अमेरिका : महिला नेतृत्व की बढ़ी साख
कोविड काल के पहले अमेरिकी चुनाव में जनतंत्र और महिला नेतृत्व की साख बढ़ी है।
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पहली बार महिला उप राष्ट्रपति बनी कमला हैरिस की जीत सदियों से खुद को हाशिए पर महसूस करने वाली अमेरिकी आधी आबादी के लिए तो अच्छा शगुन तो है ही भारत-अमेरिकी रिश्तों के लिए भी अहम है। पिछली बार हिलेरी क्लिंटन के राष्ट्रपति बनने की उम्मीदें बंधी थी तब भी लगा था कि अमेरिका को पहली नेत्री नसीब होगी। मगर अमेरिकी आवाम उनकी काबिलियत और नीयत पर पूरा भरोसा नहीं कर पाई। कमला की दावेदारी भी राष्ट्रपति के लिए हुई, लेकिन फिर सियासती करवटों ने पासा पलटा। उनकी हैसियत ने दूसरे दमदार ओहदे के लिए उन्हें चुन लिया।
देश के सामने किए जीत के पहले इजहार में उन्होंने बतौर महिला इस घटना को इतिहास की सबसे बड़ी अड़चन दूर होने की तरह पेश किया। कमाल करती हैं जब वो अपने देश की हर छोटी बच्ची को ये भरोसा दिलाती हैं कि ये मौका जो उन्हें मिला ये आखिरी बार नहीं होगा बल्कि अब सब बच्चियों के लिए उम्मीदों के दरवाजे खुलेंगे। उनकी ये बात आधुनिक समाज की आंखों में चमक पैदा करती है तो सिर्फ इसलिए कि जो पांव और खयाल खुद को कमज़ोर मानते रहने की बन्दिश में थमे रहे अब दोगुने हौसले से आगे बढ़ेंगे।
अमेरिका में सौ साल पहले हुए 19वें संविधान संशोधन और 55 साल पहले हासिल औरतों को वोट देने के अधिकार की याद दिलाते हुए औरतों की अपने हक और सुनवाई की परवाह करने के जिक्र से जाहिर है कि उनका इस पद पर होना अमेरिका को दुनिया के हर मंच पर कई मामलों में मुखर होने की वजह देगा। भारत और अपनी मां को याद करने के साथ ही उन जुदा जड़ों वाली अेत, एशियाई, ेत, लातिवी और आदिवासियों महिलाओं के संघर्ष को सराहते हुए वो नहीं भूलतीं कि इसी साझेदारी ने उन्हें इस पायदान तक पहुंचाया है।
फिलहाल दो बातें गौर करने की हैं। औरतों की राजनीतिक नुमाइंदगी की अहमियत और महिला वोट बैंक के बतौर खुद को किनारे से खींच कर केंद्र में ले आने की शिद्दत। बतौर वोटर उसकी बढ़ती दखल का सिलसिला अमेरिका में 1980 के आस पास नजर आया जब औरतों ने आदमियों के मुकाबले ज्यादा वोट किया। पिछले चार दशकों में अमेरिकी औरतों ने अपनी मर्जी के मुताबिक ही वोट तय किया है। जाहिर है अपनी चाहतों से समझौता किए बगैर अब सियासी फैसलों को वो खुद की जिंदगी पर असर से परखती हैं। इस बार ओबामा ने बाइडेन के लिए महिला वोटर्स से फोन पर वोट की अपील कर ये दोहराया कि इस आबादी की अनदेखी करना सियासी समझदारी भी नहीं, ईमानदारी भी नहीं। चुनावी दंगल में भी दोनों दावेदारों ने महिलाओं को अपनी अपनी तरीके से लुभाने में कसर नहीं छोड़ी। साल 2016 के चुनाव में ेत महिलाओं के वोट बैंक ने ट्रंप के मुकाबले हिलेरी को ज्यादा पसंद किया था, लेकिन चुनावी नतीजों में दोनों पलड़ों के झुकाव पर असर ये है कि अमेरिकी चुनाव में महिलाओं का वोट प्रतिशत पुरुषों को लगातार पछाड़ ही रहा है। करीब चार फीसद की लगातार बढ़त ने नागरिक के तौर पर उनका कद ऊंचा ही किया है। पिछले 30 सालों में वहां की अफ्रीकी महिलाओं ने अफ्रीकी मदरे के मुकाबले हमेशा ही ज्यादा वोटिंग की है। हर जिम्मेदारी का बोझ लादे हुए वो राजनीति की फिजा की बेहतरी के जिम्मे से भी पीछे नहीं हटी।
चाहे अमेरिका हो या भारत, ये मिथक भी आधी आबादी ने तोड़ना चाहा है कि उनके मसलों को बाकी देश-दुनिया के मसलों से जुदा करके खांचों में देखा जाना जायज नहीं। उसकी फिक्र के मामले सियासत और समाज की देश की आर्थिक, सामाजिक, सेहत में ही गुंथे नहीं हैं बल्कि नई पीढ़ी को सौंपी जाने वाली चेतना से भी उनका गहरा रिश्ता है। किसी एक नेत्री की जीत हार से आधी आबादी और देश की किस्मत बदलना भले ही तय न होता हो, लेकिन सियासी मैदान में उसकी मौजूदगी भर से ये आस तो जागती ही है कि वो अपने संवाद-संवेदना की ताकत को जाया नहीं जाने देगी। बाकी बड़ी तब्दीली के लिए तो हर किरदार को ही असरदार होना होगा। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिण्डा आरडर्न जब चुनकर आई तो पहली ही मर्तबा ‘वेलबीइंग बजट’ पेश कर सबको चौंका दिया था। कारगर नीतियों की बदौलत ही दूसरी बार सर माथे बैठाया है उन्हें देश ने। भारतीय संदर्भ में राजनीति की मुख्यधारा में अभी महिलाओं की मौजूदगी उसकी काबिलियत के मुकाबले बेहद कम है इसलिए उनकी झिझक को झाड़ना बेहद जरूरी है। आजाद भारत में सुचेता कृपलानी, नंदिनी सत्पथी, राजकुमारी अमृत कौर जैसी नेत्रियों ने अपने बूते अपनी शनाख्त पाई तो हाल के दौर में स्मृति ईरानी ने भी तमाम इल्जाम अपने सर लेते हुए तंत्र में जमी काई को हटाने की भरपूर कोशिश की।
राजस्थान की गायत्री देवी ने अपने पहले संसदीय चुनाव में रिकॉर्ड मत हासिल कर साबित किया कि एक राजमाता भी लोकशाही के आगे नतमस्तक रहेंगी। इंदिरा गांधी से उनकी खींचतान का खामियाजा उन्होंने इमरजेंसी में जेल में रहकर भी भुगता। पिछले आम बजट के दौरान असम से संसद पहुंची नेत्री सुष्मिता देव ने सेनेटरी पैड पर जीएसटी की छूट की मांग वित्त मंत्री के सामने पुरजोर रखी। सरकार ने इसके हक में अपना फैसला रखकर उन 70 फीसद महिलाओं का ध्यान रखा जिन्हें ये सहूलियत आसानी से मुहैया नहीं। बिहार की तर्ज पर वसुंधरा राजे ने बच्चियों को स्कूल जाने के लिए साइकिल देने के फैसले से लाखों बच्चियों के हौसलों के पहिए जिस तरह दौड़े उसकी बात आज भी खुलकर नहीं होती।
कामयाब होना न होना दीगर बात है, वक्त की नजाकत समझना, धारा के खिलाफ बढ़ने का हौसला रखना और काम की बदौलत इज्जत हासिल करना ही असल जीत है। ये बात सुकून की है कि भारत में पिछले 15 चुनाव में महिलाओं के वोट में लगातार इजाफा हुआ है और इस बार सबसे ज्यादा 14 फीसद महिला सांसद हैं, लेकिन बहस और फैसलों में उनकी संजीदगी लगातार नजर आती रहे ये जरूरी है। कमला हैरिस के अल्फाजों को दुनिया भर की औरतों को याद रखना होगा कि खुद को दूसरों के चश्मे से ना देखें। उतना ही जरूरी ये कि दो देशों के बीच गर्मजोशी बनी रहे। लोकनीति की लौ जलाने और जेंडर भेद मिटाने में कोई पीछे न रहे।
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