वैश्विकी : पाकिस्तान का काल कश्मीर
प्रधानमंत्री इमरान खान की कश्मीर नीति पाकिस्तान के लिए गले की हड्डी बन गई है। पिछले एक वर्ष के दौरान पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दे को देश की विदेश नीति का केंद्रबिंदु बना रखा है।
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इमरान खान ने खुद को कश्मीर का स्वयंभू वकील मानकर अंतरराष्ट्रीय मंचों और कूटनीतिक क्षेत्रों में कश्मीर मुद्दे के बहाने भारत के विरुद्ध माहौल बनाने की कोशिश की है। अपने इस आक्रामक नीति के कारण पाकिस्तान को नये दोस्त तो नहीं मिले बल्कि उसके सामने पुराने दोस्तों को खोने का खतरा मौजूद हो गया है।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री महमूद शाह कुरैशी ने पिछले दिनों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे प्रमुख इस्लामी देशों पर कश्मीर के बारे में उदासीनता बरतने का आरोप लगाया था। कुरैशी का यह आरोप सऊदी अरब को नागवार गुजरा। सऊदी अरब ने पाकिस्तान से उसे दिए गए कर्ज के भुगतान के लिए कहा। बात केवल कर्ज के भुगतान की नहीं थी बल्कि सऊदी अरब पाकिस्तान को यह संदेश दे रहा था कि वह अपनी औकात से बढ़कर न बोले। अरब देश का यह रवैया इतना तल्ख था कि पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा को सऊदी अरब की यात्रा करनी पड़ी जहां उन्होंने अपनी ओर से सफाई देकर सऊदी अरब के गुस्से को शांत करने की कोशिश की, लेकिन इस यात्रा के दौरान भी जनरल बाजवा सऊदी अरब के शासक मोहम्मद बिन सलमान के साथ मुलाकात नहीं कर सके।
पाकिस्तान की विदेश नीति और वहां का शासन तंत्र भारत विरोध और इस्लामी राज्य की विचारधारा पर टिका है। देश के केवल मजहबी गुट ही नहीं बल्कि मुख्यधारा के राजनीतिक दल भी दशकों से देश में इस्लामीकरण की प्रक्रिया चला रहे हैं। इस मजहबी विचारधारा और जुनून का इतना प्रचार-प्रसार हो गया है कि पाकिस्तान के लिए इस्लामी जगत के प्रमुख देशों को चुनौती देना या उनकी आलोचना करना संभव नहीं है। यही कारण है कि शाह महमूद कुरैशी के विवादास्पद बयान के बाद पाकिस्तान में यह कयास लगाया जाने लगा कि उन्हें पद से हटाया जाने वाला है। प्रधानमंत्री इमरान खान ने हाल में कुरैशी के बयान के बारे में सफाई दी। उन्होंने कहा कि हर देश की अपनी स्वतंत्र विदेश नीति होती है। वह इस ओर संकेत कर रहे थे कि विभिन्न मुद्दों पर वह सऊदी अरब या अन्य इस्लामी देशों से अलग हटकर विदेश नीति चला सकते हैं। कूटनीतिक क्षेत्रों में इस बात पर भी चर्चा हो रही है कि क्या पाकिस्तान किसी वैकल्पिक गठबंधन के बारे में सोच रहा है। पिछले दिनों पाकिस्तान ने तुर्की और मलेशिया के साथ मिलकर एक साझा इस्लामी मंच बनाने की कोशिश की थी। सऊदी अरब के विरोध के कारण इस दिशा में आगे प्रगति नहीं हो पाई।
भूरणनीति की दृष्टि से पाकिस्तान के अमेरिका और सऊदी अरब की बजाय चीन और ईरान के साथ जुड़ने का एक विकल्प है। चीन उसका परंपरागत रूप से दोस्त रहा है। पूर्वी लद्दाख में सैन्य संघर्ष और तनाव की स्थिति के बाद चीन और पाकिस्तान की निकटता बढ़ सकती है। पूर्वी लद्दाख के घटनाक्रम के बाद चीन अंतरराष्ट्रीय जगत में अलग-थलग पड़ गया है। अमेरिका को चीन के विरुद्ध नई लामबंदी का मौका मिल गया है। दक्षिण चीन सागर और दक्षिण पूर्वी एशिया के समुद्री क्षेत्र में चीन को अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया की मजबूत नौसैनिक मौजूदगी का सामना है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के कमांडरों ने यह अनुमान नहीं किया होगा कि पूर्वी लद्दाख में उनके दु:साहस की इतनी विपरीत प्रतिक्रिया होगी।
इस हफ्ते पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने चीन की यात्रा की जहां चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। बातचीत में कश्मीर सहित विभिन्न क्षेत्रीय मुद्दों पर चर्चा हुई। बातचीत के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया कि चीन और पाकिस्तान ‘फौलादी भाई’ हैं तथा वे साझा हितों की मिलजुल कर रक्षा करेंगे। चीन ने जम्मू-कश्मीर के बारे में कहा कि यह समस्या इतिहास की विरासत है। इसका समाधान संयुक्त राष्ट्र चार्टर, सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और द्विपक्षीय समझौतों के प्रकाश में किया जाना चाहिए। चीन ने यह भी कहा कि कश्मीर में यथास्थिति में एकतरफा रुख से कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए। चीन का यह रवैया पहले जैसा ही है।
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