सामयिक : मायूस ठेलों को राहत की आस
वर्षो से सड़कों पर मेहनत कर गुज़र बसर करने वाले त्योहारी मौसम में भी मायूस हैं। कोरोना के शुरूआती दौर में जिनके मुंह का निवाला सबसे पहले छिना उनमें ये तबका बड़ा है जो हर दिन की कमाई की बदौलत जिन्दा रहता है।
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ना बचत कर पाता है, न छत का इन्तजाम, न ही घर परिवार की फर्जअदायगी। कर्ज में ही डूबा रहता है क्योंकि मौसम की मार, ओहदेदारों की बदनीयति और हालात का शिकार रहते हुए ठेले खुद कभी भरपेट नहीं रह पाते। अपने बच्चों की परवरिश ही उसका छोटा सा ख्वाब है, जिसे वो मोलभाव करने वालों से जिरह की जिद छोड़कर बमुश्किल जिन्दा रखता है।
कभी आप उसकी दुखती रगों को छुएंगे तो मालूम होगा कि प्रशासन और नेता इन्हें इन्सान नहीं सड़कों पर बिखरे फिजूल सामान की तरह देखते हैं, जिन्हें कहीं से उठाकर कहीं भी फेंक दिया जाए। देश की अर्थव्यवस्था को छोटे दुकानदार और व्यवसायी किस हद तक मजबूती देते हैं इसका अहसास तब होता है जब मन्दी की मार में बड़े धराशायी हो जाते हैं। दुनिया भर की गड़बड़ाई गणित के दौरान भारत के अन्नदाताओं ने और औरतों की छोटी-छोटी बचत के साथ ही फेरीवालों और फुटकर सामान बेचने वालों ने भी देश की सांसों को जिन्दा रखा। हाल का दौर उन्हें क्यों अखरता जिन व्यवसायियों का गल्ला पहले ही भरा-पूरा था, लेकिन जिनके चूल्हे आठ दस दिन से ज्यादा की आग ना जुटा पाए उनकी गैरत ने उन्हें हाथ भी नहीं फैलाने दिए।
कुछ ठेलेवालों ने खुदकुशी तक कर ली। मगर ये हताशा बाजार को चमकाने वाले इश्तेहारों की भीड़ में दब कर रह गई। देश की आबादी में करीब ढाई फीसद हिस्सेदारी वाले ठेले-थड़ीवालों के लिए केन्द्र सरकार ने 50 लाख लोन देकर राहत का ऐलान किया, जिसकी जमीनी हकीकत ये है कि बैंक खानापूर्ति कर असल जरूरतमन्दों की दावेदारी कई बहाने से खारिज कर रहे हैं। फॉर्म भरने प्रक्रिया में ही उनकी उम्मीदें भरना तो दूर जेब ही हल्की होकर लौट रही है। इस हल्के में नहीं लेना चाहिए। सड़क के किनारे, मोहल्ले के नुक्कड़ और बाजारों के फुटपाथ पर फल, सब्जियां, नाश्ता, खाना, खिलौने, कपड़े, बैग, जूते सहित हमारी रोजाना की जरूरतों का अनगिनत सामान हमें हमारी जेब पर भार बने बगैर यहां हासिल है। पूरे देश की अर्थव्यवस्था में इनकी हिस्सेदारी का ठीक हिसाब कभी इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि ये असंगठित तबका है। इनका लेखा-जोखा नगर निकायों के पास इसलिए नहीं रहता। शहरों में यातायात व्यवस्था दुरूस्त करने या भीड़-भाड़ कम करने या सफाई अभियानों या अतिक्रमण हटाने की मुहिम के नाम पर थड़ी ठेले वालों पर ही गाज गिरती है। हफ्ता वसूली की जड़ें इतनी गहरी हैं कि हर दिन देश भर में करोड़ों की कमाई भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ती है। इन दिनों त्योहारों पर बाजारों में रौनक लौट रही है मगर खुशियां बेचते दिलों में इस बात की दहशत पल रही है कि जाने कब कोई डंडा ठेला पलट दे और फिर ठेलों और सामान को छुड़ाने के लिए रित का इन्तजाम करना पड़े। पुलिस और निगम के कारिंदों से मिलने वाली धौंस और उगाही इतनी आम बात है कि ठेला व्यवसायी भी इसे अपनी किस्मत ही मान कर बैठे हैं।
फेरीवालों की फिक्र की पहल वाजपेयी सरकार ने 2004 में फेरीवालों का संसार नीति बनाकर की। फिर 2009 में भी नीति बनी, फुटपाथों के भरोसे आजीविका बसर करने वालों के हक के बारे में समझ बनी और आखिरकार 2013 में सुप्रीम कोर्ट में बॉम्बे हॉकर यूनियन की याचिका पर फैसला आने के बाद केन्द्र में 2014 में कानून बना और उन्हें आजीविका का हक हासिल हुआ। राज्य सरकारों ने अपने यहां पहले से बनी वेंडर नीतियों और फिर केन्द्रीय कानून को लेकर भी खानापूर्ति की तो हेरिटेज सिटी थड़ी ठेला यूनियन के तले एक जुझारू ठेला व्यवसायी बनवारी लाल ने 2015 में सुप्रीम कोर्ट दस्तक दी। कोर्ट ने हिदायत दी कि कानून पर अमल हो और संवेदनशील इलाकों को छोड़कर वेंडिंग जोन बनाए जाएं। मगर तब तक इन्हें अपनी जगह से बेदखल करना गैर-कानूनी होगा। कानून ने तो सांविधानिक अधिकार मानते हुए फुटपाथ-ठेले व्यवसायियों को उनकी मर्जी की जगह कमाई करने की आजादी भी सौंपी है। ये सब वेंडिंग समिति के जरिए होगा।
ज्यादातर राज्यों में पहली केन्द्रीय नीति आने के बाद हॉकर्स, पथविक्रेता, स्ट्रीट वेंडर जैसे अलग-अलग नाम से नीति लाकर इनकी फिक्र तो की। कई जगह कवायद भी हुई, लेकिन ज्यादातर मामला सिर्फ कागजी फुर्ती का ही रहा। इन्दौर, पटना, भुवनेर जैसे कई शहरों ने काफी अमल भी किया, लेकिन जयपुर जैसे हेरिटेज शहरों में जगह-जगह नॉन-वेंडिंग जोन की तख्तियां लग गई। मानो पूरा शहर ही संवेदशील इलाका हो। बिहार के ठेला व्यवसायियों ने तो इस चुनाव में मांग भी रखी है कि राज्य में कानून लागू करते हुए लाइसेन्स मिले, स्मार्ट सिटी के नाम पर थड़ी-ठेलेवाले नजरअंदाज न हों, आवास सहित दूसरी सरकारी योजनाओं और बीमा, हेल्थ कार्ड से जोड़ें, लोन आसानी से मुहैया हो। कानूनन फुटपाथ-ठेलों पर सामान बेचने वालों का सर्वे होना है, जब तक और कहीं बसाने का इन्तजाम नहीं होगा तब तक हटाया नहीं जाना है, नई बसावट से पहले उनकी सहूलियत का ख्याल रखना है और तमाम मसलों के हल और आवाज के लिए वेंडिग समिति का वजूद भी होना है, लेकिन देश भर में ही टाउन वेंडिंग समिति तक को नेताओं और दबंगों ने अपनी घुसपैठ से नहीं बख्शा। असल हकदार हर जगह दरकिनार हैं।
इलाज सिर्फ यही है कि सरकार ईमानदार अफसरों को असल ठेले व्यवसायियों की पहचान करने और उन्हें लाइसेन्स देने का जिम्मा दे दे। एक और दुखती रग है इनकी जिसका इलाज तो सरकारों को बिना वक्त गंवाए करना ही चाहिए। जिस बेदर्दी से सामान उठाने, फेंकने और ठेलों की जब्ती की हरकत नगर निकाय करता है उसका हर्जाना उन्हें ही भुगतने का फरमान हो तो इस पर लगाम लगे। ठेले-फुटपाथ पर कमाई करने वाले आत्मनिर्भर बनने की चाह वाले भारत के ही पहिए हैं, जिन्हें दौड़ता देखना हमारे अपने ही दमखम का नजारा होगा। इस वक्त रफ्तार में रहना, फिक्रमंद होना साझी जरूरत है।
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