विश्लेषण : रामहि केवल प्रेम पियारा
तुलसीदास ने ‘रामचरितमानस’ में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के लिए कहा है कि, ‘रामहि केवल पियारा प्रेम पियारा। जानि लेहु सो जान निहारा।।’ यह प्रारम्भिक आधुनिकता के दौर में मानव-संबंधों को पुर्नव्यख्यायित करने का प्रयत्न था। प्रेम केवल तुलसीदास का आदर्श नहीं था।
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कबीर उसे ही ‘पंडित’ मानते थे, जिसने ‘एकै आखर प्रेम का’ पढ़ा हो। बेशक ये दोनों भक्त थे। तुलसी के राम साफ-साफ कहते हैं-‘मानहु एक भगति कै नाता।’ यह नाता वे इस तरह मानते थे कि भक्त के वश में हो जाते थे-‘सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू।। ‘पवनसुत प्रेम से ही राम का नाम लेते थे, राम उनके वश में ऐसे हुए कि ‘रामू’ बन गए! सामंती ईष्र्या-द्वेष और व्यापारिक लूट-खसोट से अलग भक्त और भगवान के ही नहीं, मनुष्य और मनुष्य के संबंध की कसौटी भी प्रेम है-यह बात आज विशेष रूप में महत्त्वपूर्ण हो गई है। जिस समय राम के नामपर आशातीत भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है और उसकी पृष्ठभूमि में विध्वंस और रक्तपात की लंबी परंपरा है, उस समय मानव-प्रेम के इस आदर्श का स्मरण अपने वर्तमान को संभालने के लिए आवश्यक है। यह आवश्यकता तब अधिक अनुभव होती है, जब इधर राममंदिर का शिलान्यास हुआ, उधर काशी विनाथ और कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति की ललकार सुनाई देने लगी। यह ललकार मानव-प्रेम की उस भावना के विपरीत है, जिसका उदाहरण भक्तकवियों में मिलता है। अयोध्या की तरह बनारस और मथुरा में भी ‘मुक्ति’ का अर्थ मस्जिदों से मुक्ति है।
यह अलग बहस है कि मंदिर निर्माण की अनुमति देने वाली अदालत ने बाबरी मस्जिद विध्वंस को अपराध भी कहा था, लेकिन मंदिर-मस्जिद के इतने झगड़े इतिहास में पहले कभी हुए थे, जबकि धर्म पहले आस्था का अधिक बड़ा केंद्र था। क्या रसखान के बिना हम कृष्णभक्ति की कल्पना कर सकते हैं? शिवभक्ति की कोई उल्लेखनीय साहित्यिक परंपरा नहीं है; किन्तु रामभक्त तुलसी ने तो स्वयं मस्जिद में जाकर सोने की बात काही है-‘मांगि के खइबो, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ। ‘वे रामभक्त थे, अवश्य राममंदिर के पास की मस्जिद में सोए होंगे। तुलसी की रामभक्ति मुस्लिम-विरोधी उन्माद न थी। हो भी नहीं सकती थी। रहीम उनके मित्र थे। रहीम और तानसेन को साथ लेकर अकबर तुलसी से मिलने बांधवगढ़ गए थे। यह उन्हें भी पता था कि तुलसी किसी सम्राट के दरबारी नहीं हो सकते-‘हम चाकर रघुवीर के, पटो लिखो दरबार। अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार।।’ लेकिन यह फर्क शासक और संत का था, हिन्दू-मुसलमान का नहीं। तुलसी की रामभक्ति का मुसलमानों से कोई समस्या नहीं था। ‘कवितावली’ में एक छंद है, जिसमें एक बूढ़े पठान को सूअर से धक्का लग जाता है। पठान यह कहते हुए गिर पड़ता है कि ‘हराम हन्यो, हराम हन्यो’। इसमें ‘राम’ की उपस्थिति देखकर तुलसी के आराध्य राम उस पठान को अपनी शरण में ले लेते हैं और वह मुक्ति पा जाता है।
