कोविड-19 : कब मिलेगी मुक्ति?

Last Updated 15 Sep 2020 03:01:11 AM IST

कोरोना ने तमाम विकास और दावों, खासकर स्वास्थ्य को लेकर पूरी दुनिया की कलई खोल दी है।


कोविड-19 : कब मिलेगी मुक्ति?

इस वैश्विक महामारी ने फिर बतला दिया कि कहीं-से-कहीं पहुंच जाओ, चुनौतियां उससे भी तेज ऐसी मुंह बाये आ खड़ी होती हैं कि पूछिए मत।  21वीं सदी के इस युग में यह लाचारी और बेबसी नहीं तो और क्या है जो महज 0.85 एटोग्राम यानी 0.00000000000000000085 ग्राम के कोरोना के एक कण, जिसे केवल इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप विश्लेषण तकनीक से ही देखा जा सकता है ने ऐसा तूफान मचाया कि पूरी की पूरी मानव सभ्यता पर भारी पड़ गया।
बदहाल हो चुकी  दुनिया को इस बेहद अतिसूक्ष्म वायरस से कब मुक्ति मिलेगी, कोई नहीं जानता। अलबत्ता गणित के हिसाब से करोड़ों को गिरफ्त में लेने की जुगत वाले कोरोना के वजन की बात करें तो 3 मिलियन यानी 30 लाख लोगों में मौजूद वायरस का कुल वजन केवल 1.5 ग्राम होगा। इससे, इसकी भयावहता का केवल अंदाज लगाया जा सकता है। एशियाई विकास बैंक के ताजे आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के साथ-साथ केवल दक्षिण एशिया के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी पर 142 अरब से 218 अरब डॉलर तक असर होगा। यह बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी जो झलक रही है, लेकिन सवाल फिर वही कि दुनिया के विकास के दावे कितने सच, कितने झूठ? इसमें कोई दो राय नहीं कि स्वास्थ्य को लेकर मानव सभ्यता 21वीं सदी में भी बहुत पीछे है। ले देकर दवाई से ज्यादा बचाव का सदियों पुराना तरीका और दादी के नुस्खे कोरोना काल में भी कारगर होते दिख रहे हैं। मतलब स्वास्थ्य को लेकर दुनिया के सामने गंभीर चुनौतियां बरकरार हैं और इनसे बहुत कुछ सीखने, जानने और समझने के साथ यह भी शोध का विषय है कि आखिर हर 100 साल बाद ही महामारी नये रूप में क्यों आती है? हालात बताते हैं कि पुरानी महामारियों सरीखे कोरोना जल्द जाएगा नहीं। सवाल यही कि तो काबू में कैसे आएगा? स्वास्थ्य को लेकर औसतन हालात देश भर में बेहद खराब हैं। मरीजों को कहीं ऑक्सीजन, कहीं बिस्तर, कहीं आईसीयू की कमी का सामना करना पड़ रहा है तो कहीं चिकित्सकों की बेरूखी या सही देखरेख के न होने से तो कहीं ऑक्सीजन जैसी प्राणवायु की कालाबाजारी से दो चार होना पड़ रहा है।

दवा के नाम पर जानी-पहचानी साधारण गोलियां भी कोरोना काल में आड़े है क्योंकि इससे लोगों में खासा भ्रम भी फैल रहा है। इस बीच कोरोना से बचाव के वास्ते लगाए गए लॉकडाउन ने दुनिया के अर्थतंत्र की कमर तोड़ दी है। दोबारा लॉकडाउन से अव्यव्थाओं की महामारी का सिलसिला चल पड़ा है। ऐसे में कोरोना के साथ भी जीना है, कोरोना के बाद भी जीना है। हर 100 साल की तरह इतिहास ने खुद को क्या दोहराया, कोरोना नई महामारी बनकर सामने आया। हालात सैकड़ों बरस पहले जैसे हैं। न तो बीमारी की सही तासीर मालूम न ही दुनिया के पास कोई वैक्सीन या ठोस इलाज ही है। ऐसे में कोरोना के इलाज से ज्यादा उससे बचाव पर ध्यान केंद्रित करना स्वाभाविक है। यूं तो दुनिया भर में कोरोना वैक्सीन के दर्जनों क्लीनिकल ट्रायल जारी हैं। कई जगह तीसरे चरण का दौर है। पूरी प्रक्रिया जटिल है। अगले साल तक वैक्सीन बन भी गई तो आम लोगों तक पहुंचाने की प्रक्रिया भी कठिन होगी। दुनिया भर में 130 से ज्यादा टीकों पर शोध और प्रयोग का दौर जारी है, लेकिन इसके आने से पहले ही बाजारवाद और दुनिया भर के महत्त्वपूर्ण चुनाव का असर दिखने लगा है। रूसी टीका स्पूतनिक-वी से भारत को तमाम उम्मीदें हैं तो ऑक्सफोर्ड यूनिर्वसटिी व दवा निर्माता कंपनी ऐस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित कोविड-19 टीके पर दो दिन पहले रोक और फिर इजाजत काबिले सुकून है। इस बीच भारत में तेजी से बढ़ते संक्रमण ने चिंता बढ़ा दी है, लेकिन उससे भी बड़ा सच यह कि केवल वही अभागा कोरोना का असल खौफ समझ पा रहा है, जिसने किसी अपने को खोया है।
अनेकों सच भी सामने हैं जिसे लोगों ने देखा, समझा या महसूस किया है। जिनमें कोरोना से मृतकों के पॉलिथिन में पैक शरीर और पीपीई किट पहन अंतिम संस्कार करते स्वजन तो कहीं शमशान में अंतिम क्रिया नहीं करने देने पर घंटों भटकते शव की सच्चाई ने बुरी तरह से आहत किया, लेकिन फिर भी लोग हैं कि मानते नहीं। बस मास्क भर तो लगाना है और दो गज की दूरी रखना है वह भी घर से बाहर सार्वजनिक जगहों पर। ऐसे में इतना करना है जिसे प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि, ‘जब तक नहीं दवाई, तब तक नहीं ढिलाई।’ सच भी है क्योंकि कोरोना से बहुत लंबी बाकी है लड़ाई।

ऋतुपर्ण दवे


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