भारत-चीन संघर्ष : टूटेगा जिनपिंग का सपना

Last Updated 15 Sep 2020 03:03:52 AM IST

अंतराष्ट्रीय राजनीति में पिछले एक दशक से इस बात की चर्चा है कि दुनिया में राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा है।


भारत-चीन संघर्ष : टूटेगा जिनपिंग का सपना

शक्ति पश्चिमी दुनिया से खिसककर एशिया की ओर मुड़ रही है, जिसका सबसे प्रबल दावेदार चीन है। चीन की आर्थिक प्रगति और सैनिक व्यवस्था पिछले 4 दशकों में बहुत बदल गई है। चीन को उम्मीद है कि 2035 तक वह दुनिया का सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा और उसकी शक्ति क्षमता भी पहले पायदान पर पहुंच जाएगी, लेकिन ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं देता।
अंतराष्ट्रीय राजनीति के जानकर प्रो. र्रिचड हास का मानना है कि दुनिया के सुपर पावर बनने के लिए कई गुणों की जरूरत पड़ती है। उसमें दो गुण विशेष है। पहला; ऐसा देश जो दुनिया के किसी भी हिस्से में सैनिक हस्तक्षेप की क्षमता रखता हो। जैसा कि अमेरिका के पास आज भी जिन्दा है। दूसरा; दुनिया के किसी भी भाग में आणविक प्रक्षेपास्त्र दागने की कुव्वत हो। वह क्षमता भी अगर आज किसी देश के पास है तो वह अमेरिका ही है। यहां पर दोनों ही मानकों पर चीन की मठाधीशी कारगर नहीं दिखती। चीन एशिया महादेश का निष्कंटक संप्रभु बनने की कोशिश में है। उसके लिए वह तमाम तरह के प्रयास में सक्रिय दिख रहा है। अक्साई चिन में भारत के साथ सीमाई विवाद उसी सोच का नतीजा है, लेकिन चीन की मुराद अधर में लटकी हुई है। भारत ने चीन की व्यूह रचना को चुनौती दी है।