स्पष्टत: सांप्रदायिकता उत्तरआधुनिक भारत की समस्या है, प्रारम्भिक आधुनिकता की नहीं। तुलसी के सामने हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का नहीं, टूटती सामंती व्यवस्था में तबाह होते और पीड़ा भोगते मनुष्यों की समस्या थी। ‘खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि, बनिक को बनिज न चाकर को चाकरी।’ यह इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की नहीं, सोलहवीं सदी के मध्य की तस्वीर है। तुलसी की भक्ति अपने समाज की वास्तविक पीड़ाओं से उदासीन नहीं है। क्या तुलसी की तरह वर्तमान भारत की दुर्दशा का चित्र खींचकर हम ‘देशद्रोही’ कहलाने से बच सकते हैं? क्या जनता की इस दुर्दशा के लिए राज्यसत्ता को, विशेषत: शासक को, जिम्मेदार बताकर हम सुरक्षित बचे रहने की कल्पना कर सकते हैं? संतकवि तुलसी ने तो साफ-साफ कहा था, ‘सोचिय नृपति जो नीति न जाना। जेहि न प्रजा प्रिय प्रान समाना।। ‘प्रजा को प्राण के समान प्रेम करने वाले नृपति शायद नहीं रहे होंगे, आज भी नहीं हैं, इसलिए तुलसी को राम की आदर्श प्रतिमा गढ़नी पड़ी। ये राम केवल प्रेम का संबंध मानते हैं, चाहे भक्त से हो या प्रजा से। ‘किसबी, किसान कुल, बनिक, भिखारी, भांट’-सबसे मामूली लोगों के प्रति तुलसी की करुणा उनकी भक्ति का आधार है। यह संयोग नहीं है कि वाल्मीकि की ‘रामायण’ से कैफी आजमी की ‘दूसरा बनवास’ तक रामकाव्य की परंपरा का सार है वेदना, करुणा, संघषर्।
वेदना, करुणा, संघर्ष का परिणाम है कि तुलसी के राम राज्य से दूर दलितों-आदिवासियों के साथ उनके जैसा जीवन जीते हैं, उन्हें जागरूक करते हैं और व्यवस्था बदलने के लिए उन्हें संगठित करते हैं। जिसे ग्रामशी अवयविक बुद्धिजीवी और नेता कहते थे, राम उसके उदाहरण हैं। जो राम ‘निज छवि रवि मनोज मदु हरहीं’, वही जनसाधारण से ऐसे अभिन्न हैं कि ‘ते सियराम साथरी सोवहिं’। राम ऐसा नहीं करते कि प्रजा रोजी-रोटी खोकर हजारों मील पैदल चल रही हो और राजा मजदूरों के अधिकार छीनकर उद्योगपतियों को राहत दे रहा हो। तुलसी को पता ही कि गरीब जनता की सबसे बड़ी समस्या भूख है, ‘आगि बड़वागी ते बड़ी है आगि पेट की’; वे यह भी जानते हैं कि लोग बड़ी मजबूरी में अपराधी बनते हैं- इस मजबूर जनता के लिए तुलसी की भक्ति और राज्य व्यवस्था में सर्वोपरि स्थान है। राम इसी जनता के प्रिय हैं।
राम इसी जनता के लिए ‘रामराज्य’ की स्थापना करते हैं। राम को तुलसी ‘गरीबनवाज’ की उपाधि देते हैं। राम ‘गरीबनवाज’ इसलिए हैं कि उनके राज्य में विलासिता और आवश्यकता का अंतर पता है। ‘दोहावली’ में यह विधान तुलसी ने किया है कि ‘मणि माणिक महंगे किए, सहंगे तृण जल नाज। तुलसी जानिए राम गरीबनवाज।।’ मणि-माणिक अमीरी और विलासिता की वस्तुएं हैं, राम उन्हें महंगा करते हैं; तृण-जल-अनाज मनुष्यों और प्राणियों के उपयोग की वस्तुएं हैं, उन्हें सस्ती किया; इसलिए राम गरीबनवाज हैं। जाति-पाति का तिरस्कार करके, हिन्दू-मुसलमान को समान भाव से अपनाकर तुलसी ने अपने ब्राह्मण संस्कारों से ही संघर्ष नहीं किया, निर्धन जनता के लिए भविष्य का स्वप्न भी दिया। भले यह स्वप्न अभी दूर हो लेकिन वह जिस प्रेम-करुणा-संघर्ष का फल है, वह तुलसी को हमारे लिए आज और भी प्रासंगिक बनाता है।
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