किसान बिल : अच्छी नहीं सरकार की नीयत

Last Updated 06 Oct 2020 12:52:55 AM IST

कृषि क्षेत्र पर सालों से अपनी गिद्ध दृष्टि जमाई हुई कॉरपोरेट लॉबी ने एक बार फिर सरकार के माध्यम से अपना खेल शुरू कर दिया है।


किसान बिल : अच्छी नहीं सरकार की नीयत

आपदा को अवसर में बदलने की होड़ में एक बार फिर से पूंजीपतियों ने देश के अन्नदाता और भारतीय अर्थव्यवस्था की धूरी किसान और कृषि उत्पाद पर अपने खूनी पंजे गड़ा दिए हैं।
सर्वविदित है कि इस आपदा काल में एकमात्र कृषि क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था और जीडीपी को सहारा दिया है, लेकिन उसे पुष्पित-पल्लवित और संरक्षित करने की जगह सरकार ने किसानों को कॉरपोरेट का जर-खरीद गुलाम बनाने की कवायद कर ली है।

संसद के मौजूदा मानसून सत्र में जहां एक तरफ प्रश्नकाल को समाप्त करके विपक्ष की धार को भोथर करने की कोशिश की गई, वहीं दूसरी तरफ कृषि अध्यादेश से संबंधित तीन अधिनियम विपक्ष के पुरजोर विरोध के बावजूद पारित कर दिए गए। मोटे तौर पर समझने के लिए हम इन अधिनियमों को तीन भागों में विभाजित करके इससे होने वाले नफे नुकसान का आकलन कर सकते हैं। पहला कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंंग और बिचौलिए (ई ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म) दूसरा अवैध भंडारण और कालाबाजारी कानून की समाप्ति तीसरा विवाद की स्थिति में न्यायिक हस्तक्षेप को अमान्य करार कॉन्ट्रेक्ट फार्मिग के तहत कृषि उत्पादों से जुड़े व्यवसायी घराने अब सीधे किसानों से एक निश्चित उपज का एक निश्चित मूल्य अदा करने के करार पर उनसे अपनी मनवांछित कृषि उत्पाद की खेती करा सकते हैं।

दूर से देखने में यह एक लुभावना प्रस्ताव लग सकता है, जिसमें किसान को अपने उत्पाद को बेचने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी और उसे निर्धारित मूल्य प्राप्त हो जाएगा। साथ ही नई तकनीकी और प्रारंभिक तौर पर कुछ एडवांस पैसा भी मिल जाएगा, लेकिन जब आप गहराई में जाएं तो एक तरह से किसानों की यह बंधुआ मजदूरी है, जिसमें चंद पैसों की मदद की आड़ में बड़े कॉरपोरेट घराने अपने हिसाब से खेती करावाएंगे और अपनी ही जमीन पर किसान मात्र एक मजदूर की हैसियत में होगा। साथ ही उपज की क्वालिटी निर्धारण के नाम पर घटिया करार देकर कम मूल्य अदा करने के खतरे बने रहेंगे। इसके साथ-साथ बिचौलियों को खत्म करने का दावा करने वाली सरकार ने बिचौलियों को आधिकारिक मंजूरी दे दी है, जिसके तहत कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था जो पैन कार्ड होल्डर है, वह कृषि उत्पादों के विपणन के लिए ‘ई मार्केटिंग प्लेटफॉर्म ‘स्थापित कर सकता है।

हम सब इस तथ्य से वाकिफ हैं कि देश का किसान तकनीकी रूप से इतना समृद्ध नहीं है के वह ‘ई मार्केटिंग प्लेटफॉर्म’ और कॉरपोरेट घरानों के द्वारा किए जा रहे कॉन्ट्रैक्ट की पेचीदगीयों को समझ सके। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की ओर से अगर इस बात की बाध्यता लगाई गई होती कि कोई भी करार सरकार द्वारा निर्धारित उस उत्पाद के ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ से कम पर नहीं हो सकता तो शायद हम इसे बेहतरी की ओर लिया गया एक कदम कह सकते थे, लेकिन ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ का जिक्र भी ना होना विपक्ष की उस आशंका को बल देता है, जिसमें उसे यह लगता है इस अधिनियम की आड़ में सरकार विभिन्न कृषि उत्पादों से ‘सरकारी विपणन’ और न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रक्रिया को खत्म करने की दिशा में अग्रसर है, जोकि किसान हितों पर गहरा आघात होगा।

जहां एक तरफ सरकार किसानों को अपनी ही जमीन पर कॉरपोरेट घरानों की मर्जी पर काम करने वाला मजदूर बना रही है, वहीं अनाज, दलहन, तिलहन, आलू-प्याज को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे से हटा करके उनके भंडारण पर लगी रोक को समाप्त करने का अधिनियम पारित करती है। बड़े व्यापारिक घरानों की शुरू से यह मांग रही है कि भंडारण की सीमा की बाध्यता को समाप्त किया जाना चाहिए। इसके पीछे उनकी मंशा कृषि उपज के उत्पादन के समय किसान की पूंजी की कमी की बाध्यता का फायदा उठाते हुए ओने-पौने दामों में उनसे अनाज एवं अन्य उत्पाद लेकर उसका भंडारण कर सके और फिर कई गुना ज्यादा दाम पर उसे बेचकर मुनाफा कमाया जा सके।

इस पूरी प्रक्रिया का तीसरा सबसे खतरनाक पहलू यह है कि नये कृषि अधिनियमों में किसान और व्यवसायिक घरानों अथवा ई मार्केटिंग प्लेटफार्म के बिचौलिए के साथ हुए करार में किसी भी विवाद की स्थिति में किसी भी न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि वह उस विवाद में कोई हस्तक्षेप कर सके। जाहरि है के किस प्रकार से व्यावसायिक घराने अपने पैसों और राजनैतिक रसूख के बल पर प्रशासनिक तंत्र को अपनी उंगलियों पर नचाते रहे हैं और वैसे भी सिर्फ  पूंजी के दम पर बिना किसी मेहनत के मुनाफा कमाने वाली कंपनियों से अपने मुनाफे के संबंध में किसी प्रकार की सदाशयता की उम्मीद बेमानी है।

कमलाकर त्रिपाठी


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