संघीय रिश्ता : अच्छी नहीं अनबन की आंच
केंद्र का रूतबा राज्यों पर इस खातिर, इस तरीके से कायम किया गया कि जिस सूत्र में देश की 565 रियासतों को पहले गृह मंत्री वल्लभ भाई पटेल पिरो गए थे, वो धागा सरदारी तासीर से बंधा रहे।
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संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन से संसदीय व्यवस्था ली और अमेरिका से उनका फेडरल यानी संघीय ढांचा। राज्य सभा के गठन के पीछे सोच यही रहा कि राज्यों की बात और जरूरत दरकिनार न हों। आबादी के मुताबिक उच्च सदन में राज्यों की नुमाइन्दगी रही।
संघ, राज्य और समवर्ती सूची के जरिए आपसी मामलों का बंटवारा संविधान के अनुच्छेद 246 के मार्फत किया गया ताकि दखल का लिहाज रहे और सूबों की आजाद खयाली भी देश हित के दायरे में रहे। केंद्रीय कानून और फैसले राज्य की मनमर्जी पर हमेशा भारी रहेंगे, ये पुख्ता तौर पर लिख दिया गया, लेकिन सूबे के अंदरूनी मामलों में केंद्र तभी अपने पैर अड़ा सकता है जब दुनिया से भारत सरकार के किए वादों को अमली जामा पहनाने में कोई आनाकानी कर रहा हो। फिर भी कुछ ऐसे राज्य हैं, जो हमेशा केंद्र से तने हुए रहते हैं। केंद्र और राज्य में अलग-अलग पार्टयिों की सरकार होने से केंद्र के हर फरमान को राज्य अक्सर जनता के फायदे नुकसान से ज्यादा राजनीतिक रुआब से तोलते हैं और नाफरमानी भी करते हैं। कोविड की मार के शुरूआती दौर में भी ऐसे राज्यों को काबू करना मुश्किल था जिन्हें हर फैसले में साजिश की बू आती है। इस दौरान पश्चिम बंगाल सबसे बेलगाम सूबा साबित हुआ। संविधान के अनुच्छेद 245 में संसद को ये हक़ है कि वो देश के किसी भी हिस्से के लिए कानून बना सके, उसे लागू कर सके।
स्वास्थ्य का मामला भले ही राज्य के दायरे का हो लेकिन 1897 के महामारी कानून के तहत कोविड को कुदरती महामारी की तरह देखा गया। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन कानून, 2005 के तहत केंद्र ने आपात हालात संभालने के लिए राज्यों के लिए स्वास्थ्य निर्देश जारी किए। इस दौरान प्रशासनिक और वित्तीय कमान दोनों अपने हाथ में लेकर दबाव भी बनाया ताकि राज्य केंद्रीय एजेंसियों के बताए रास्ते पर चलकर हालात से निपटें। कमोबेश सभी राज्यों ने हर आदेश-निर्देश माना क्योंकि एक की भी आनाकानी पूरे देश में बिगाड़ की वजह बन सकती थी। कोर्ट में कुछ मामलों को चुनौती मिली तो वहां से भी फैसला यही आया कि हर व्यक्ति को मेडिकल मदद मुहैया कराना और जन-स्वास्थ्य की फिक्र साझी हो। कुछ राज्यों ने केंद्र की ताकीद के बावजूद बाजार-कारोबार खोलने का फैसला लिया तो इस मनमानी पर केंद्र ने सख्ती दिखाई ताकि हालात बेकाबू न हों। बावजूद इसके केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्य ‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ की तर्ज पर चलते रहे। इस दौर में राज्यों का आपसी तनाव भी जगजाहिर हुआ जब एक राज्य की सीमा में दूसरे इलाके के नागरिकों के दाखिले और सहूलियतों पर भी ऐतराज हुआ। उसी तरह कई राज्य अपने हिसाब से सीबीआई की राज्य में जांच के अधिकार पर भी केंद्र से गुत्थमगुत्था होते रहे हैं। उन्हें लगता है ये राजनीतिक हथियार हैं, जिसे केंद्र राज्यों पर अपना दबाव बनाने और अपनी कतार में खड़ा होने के लिए मजबूर करता है।
