वैश्विकी : नेपाल का ओली संकट
नेपाल के प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली भारत के भूभाग को नेपाल के मानचित्र में शामिल करने की कवायद में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें यह पता ही नहीं लगा कि उनके पांव के नीचे उनकी राजनीतिक जमीन खिसक रही है।
वैश्विकी : नेपाल का ओली संकट |
पिछले संसदीय चुनाव के बाद एकीकृत नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी को राष्ट्रीय पंचायत (संसद) में करीब दो तिहाई बहुमत मिला था। और यह आशा की जा रही थी कि देश में राजनीतिक स्थिरता कायम होगी। अभूतपूर्व बहुमत के बावजूद नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बीच मनमुटाव और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के कारण हालात एकदम बदल गए हैं। नेपाल में सत्ता परिवर्तन की पूरी संभावना है।
नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन के.पी. शर्मा ओली की पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचण्ड की पार्टी माओवादी सेंटर के विलय से हुआ था। विलय के समय सरकार और पार्टी के संचालन के लिए आपसी सहमति बनी थी। कालांतर में इन नेताओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और हठधर्मिता के कारण यह सहमति बिखर गई। पार्टी की स्थायी समिति की बैठक में चार वरिष्ठ नेताओं प्रचण्ड, माधव कुमार नेपाल, झालानाथ खनाल और वामदेव गौतम ने पार्टी प्रमुख और प्रधानमंत्री पद से ओली के त्यागपत्र की मांग की। ओली ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया और वे ऐन-केन-प्रकारेण अपनी गद्दी बचाने के लिए जोड़-तोड़ करने लगे। सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं के बीच सत्ता की रस्साकसी के पहले ओली ने नेपाली राष्ट्रवाद का कार्ड खेला था।
उन्होंने उत्तराखंड में स्थित भारत के भूभाग कालापानी, लिपूलेख और लिम्पयाधुरा को नेपाल के मानचित्र में शामिल करने की पहल की थी। इस राष्ट्रवादी मुहिम का देश की कोई भी पार्टी विरोध नहीं कर सकती थी। परिणामस्वरूप भारतीय भूभाग को नेपाल के रजनीतिक नक्शे में शामिल कर लिया गया। ओली की इस तिकड़म से उन्हें तात्कालिक राहत जरूर मिली, लेकिन इससे वह सरकार और पार्टी के स्तर पर अपनी असफलताओं को नहीं छुपा सके। मानचित्र को वैधानिक स्वरूप मिलने के तुरंत बाद उनके खिलाफ बगावत ने जोर पकड़ लिया। इस पूरे घटनाक्रम में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ओली की पुरानी पार्टी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के वरिष्ठ नेता पूर्व प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल भी ओली के विरुद्ध हो गए। पार्टी में अब प्रचण्ड, माधव नेपाल और ओली विरोधी अन्य नेताओं का शक्तिशाली खेमा तैयार हो गया है। ओली का राजनीतिक भविष्य तय करने के लिए पार्टी की स्थायी समिति की बैठक को टाला जा रहा है, लेकिन जब भी यह बैठक होगी तब ओली बैठक में अल्पमत में रहेंगे।
इस बीच ओली ने वर्तमान राजनीतिक समीकरण से अलग हटकर अपनी गद्दी बचाने की मुहिम शुरू कर दी है। उनका प्रयास है कि पार्टी का विभाजन हो जाए और वह विपक्षी नेपाली कांग्रेस का समर्थन हासिल करके प्रधानमंत्री बने रहें, लेकिन पार्टी विभाजन के रास्ते में एक संवैधानिक बाधा है। विभाजन के लिए जरूरी है कि पार्टी निकाय और संसदीय दल के 40 प्रतिशत सदस्यों की सहमति प्राप्त हो। मौजूदा राजनीतिक समीकरण में यह संभव नहीं है। ओली का प्रयास है कि वह अध्यादेश के जरिये इस अड़चन को दूर करे। इस काम में देश की राष्ट्रपति विद्या भंडारी की भूमिका पर सबकी नजर है। भंडारी ओली की पुरानी सहयोगी रही हैं। पूरी संभावना है कि वह अध्यादेश जारी करने से इनकार नहीं करेंगी। इस बीच ओली की सलाह पर भंडारी ने संसद का सत्रावसान कर दिया है। इस कारण सदन में ओली हार का सामना करने से बच गए हैं।
अपनी गद्दी डांवाडोल होते देख ओली ने यह आरोप लगाया है कि उन्हें हटाने के लिए भारत में साजिश चल रही है। उनका आरोप है कि भारत देश के नये मानचित्र को लेकर उनसे बदला लेना चाहता है। ओली के इन आरोपों को कोई गंभीरता से नहीं ले रहा है। स्थायी समिति की पिछली बैठक में प्रचण्ड ने साफ शब्दों में कहा कि ‘भारत नहीं बल्कि मैं पार्टी प्रमुख और प्रधानमंत्री पद से आपके इस्तीफे की मांग करता हूं।’ नेपाल के पूरे घटनाक्रम का संदेश यह है कि सुशासन और सबको साथ लेकर चलने की राजनीति का कोई विकल्प नहीं है। दूसरे देशों पर आरोप लगाने अथवा अपनी गद्दी बचाने के लिए बाहरी ताकतों का सहयोग हासिल करने की कोशिश सफल नहीं हो सकती।
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