ताजा सूचना तक भारतीय सेना ने फिंगर 4 को चीन की सेना से छीन लिया है। जब चीन और भारत एक साथ राजनीतिक छावनी बनाने की तैयारी में जुटे थे तो अमेरिका ने भारत को अपना हितैषी माना था। सितम्बर 13, 1949 के न्यूयॉर्क टाइम्स में एक आलेख छपा था कि भारत चीन की शक्ति को रोकने में कामयाब होगा। 65 वर्षो तक भारत चीन की आत्मीयता के लिए सब कुछ त्याग करता गया। यहां तक कि सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य्ता भी चीन को अर्पित कर दी। तिब्बत की कुर्बानी दे दी, लेकिन उसके बाद भी चीन भारत के साथ छल करता रहा। पहले तिब्बत फिर हिमालय के तटवर्तीय देशों में अपनी धाक जमानी शुरू कर दी। भारत विरोध की लहर उन देशों में पैदा करना चीन की छल का एक हिस्सा बन गया। फिर भारतीय उपमहाद्वीप में चीन का हस्तक्षेप निरंतर बढ़ता चला गया। इसलिए भारत चीन की शक्ति प्रसार को रोकने में नाकामयाब रहा। हम एक चीन के सिद्धांत को शिद्धत के साथ मानते रहे, लेकिन चीन हमें एक लचर और लाचार पड़ोसी के रूप में अपनी धारणा बनाता गया। बदलाव का सिलसिला 2014 से शुरू हुआ, लेकिन यह बदलाव भी सांकेतिक था। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी पहली यात्रा भूटान से शुरू की। उसके बाद वह नेपाल गए। यह एक बदलाव की झलक थी। एक गंभीर संदेश था चीन के लिए।
1962 के युद्ध के पहले जब सेना प्रमुख चीनी आक्रमण के लिए चिंतित थे तो रक्षा मंत्री पाकिस्तान के साथ युद्ध की बात पर जोर दे रहे थे। यह बातें 1962 के भाषण में कही गई है। रक्षा मंत्री आगरा में यह बात युद्ध के पहले कही थी। अगर 2014 के पहले तक का भारत की हथियार क्षमता का आकलन करेंगे तो भारत की सुरक्षा नीति स्पष्ट रूप से परिभाषित हो जाती है। भारत के पास चीन के विरु द्ध लड़ने की कोई तैयारी ही नहीं थी। क्योंकि हमारे पास उस तरह के हथियार थे ही नहीं, जिससे चीन की शक्ति को जवाब दिया जाए। डोकलाम के बाद भारत सरकार चीन के विरु द्ध उसकी शक्ति को रोकने का फार्मूला ईजाद करने में जुट गई, जो बात 1949 में कही जा रही थी, उसकी शुरु आत 2017 के बाद शुरू हो गई। उसके बाद ही चतर्भुज आयाम बना, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया इसके अभिन्न अंग बने। एशिया पैसिफिक को इंडो-पैसिफिक के रूप में रूपांतरित कर दिया गया। ईस्ट एशिया में चीन की धार को कुंद करने के लिए भारत को विशेष अहमियत दी जाने लगी। चीन के पड़ोसी देश भारत के साथ सैनिक अभ्यास में शरीक होने लगे। बदले में चीन ने भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी सैन्य गति को और मजबूत बनाना शुरू कर दिया। पाकिस्तान पहले से ही चीन के कब्जे में था, जो पूरी तरह से चीन की पीठ पर जोंक की तरह चिपक चुका है, उसकी अपनी कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है, लेकिन चिंता की लकीर नेपाल को लेकर बन रही है। लिपुलेख और लिम्प्याधुरा में जिस तरीके से नेपाल ने भारत के साथ प्रतिकार किया है वह परेशान करने वाला है। भारत नेपाल को चीन का पिछलग्गू देश बनते हुए नहीं देख सकता।
अब बात 2020 की जहां पर चीन की सेना पिछले 5 महीने से भारत की सीमा के भीतर घुसने के लिए बेताब है। पिछले दिनों चीन की सेना बढ़ाई गई तो भारत ने पहले से ही अपनी ताकत को दोगुना कर दिया है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दिवास्वप्न पर आघात लग सकता है अगर भारत ने तिब्बत कार्ड को खेलना शुरू कर दिया। पिछले 5 महीने में चीन के 5 बड़े नेता जो पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं, तिब्बत जा चुके हैं। भारत के साथ संघर्ष के लिए उन्हें तैयार करने की सीख दे रहे हैं। मालूम है कि तिब्बत के धर्मगुरु  भारत में हैं और तिब्बत की निर्वासित सरकार भारत से चलाई जाती है। अगर भारत का उन्हें साथ मिला तो चीन के सैन्य बल को तोड़ने के काम तिब्बत के जांबाज लोग कर सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो चीन की सैन्य व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा जाएगी। भारत के लिए भी जरूरी है कि अब तिब्बत कार्ड का प्रयोग कर लिया जाए।
यह महज संघर्ष नहीं बल्कि नई विश्व व्यवस्था को तय करने की जद्दोजहद है। अगर चीन सफल हुआ तो दशकों तक भारत को शुतुरगमुर्ग की अपनी तरह जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ेगा। अगर चीन की हार हुई, जिसका अंदेशा भरपूर है तो विश्व राजनीति में भारत की इज्जत कई गुणा बढ़ जाएगी। शी जिनपिंग ने सत्ता में आने के तुरंत बाद 18 वीं कांग्रेस अधिवेशन में एक व्यापक चीन साम्राज्य स्थापित करने की बात की थी, जो मिंग साम्राज्य के समय था। अर्थात भारत का लद्दाख, अरुणाचल और जम्मू-कश्मीर का हिस्सा चीन का है। यह चीन की सोच है और सी जिनपिंग का दिवास्वप्न, दोनों टूट कर बिखरने वाला है।

प्रो. सतीश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment