चीन : वैश्विक चुप्पी ठीक नहीं

Last Updated 22 Jan 2021 02:25:56 AM IST

साम्यवादी शासन में सर्वसत्तावाद और सर्वाधिकारवाद का वर्चस्व स्थापित करने की शी जिनपिंग की नीतियां बेलगाम होकर चीन के नागरिकों के मानव अधिकारों को निगल रही हैं।


चीन : वैश्विक चुप्पी ठीक नहीं

वहीं वैश्विक मंच पर आर्थिक हित इतने हावी हो गए हैं कि मानव अधिकार जैसे अहम मुद्दे दुनिया में बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं। चीनी सत्तावाद की स्पष्ट धारणा है कि सत्तारूढ़ दल या विचारधारा को परम सत्य मानकर सच्चे मन से उसके निर्देशों का पालन किया जाए, उन पर कोई प्रश्न चिह्न न लगाया जाए। चीन के मशहूर उद्योगपति जैक मा ने लगभग ढाई महीने पहले चीन के कम्युनिस्ट शासन द्वारा नियंत्रित वित्तीय नियामकों और सरकारी बैंकों की नीतियों की आलोचना की थी। इन संस्थानों को उदार होकर नवाचारों को बढ़ाने और उन्हें प्रोत्साहित करने की नसीहत देते हुए नीतियों में सुधार करने की जरूरत बताई थी।
जैक मा के इस भाषण के बाद चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी ने मा के एंटी ग्रुप सहित कई कारोबारों पर असाधारण प्रतिबंध लगा दिए और इसके बाद जैक भी अचानक गायब हो गए थे। दुनिया भर में यह खबर आने के बाद उन्हें चीन की साम्यवादी सरकार ने एक वीडियो शेयर करके दिखाया, लेकिन वे कहां हैं इसे लेकर अभी भी रहस्य बरकरार है। फोर्ब्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिनपिंग के कार्यकाल में चीन के कई अरबपति गायब हो गए थे। इस दौरान गायब हुए कई लोग कभी दोबारा सामने नहीं आए। जाहिर है कि जैक लौट भी पाएंगे या नहीं, इसे लेकर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से  सवाल पूछने का किसी भी साहस नहीं था।  