पिछले दो-तीन सालों में आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अब महाराष्ट्र ने राज्य की इजाजत के बगैर सीबीआई जांच से इनकार किया है। कानूनी नजरिए से सीबीआई संसदीय व्यवस्था से उपजी एजेंसी है भी नहीं। इसे दिल्ली सरकार के स्पेशल पुलिस एक्ट के तहत बनाया गया, जबकि नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी यानी एनआईए संसदीय कानून से वजूद पाने वाली संस्था है। फिर भी छत्तीसगढ़ ने तो धारा 131 का हवाला देकर एनआईए तक को भी चुनौती दे दी। नागरिक संशोधन कानून यानी सीएए के मामले में केंद्र और राज्य के बीच चली खींचतान में केरल ने भी धारा 131 के बूते कोर्ट में दस्तक दी थी। ये धारा केंद्र-राज्य के बीच ऐसे मामलों में विवाद के निपटारे के लिए है। इन मामलों ने जो भी रंग लिया, लेकिन ये फिर से जाहिर हुआ कि केंद्र और राज्यों के मामलों में अहम के टकराव से बचने के लिए कोई ऐसी कारगर व्यवस्था जरूर होनी चाहिए, जहां लोकहित की सुनवाई हो। साथ ही देश के संघीय ढांचे से छेड़छाड़ किसी भी तरफ से न हो। जब केंद्र और राज्य एक दूसरे का हाथ थामे बगैर अपनी-अपनी धुन में चलते हैं तो कई फैसले लागू होने में अनिगनत साल ले लेते हैं। एक देश, एक कर यानी जीएसटी लागू होने में करीब दो दशक का समय बीत गया और आखिरकार सारे खतरे मोल लेते हुए, तमाम अड़चनों को झेलते हुए लागू तभी हो पाया जब जीएसटी काउंसिल ने एक-एक सवाल का हल बातचीत से निकालना मंजूर किया। संशोधन होते चले गए और मामला धीरे-धीरे संभलता गया। राज्यों में सरकारें किसी की भी हो मगर एक रवायत ये भी रही कि प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों की नियुक्तियों में भी केंद्र-राज्य आमने-सामने होते रहे हैं। सत्ताओं की पसंद के अफसरों को कायदे ताक में रखकर मन-मुताबिक कुर्सयिां हासिल होती रही हैं।
सेवा का विस्तार देकर मुख्य सचिव के पद पर सेवा में बनाए रखने की राजस्थान सरकार की कवायद को इस बार केंद्र ने नामंजूर कर दिया। इसे भी संघीय आजमाइश और दखलंदाजी की ही तरह देखा जा सकता है। फिर भी प्रशासनिक सुधार के नजरिए से ये फैसले अहम हैं। केंद्र और राज्य के बीच पिछले सालों में ऐसे कई मामले पेश हुए जिन पर रजामंदी नहीं होने पर राज्यों ने झुकना मंजूर नहीं किया। हालिया कृषि अध्यादेश हों या केंद्रीय शिक्षा नीति में भाषा को लेकर उठा बवाल या पिछले साल लागूू हुआ मोटर व्हीकल कानून; कुछ राज्यों ने आवाज उठाई तो कुछ ने इन्हें सिरे से खारिज कर दिया।
खेती-किसानी और व्यापार कारोबार यूं तो राज्य के हक का मामला है लेकिन यहां केंद्र ने खाने-पीने की वस्तुओं के व्यापार से इसे जोड़कर देखा जिसमें केंद्र और राज्य दोनों की बराबर दखल है। अक्सर नीतियों के जमीन तक पहुंचने में देरी में आपसी तनातनी ही वजह होती है। जरूरी है कि राज्यों के साथ सलाह-मशविरा होता रहे। उन पर फैसले थोपने की नौबत ना आए। केंद्र असल में देश की सत्ता का केन्द्र नहीं, सबको बांधे रखने का संघ ही है जहां से हर राज्य को अपनी खूबियों के साथ बढ़ने का रास्ता मिलता है। लोकतंत्र की थिरकन के लिए जरूरी है कि जुदा सुरों पर एतराज न रहे। एहतियात ये भी बरता जाए कि शोर सड़क और बहस स्टूडियो की बजाय संसद में और फैसले लोकहित में हों।
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