ए जमींदान्नि की पावरी

हमने कहा, ‘कुछ खास नहीं झल्लन, कोई कृषि विशेषज्ञ मोहिन्दर गुलाटी हैं जिन्होंने दिल्ली के आस-पास की खेती-किसानी का अध्ययन किया है, इस अध्ययन में से थोड़ा बहुत हमने पढ़ लिया है वही हमारे दिमाग पर चढ़ लिया है।’ झल्लन बोला, ‘वो तो ददाजू आप हमेशा कुछ-न-कुछ अंड-बंड पढ़ते ही रहते हो और कभी-कभार कुछ उल्टा-सीधा लिखते भी रहते हो, फिर भैया गुलाटी ने ऐसा क्या लिख दिया है जिसने आपको विचलित कर दिया है?’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, इस लोकतंत्र की नियति हम जानते हैं सो हमें कोई भी होनी-अनहोनी विचलित नहीं करती, लोकतंत्र चलाने वालों के लिए हमारे मन में कभी कोई सहानुभूति भी नहीं जगती। पर झल्लन, हम किसान समर्थक हैं, किसान आंदोलन के लिए हमारे मन में हमदर्दी रही है, किंतु हमने जो पढ़ा है उससे हमारी धारणा बदल रही है।’ झल्लन बोला, ‘वही तो हम पूछ रहे हैं ददाजू कि आपने ऐसा क्या पढ़ लिया जिसने आपको उलट से पुलट कर दिया?’
हमने कहा, ‘हमने जो पढ़ा है वह तुझे संक्षेप में सुनाते हैं और गुलाटी जी ने भविष्य के जो डरावने संकेत दिये हैं वो बताते हैं। दिल्ली के अड़ोस-पड़ोस के किसान हर साल तकरीबन दस करोड़ टन पराली जलाते हैं, जिससे करीब चौदह करोड़ टन कार्बन डाइआक्साइड और करीब एक करोड़ टन दूसरे प्रदूषणकारी तथा वसनरोधी तत्व बनाते हैं। यह घातक किसानी उत्पाद दिल्ली और आस-पास के करीब पांच करोड़ लोगों के स्वास्थ्य के लिए संकट पैदा देता है और करीब बीस लाख बच्चों-बूढ़ों के फेफड़ों को उम्रभर के लिए क्षतिग्रस्त कर देता है।’ झल्लन बोला, ‘क्या ददाजू, क्या हमारे किसान भाइयों को इतना भी हक नहीं है कि वे सौ-दो सौ टन पराली जला सकें और क्या हमारे फेफड़ों में इतना भी दम नहीं है कि थोड़ा सा धुआं और धुंध पचा सकें।’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, यह पराली-दाह जमीन के पोषक तत्वों को नष्ट कर देता है, उर्वरा शक्ति को क्षत कर देता है जिसके चलते ज्यादा-से-ज्यादा रासायनिक खाद का उपयोग करना पड़ता है जिससे जमीन का यौवन कुछ और उजड़ता है।’

झल्लन बोला, ‘क्या ददाजू, जमीन चाहे उर्वरा रहे या अनुर्वरा, कभी-न-कभी तो दरक ही जाएगी, आखिर यह जमीन कब तक निरंतर बढ़ती भीड़ का बोझ उठाएगी?’ हमने कहा, ‘झल्लन, सवाल जमीन का ही नहीं पानी का भी है। किसान जो धान की फसल उगाते हैं वह फसल बहुत ज्यादा पानी खपाती है और इस पानी की सप्लाई ट्यूबवेलों से आती है। इससे भू-जल स्तर तेज गति से नीचे जा रहा है, यही हमें डरा रहा है। इससे छोटे किसानों के पंप बेकार हो रहे हैं और बड़े किसान भारी बिजली खर्च करके जमीन की ज्यादा गहराई से पानी निकालकर मालामाल हो रहे हैं। बड़े किसानों की दो-चार पीढ़ियां मजे से गुजर जाएंगी पर बाकी लोगों की पीढ़ियां गहरे संकट में फंस जाएंगी। तमाशा यह कि कोई किसान नेता इस समस्या पर मुंह नहीं खोल रहा है और न कोई वोट लालची विपक्षी दल कुछ बोल रहा है।’ झल्लन बोला, ‘सच्ची कहें ददाजू, आपकी यह टट्पुंजिया चिंता घनघोर किसान विरोधी है जो गुलाटी भैया ने आपके मन के खेत में फालतू में बो दी है। किसान हमारे अन्नदाता हैं, पूजनीय हैं, वंदनीय हैं, अभिनंदनीय हैं, उनकी आलोचना अभिशाप है और उनकी निंदा घोर पाप है।’
हमने कहा, ‘हम निंदा-आलोचना नहीं कर रहे हैं, जो चिंतनीय तथ्य सामने आये हैं वही सामने रख रहे हैं। अगर वर्तमान के लिए नहीं तो भविष्य के लिए तो सोचा जाना चाहिए और जो गंभीर समस्या है उसका समाधान तो खोजा जाना चाहिए।’ झल्लन बोला, ‘हम कहे न ददाजू, आपकी ये सोच किसान विरोधी ही नहीं, लोकतंत्र विरोधी भी है। हमारा यह लोकतंत्र कहीं ताकतवरों का गेहूं-चावल है तो कहीं उनका चना है और हमारा यह प्यारा लोकतंत्र समस्याओं के समाधान के लिए नहीं बना है। यह लोकतंत्र एक मोटा भैंसा है, सो जिसके हाथ में ताकत का मोटा लट्ठ होता है वही इसे हांकता है, फिर चाहे सरकार हो या सुप्रीम कोर्ट हर कोई बगलें झांकता है।’ हमने कहा, ‘पर झल्लन, यही हाल रहेगा तो हमारा भविष्य खतरे में पड़ जाएगा और इसका खामियाजा छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब हर कोई उठाएगा।’ झल्लन  बोला, ‘जिन्हें चिंता होनी चाहिए जब उन्हें चिंता नहीं है तब आप काहे सर खपा रहे हैं, काहे अपने दिमाग को चिंता के मौसमी बुखार में तपा रहे हैं? और रही भविष्य की बात तो कौन जाने कौन जाएगा और कौन रह जाएगा, आगे जो होना होगा वह हो ही जाएगा। अच्छा ददाजू, अब हम उठेंगे, जाइके कहूं पावरी में शिरकत करेंगे?’ हमने पूछा, ‘पावरी? ये क्या है?’
झल्लन बोला, ‘का ददाजू, कभी-कभार सोशल मीडिया में भी डुबकी लगा लिया करो, वहां क्या बन-पक रहा है थोड़ा उसे भी गह लिया करो। पावरी का मतलब होता है पावरफुलों की पार्टी। सो ददाजू, उतें दिल्ली के बार्डरों पे जमींदान्नि की पावरी चलि रई ऐ, सरकार टुकुर-टुकुर तकि रई ऐ, सो आप भी ज्यादा सर मत खपाओ, घर जाओ और खुलकर अपनी पावरी मनाओ।’

विभांशु दिव्याल


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