पंजाब : फिर आग भड़काने की साजिश
पंजाब में खालिस्तान का बम फिर फूटा है। इस बार विस्फोट सीधे सर्वोच्च सिख धार्मिंक संस्था श्री अकाल तख्त साहिब से किया गया है।
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ऑपरेशन ब्लू स्टार की 36वीं बरसी पर अरदास के बाद संगत को औपचारिक संबोधन में श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह खुलकर खालिस्तान की हिमायत की और इसे हर सिख की नैसर्गिक मांग से जोड़ दिया। दूसरी सर्वोच्च पंथक संस्था शिरोमणि गुरु द्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के मुखिया भाई गोबिंद सिंह लोंगोवाल ने भी ऐसा ही किया। दोनों दिग्गज सिख रहनुमाओं ने बाद में मीडिया से बातचीत में भी खालिस्तान के पक्ष में दलीलें दीं।
अलगाववादी अवधारणा ‘खालिस्तान’ का श्री अकाल तख्त साहिब के जत्थेदार और एसजीपीसी प्रधान द्वारा इस मानिंद खुला समर्थन असाधारण घटना है। सिख सियासत की मुख्यधारा तक को सकते में डाल देने वाली है। इससे तूफान आना स्वभाविक है। सो, आया हुआ है। विभाजन से पहले सिखों के बड़े कद के नेता मास्टर तारा सिंह ने पहले-पहल हिंदुस्तान-पाकिस्तान के समानांतर अलहदा सिख राज्य खालिस्तान की मांग की थी। आम सिखों ने इसका ज्यादा समर्थन नहीं किया। आजादी के बाद यदा-कदा ‘खालिस्तान’ शब्द सुनाई देता रहा, लेकिन बेअसरदार। अस्सी के दशक में इसमें असर डालने की बाकायदा कवायद शुरू हुई। पंजाब मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे जगजीत सिंह चौहान ने अचानक खालिस्तान का जिन फिर से बोतल से बाहर निकाल दिया। चौहान ने खालिस्तान का पूरा नक्शा और करंसी जारी करते हुए तथाकथित प्रस्तावित ‘सिख राष्ट्र’ का मंत्रिमंडल भी घोषित कर दिया। खुद को उन्होंने स्वयंभू राष्ट्रपति करार दिया। उनकी तमाम घोषणाओं को हास्यास्पद बताकर मजाक माना गया। लेकिन आगे जाकर इस मजाक ने एकाएक गंभीरता का आवरण ओढ़ लिया। अस्सी के दशक में ही पंजाब में सिख अलगाववाद-आतंकवाद ने सिर उठाया। कांग्रेस खास तौर से (इंदिरा गांधी के खासमखास रहे) ज्ञानी जैल सिंह की खुली शह से संत जरनैल सिंह भिंडरांवाला ने सूबे के राजनीतिक परिदृश्य पर कदम रखा।
दरअसल, दिल्ली जाकर भी ज्ञानी जैल सिंह अपने गृह राज्य का मोह कभी नहीं छोड़ पाए। अकाली राजनीति और कांग्रेस के कतिपय प्रतिद्वंद्वी नेता उनकी आंख की किरकिरी रहे। अकालियों को भोथरा करने के लिए भिंडरांवाला को इतनी छूट दी गई कि बाद में वह बेकाबू होकर सबके लिए बड़ी मुसीबत का सबब बन गए। 1981 से जून, 1984 तक भिंडरांवाला ने उस दिशाहीन अंधे आंदोलन की अगुवाई की, जिसने पंजाबियों को बेशुमार जख्म दिए। पावन श्री अकाल तख्त साहिब पर काबिज ‘संतजी’ कहा करते थे कि नौजवान सिख मरजीवड़े अपने देश ‘खालिस्तान’ के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सपनों में बनते इस देश के लिए हजारों बेगुनाह हिंदू-सिख मार दिए गए। सरकारी आतंकवाद का कहर भी बेकसूर आम लोगों पर खूब बरपा। अंतत: एक बड़े राजनैतिक और प्रशासनिक फैसले के तहत जून-84 को ऑपरेशन ब्लू स्टार अंजाम दिया गया। यह बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आखिरी लड़ाई थी। कुछ महीनों बाद ऑपरेशन ब्लू स्टार उनकी मौत की वजह बना। सिख विरोधी हिंसा हुई। जिस आतंकवाद को ऑपरेशन ब्लू स्टार से खत्म हुआ मान लिया गया था, उसने फिर पांव पसारे। फिजाओं में खालिस्तान के नारे एकबारगी फिर गूंजने लगे। कुछ साल के बाद ऑपरेशन ब्लैक थंडर हुआ। सिख आतंकवाद जड़ से नहीं गया। पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह और सुपर कॉप केपीएस गिल को श्रेय दिया जाता है कि उन्होंने आतंकवाद खत्म किया। यह सरासर अर्धसत्य है।
दरअसल, पंजाब में आतंकवाद को शिकस्त खुद आजिज लोगों और व्यापक लोक चेतना ने दी। बेअंत सिंह तो खुद कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद सिख चरमपंथियों के हाथों मारे गए थे। बेअंत सिंह के बाद पंजाब की राजनीति में अकालियों का पुनर्वास हुआ। सिमरनजीत सिंह मान सरीखे भिंडरांवालावादियों के बरक्स प्रकाश सिंह बादल बखूबी जानते थे कि अलगाववाद और खालिस्तान की बात करके सत्ता हासिल करना नामुमकिन है। इसीलिए उन्होंने दक्षिणपंथी भाजपा से हाथ मिलाया ताकि निर्णायक हिंदू वोट उन्हें मिल सकें। इसके लिए उन्होंने अपने राजनीतिक पुनर्वास के बाद अलगाववादियों और खालिस्तानियों को सदैव हाशिए पर रखा। इन पंक्तियों को लिखने तक बादल परिवार और शिरोमणि अकाली दल इस पूरे प्रकरण पर खामोशी अख्तियार किए हुए हैं।
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