अफसोस! वैश्विक मंच पर भी खामोशी रही और यह मानव अधिकारों के लिए सबसे बड़ा झटका है। यह भी बेहद दिलचस्प है कि जिस महीने जैक गायब हुए थे उस समय चीन में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे व्यवहार की लगभग 40 देशों ने आलोचना की थी और हांगकांग में उसके नये राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के मानवाधिकारों पर पड़ने वाले असर पर गंभीर चिंता जताई थी। इनमें ज्यादातर पश्चिमी देश थे, जिन्होंने शिनजियांग और तिब्बत में अल्संख्यक समुदाय के साथ किए जा रहे सलूक पर सवाल उठाए थे। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद मानव अधिकारों के उल्लंघन की निगरानी करती है, और समय-समय पर प्रत्येक सदस्य देश में मानवाधिकार की स्थिति की समीक्षा करती है। इसके प्रदर्शन पर भी अब सवाल उठने लगे हैं क्योंकि जैक जैसे तात्कालिक मामलों में भी चीन सरकार पर दबाव बढ़ाया जाना चाहिए थे, लेकिन संयुक्त राष्ट्र समेत किसी भी संस्था ने ऐसा अभी तक नहीं किया।
चीन ने मानव अधिकारों की स्थिति इतनी खराब है कि सामान्य नागरिक के लिए व्यवस्थाओं का विरोध करना भी  मुश्किल होता है। चीन के हूबे प्रांत में रहने वाले शाओ हुआंग के आंसू कई महीनों के बाद भी थम नहीं रहे हैं, वे निराश और हताश हैं। इस शख्स ने अपने दादा को कोरोना से मरते हुए देखा था, लेकिन इतने मजबूर थे कि न तो अपने दादा को बचा सके और न ही अस्पताल प्रबंधन के खिलाफ आवाज उठा सके, जिन्होंने समय पर मरीज को मूलभूत स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं दिया और नतीजतन शाओ के दादा चल बसे।
चीनी नागरिकों के लिए वहां की सरकार द्वारा संचालित किसी भी व्यवस्था की आलोचना करना अपनी जान को जोखिम में डालने वाला माना जाता है। अत : शाओ  बेबसी और लाचारी से अपने दादा को पल-पल मरते हुए देखते रहे, लेकिन अली बाबा के संस्थापक जैक मा, शाओ हुआंग की तरह शांत न रह सके। इसका परिणाम उनके लिए बेहद भयावह हुआ और शायद जानलेवा भी हो सकता है। बीसवीं सदी के महान दार्शनिक कार्ल पापर की विख्यात किताब ‘द ओपन सोसाइटी एंड इट्स एनिमिस’ में तर्क दिया गया है कि विचारधारा केवल सर्वाधिकारवादी समाज में ही पाई जाती है क्योंकि वहां सब मनुष्यों को एक ही सांचे में  ढालने की कोशिश की जाती है, मुक्त समाज में उसके लिए कोई जगह नहीं है। दुनिया के विकसित देशों को चुनौती देने वाला चीन विकास की नई इबारत तो गढ़ रहा है, लेकिन साथ ही उसे मानव अधिकारों को कुचलने से भी कोई गुरेज नहीं है, और न ही विश्व समुदाय उसे रोक पाया है। चीन से सबसे ज्यादा परेशान आसियान के देश रहे हैं, लेकिन वे भी चीन की आर्थिक नीतियों के जाल में फंसते जा रहे हैं। चीन ने आसियान देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौते आरसीईपी यानी रीजनल कम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप कर कूटनीतिक और आर्थिक जीत हासिल कर ली है। इसे विश्व का सबसे बड़ा व्यापार समझौता बताया जा रहा है जो विश्व की 30 फीसद आबादी को जोड़ने का काम करेगा। कोरोना काल में चीन के खिलाफ मुखर होकर जांच की मांग करने वाला ऑस्ट्रेलिया भी आरसीईपी में शामिल हो गया है। जापान, चीन, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत आरसीईपी में दक्षिण-पूर्व एशिया के दस देश शामिल हैं। इनमें सिंगापुर, मलयेशिया, इंडोनेशिया और म्यांमार शामिल हैं। दुनिया के डेढ़ सौ से ज्यादा देश चीन से लिए कर्ज की गिरफ्त में फंसे हैं। हालात ये हैं कि चीन अब विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी बड़ा कर्जदाता बन गया है।
इन सबके बीच यह बड़ा संकट है कि दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश चीन यह समझना ही नहीं चाहता कि आर्थिक समृद्धि और आर्थिक सुधार पर आधारित नीतियों से संपूर्ण मानव अधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकती, जबकि वैश्विक समुदाय लोकतांत्रिक अधिकारों को दरकिनार करने वाले चीन को रोकने में नाकाम रहा है। बहरहाल, वैश्विक स्तर पर चीन के बढ़ते प्रभाव से मानव अधिकार समूह दबाव में हैं, और वे चीन के खिलाफ प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं। कई देशों की सरकारें उन्हें ऐसा करने से बलपूर्वक रोक देती हैं। ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में हांगकांग और वीगर मुसलमानों को लेकर चीन की नीति की आलोचना की गई थी, लेकिन जैक कहां थे, और कब लौटेंगे, इसे लेकर न तो कोई प्रदर्शन हुए और न ही चीन पर दबाव बढ़ाया गया। विश्व समुदाय की यह चुप्पी दुर्भाग्यपूर्ण है।

डॉ. ब्रह्मदीप अलूने


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment