मीडिया : गोरे रंग पे न इतना गुमान कर

Last Updated 28 Jun 2020 12:18:40 AM IST

पैंतालीस साल तक भारत समेत दुनिया भर के बाजारों में जमके कमाई करने के बाद ‘फेअर एंड लवली’ नामक फेसियल क्रीम की निर्माता कंपनी को अब आकर इलहाम हुआ है कि ‘फेअर एंड लवली’ के नाम में से ‘फेअर’ शब्द को निकाल दिया जाए और ‘लवली’ के आगे कोई और विशेषण जोड़ा जाए जैसे कि ‘ग्लो एंड लवली’ या ऐसा ही कुछ और!


मीडिया : गोरे रंग पे न इतना गुमान कर

हमें याद है कि 1975 में जब ‘फेअर एंड लवली’ बांड क्रीम को लांच किया गया था तभी बहुत से स्त्रीत्ववादियों व एनजीओज ने इस पर ‘रंगभेद’ के भाव को बढ़ावा देने का आरोप लगाया था और चाहा था कि इसका नाम बदला जाए, लेकिन तब कंपनी ने ऐसी शिकायतों को अनसुना कर दिया था। वह आपत्ति सही थी। विज्ञापनों में औरत को मर्दवादी नजर से परिभाषित  जा रहा था, जिसके अनुसार, स्त्री का गोरा होना चाहिए और गोरा दिखने के लिए इस क्रीम को लगाना चाहिए! ‘गोरे रंग’ के बाजार में तब कुछ ब्रांड थे लेकिन अधिकांश बाजार पर कब्जा ‘फेअर एंड लवली’ का ही था और है!

तब ‘फेअर एंड लवली’ में से ‘फेअर’ शब्द हटाने की बात उसकी निर्माता कंपनी को अभी क्यों सूझी? क्या उसका ‘हृदय परिवर्तन’ हो गया या क्या उसमें अपने ‘सूक्ष्म नस्लवादी’ नजरिए को लेकर ‘अपराध-बोध’ जाग गया? हमारी समझ में ऐसा कुछ नहीं हुआ है! जो हुआ है वह सिर्फ इतना हुआ है कि इस दौर की दुनिया से गोरे रंग का रुतबा उठ गया है। अब सिर्फ गोरा रंग ही काम्य या आदर्श नहीं रह गया है और न अब मर्द गोरे रंग के उतने कायल रह गए हैं जितने कि कभी हुआ करते थे। ‘ग्लोबलाइजेशन’ ने और उसकी प्रतिक्रिया में पैदा हुए ‘लोकलाइजेशन’ ने ‘गोरे रंग’ को अब उतना काम्य या आदर्श नहीं रहने दिया है। उसकी जगह चेहरों की विविधता और उनके रंगों की विविधता ने ले ली है। यह नया ‘पोस्ट कोलोनियल’ सौंदर्यबोध है, जिसमें तीसरी दुनिया के अपने रंग-रूप, अपना दावा पेश करने लगे हैं और जिनके दिल से गोरे रंग को श्रेष्ठ मानने का भाव निकल गया है। कारण  कि  यह ‘एक रंग’ का जमाना नहीं है बल्कि रंग-बहुलता का जमाना  है। फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में अब कुछ काले, सांवले, गेहुंए, टान या आबनूसी रंग को अधिक आकषर्क माना जाने लगा है! अमेरिकी फिल्मों में अब काले रंग के कलाकार गोरे रंग वालों को बराबर की चुनौती देते हैं। विज्ञापनों में भी वे छाए रहते हैं। अपनी फिल्मों में अभी गोरी हीरोइन का ट्रेंड खत्म नहीं हुआ है, लेकिन कुछ नई हीरोइनों ने बालीवुड की गोरेपन की ग्रंथि को झटके दिए हैं। यही नहीं बाजार की शक्तियों ने भी गोरे रंग की जगह स्थानीय रंगों को महत्त्व देना शुरू किया है। अब ‘त्वचा के निखार’ पर जोर रहता है; उसकी ‘चमक’ पर जोर रहता है; कामकाजी औरत की ‘ताजगी को बरकरार’ रखने पर जोर रहता है। शायद इसीलिए आजकल के सोप तथा क्रीमें अब त्वचा मात्रा के निखार पर उसकी चमक पर अधिक जोर देती हैं।
ये कामकाजी औरत का जमाना है। ऐसे में सिर्फ किसी के चेहरे का गोरा होना ही काफी नहीं है बल्कि चेहरे का चमकदार होना, तरोताजा होना अधिक काम्य है! रंग-भेद कितना बड़ा कलंक है, यह पिछले दिनों अमेरिका में एक गोरे सिपाही द्वारा एक काले अफ्रीकी-अमेरिकी जार्ज फ्लॉयड की गर्दन को अपने घुटने दबाने के क खबर से और अधिक बेबाक होकर दुनिया के सामने आया जिसे संसारभर के मीडिया ने दिखाया और उसके विरोध में अमेरिका-इंग्लैंड में हुए आंदोलनों को भी दिखाया, साथ ही उस नये सामाजिक सांस्कृतिक नारे को भी बार-बार दिखाया जिसे ‘फास्ट एंड फ्यूरियस’ नामक हॉलीवुड फिल्म-सीरीज के सुपर एक्शन हीरो ड्वाने जानसन ने अमेरिकी टीवी पर अपने मुंह से बोल कर कहा कि ‘ब्लैक मैटर्स’ यानी ‘काले का महत्त्व है’! इस घटना से ‘काला रंग’ अचानक ‘केंद्र’ में आ गया। यह नारा दुनिया भर में गूंजा और मीडिया में आकर इसने काले रंग के बारे में पुरानी अवधारणाओं को झटके दिए। यही नहीं उसने दुनिया के चले आते सौंदर्यबोध को भी झकझोरा!
शायद इसलिए भी ‘फेअर एंड लवली’ जैसी ब्रांडें कुछ नये नारों की तलाश में है जो नये मार्केट बना सकें। दुनिया में गोरे तो अल्पसंख्यक हैं। बहुतायत में तो इसलिए वे हैं जो गोरे नहीं हैं। उन्हीं का बाजार है। इसे समझकर ही क्रीम कंपनियों अपनी रणनीति बदल रहीं हैं। इसलिए हमारा मानना है कि ‘लवली’ से आगे के ‘फेअर’ शब्द को हटाने के पीछे क्रीम बनाने वाली कंपनी की ‘उदारता’ नहीं बल्कि नये बाजार की छटपटाहट है! एक हिंदी फिल्म ने तो बहुत पहले ही बता दिया था कि: ‘गोरे रंग पे न इतना गुमान कर, गोरा रंग दो दिन में ढल जाएगा!’

सुधीश पचौरी


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