मुद्दा : दंगों की आग में घी डालता सोशल मीडिया

Last Updated 23 Oct 2020 02:35:56 AM IST

अफवाहों के पैर नहीं होते। इसके बावजूद ये चलती बहुत तेज हैं। नासमझी की बैसाखी के सहारे ही इनकी रफ्तार पहले ही कुछ कम न थी। उस पर सोशल मीडिया ने तो मानो इन्हें पंख ही दे दिए हैं।


मुद्दा : दंगों की आग में घी डालता सोशल मीडिया

इसके भयावह नतीजे सामने आ रहे हैं। बीते फरवरी महीने में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे इसकी हालिया नजीर हैं। इन दंगों में सोशल मीडिया ने आग में घी डालने का काम किया। दिल्ली दंगों पर जिम्मेदार नागरिकों, वकीलों और छात्रों द्वारा जारी रिपोर्ट में यह सामने आया है।
‘फरवरी 2020 के दिल्ली दंगे : कारण, दुष्प्रभाव और परिणाम’ शीषर्क से जारी रिपोर्ट में दावा किया गया है कि नागरिकता संशोधन कानून के क्रियान्वयन और उसके बाद होने वाले धरना-प्रदशर्नों के कारण घृणात्मक भाषणों में इजाफा हुआ। इसकी वजह से सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़की। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली दंगों का माहौल किसी बारूद के ढेर की तरह तैयार था जो हल्की-सी चिंगारी से भड़क जाता। एक भाजपा नेता के भड़काऊ भाषण और एक महिला की लाइव फेसबुस पोस्ट ने मानो उस माहौल में ऐसा ही प्रभाव डाला। सोशल मीडिया पर चली अफवाहों और बेबुनियाद बातें दंगे शुरू होने की महत्त्वपूर्ण वजह बनीं। रिपोर्ट में उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों के भड़कने में जहां सोशल मीडिया को अहम कारक के तौर पर इंगित किया गया है, वहीं कई दिनों तक इनके बेकाबू होने के पीछे भी इसे काफी हद तक दोषी करार दिया गया है। इसमें साजिश के तौर पर दंगाइयों की भीड़ जमा करने के साथ-साथ पुलिस की संदिग्ध भूमिका, अकर्मण्यता, दंगाइयों के साथ नरम रु ख जैसी बातों का भी उल्लेख है। देश में होने वाले लगभग सभी सांप्रदायिक दंगों में ये बातें सामान्यत: देखने को मिलती हैं, लेकिन रिपोर्ट में दंगों के फैलाव की बड़ी वजह सोशल मीडिया पर कई दिनों तक चली अफवाहों और उनके जरिए हमलों को समन्वित और संगठित करने की बात भी कही गई है।

इधर दंगों में सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल की बातें लगातार सामने आ रही हैं। भीमा कोरेगांव और कासगंज समेत देश में हालिया दंगों में इसी तरह के मामले सामने आए हैं। गहराई में जाने पर हमेशा से ही सभी दंगों में मूल तत्व ‘अफवाह’ ही निकलती रही है, लेकिन पहले गली-नुक्कड़ और चौपालों पर होने वाली चर्चा इनके फैलने का माध्यम थीं। लोगों की जुबानी फैलने के बावजूद इसे फैलने में कुछ तो समय लगता था जिसकी वजह से कई बार पर प्रशासन की सर्तकता से डैमेज कंट्रोल हो जाता था। अब इन चर्चाओं और अड्डेबाजी का रूप-प्रारूप और स्थान बदल गया है। चाय की चुस्कियों और हुक्के की गुड़गुड़ की जगह टेक्नोलॉजी ने ले ली है। सोशल मीडिया नामी प्लेटफार्म अब चर्चा का अड्डा बन गया है। इसमें कई बार बड़ी कारआमद और ज्ञानवर्धक बहसें होती हैं, लेकिन कई बार बड़ी निर्थक और तर्कहीन बातें भी होती हैं।  
दिल्ली दंगों के दौरान भी सोशल मीडिया पर ऐसी कई आधारहीन सामग्रियां फैलाई गई। मसलन, भोपाल की महिलाओं का वीडियो सीएए विरोधी धरने पर बैठी महिलाओं से जोड़ा गया। फिर दिल्ली दंगों के दौरान जानबूझ कर सोशल मीडिया के जरिए ऐसी बातों का प्रचार-प्रसार किया गया जिनसे लोगों की भावनाएं भड़कें।  सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो ने जहां एक वर्ग की भावनाओं को भड़काया तो वहीं जली मस्जिदों और उस पर भगवा झंडा लगाने से दूसरे समुदाय की भावनाएं आहत हुई। आम तौर पर जब भी कहीं हिंसा या सांप्रदायिक दंगे-फसाद होते हैं, तो स्थिति को नियंत्रित करने के लिए धारा-144 जैसी कुछ पाबंदियां लगाई जाती हैं। सोशल मीडिया चूंकि आभासी दुनिया है, इसलिए इस पर धारा-144 लागू करना और लोगों के समूह को इकट्ठा होने से रोकना संभव नहीं है। दंगे-फसाद जैसी परिस्थितियों में हालात बेकाबू होने पर जैसे प्रभावित क्षेत्रों में कर्फ्यू लगाने की मजबूरी होती है, उसी तरह सोशल मीडिया को दंगाई न बनने देने के लिए हालात नियंत्रित होने तक उस पर कुछ दिनों के लिए पाबंदी लगाई जा सकती है। साथ ही, सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो।

मोहम्मद शहजाद


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