गठबंधन राजनीति : एनडीए का ही रुतबा रहेगा
समसामयिक राजनीति के दौर को विश्लेषक ‘गठबंधनात्मक राजनीति’ का दौर मानते हैं।
![]() गठबंधन राजनीति : एनडीए का ही रुतबा रहेगा |
वैसे राजनीतिक गठबंधन पहले भी बने थे, लेकिन चाहे 1967 के चुनाव के बाद के गठबंधन हों या फिर 1977 के चुनाव से पहले का प्रयोग, ये दोनों ही अल्पकालीन तथा राजनीतिक पैमानों पर असफल प्रयास रहे।
वास्तव में वर्तमान भारतीय राजनीति में 1989 के उपरांत गठबंधनात्मक सरकारों का एक नया चरण प्रारम्भ हुआ, लेकिन विगत तीन दशाब्दियों का यह चरण एक समान नहीं रहा है। इसमें अनेक उतार-चढ़ाव आए हैं। इसीलिए हम गठबंधन के इस दौर को दो भागों में विभाजित कर के देख सकते हैं। पहला भाग 1989 से ले कर 1999 तक का रहा जबकि केवल दस वर्षो के अंतराल में देश को पांच आम चुनावों का सामना करना पड़ा और इस दौरान सात सरकारें बनीं और बिगड़ीं। विश्लेषण की सुविधा के उद्देश्य से हम इस समय को ‘अस्थिर गठबंधन सरकारों का दौर’ कह सकते हैं। लेकिन इन दस वर्षो के दौरान जो राजनीतिक मंथन हुआ, उसके परिणामस्वरूप देश की प्रतिस्पर्धात्मक राजनीति में एक नया ध्रुवीकरण आया। यह ध्रुवीकरण ‘मंडल, मंदिर और मार्किट’ के परस्पर संघर्ष का परिणाम था, जिसने हमारी राजनीतिक व्यवस्था को एक नई दिशा प्रदान की। कालांतर में ‘मंडल’ और ‘मार्किट’ का संघर्ष लुप्त सा हो गया क्योंकि राजनीति के इन कोणों ने अपना पैनापन खो दिया। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि इन दोनों मुद्दों पर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों में आपसी सहमति बन गई।
राजनीतिक जोड़-तोड़ का प्रमुख मुद्दा केवल ‘मंदिर’ और उससे जुड़ी उठापठक तक सीमित रह गया। लेकिन इस ध्रुवीकरण का फायदा यह हुआ कि 1999 के बाद गठबंधनात्मक राजनीति में स्थिरता और स्थायित्व का दौर प्रारंभ हुआ जिसके स्वरूप में तो परिवर्तन आते रहे लेकिन यह दौर आज भी विद्यमान है। गठबंधनात्मक राजनीति के इस स्थिर दौर का प्रारंभ 15 मई, 1998 को हुआ जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की नींव रखी गई। 1996 के तेरह दिन की सरकार के अनुभव ने वाजपेयी जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ को यह सीख दे दी थी कि जब तक भारतीय जनता पार्टी स्वयं के बल पर पर्याप्त बहुमत अर्जित नहीं कर सकती है तब तक उसे अपने ‘हिंदुत्व’ के एजेंडे को ठंडे बस्ते में डालना होगा और गैर-कांग्रेसी दलों के साथ मिल कर कार्य करना होगा। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, जिसने कि अभी हाल में अपनी स्थापना के 22 वर्ष पूरे किए, वाजपेयी की इसी राजनीतिक सूझबूझ का परिणाम है। 1998 के आम चुनाव के बाद जब भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर आई तो वाजपेयी ने अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार का गठन किया।
इस गठबंधन में देश के विभिन्न क्षेत्रों के राजनीतिक दलों ने हिस्सा लिया चाहे वो आंध्र प्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी हो या फिर तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक, या बिहार की समता पार्टी, ओडिशा का बीजू जनता दल या फिर बंगाल की तृणमूल कांग्रेस। यद्यपि भारतीय जनता पार्टी 182 लोकसभा सांसदों के साथ सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी थी, लेकिन फिर भी क्षेत्रीय दलों के समर्थन के बिना वाजपेयी की सरकार नहीं बन सकती थी। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को इस राजनीतिक सौदेबाजी से कोई शिकवा नहीं था कि वे अपने-अपने राज्यों में अपना वर्चस्व बना कर रखें या उसे बढ़ाएं और केंद्र में भी सत्ता का लाभ ले सकें। उनकी राजनीतिक शत्रे केवल दो थीं, एक तो यह कि भारतीय जनता पार्टी उनके प्रभाव क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करे और दूसरी कि भाजपा अपने ‘हिन्दुत्व’ के एजेंडे को फिलहाल भूल जाए। सत्ता में आने के लिए वाजपेयी और संघ परिवार को दोनों शत्रे अल्पकालीन समय के लिए मंजूर करनी पड़ीं, लेकिन 13 महीनों के बाद जयललिता के समर्थन वापस लेने से यह सरकार भी गिर गई। 1999 में हुए मध्यावधि चुनाव में पोखरण-2, कारगिल युद्ध, वाजपेयी के प्रति सहानुभूति तथा नेशनल एजेंडा फॉर गवन्रेस के कारण एनडीए गठबंधन की सरकार पुन: बन गई, लेकिन चुनाव में भाजपा को कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिला क्योंकि 1998 की भांति इस चुनाव में भी पार्टी के 182 उम्मीदवार ही लोक सभा के सांसद बन पाए। इतना ही नहीं भाजपा का कुल मत प्रतिशत भी लगभग 3 प्रतिशत गिर गया। 2004 के लोक सभा चुनाव में एनडीए की हार हुई और उसके साथ ही वाजपेयी चरण का अंत हो गया।
1999 से ले कर 2014 तक तीन सरकारों ने अपने पांच वर्षो के कार्यकाल को पूरा किया। इस दृष्टि से देश में राजनीतिक स्थिरता रही, लेकिन इन सभी गठबंधन सरकारों की राजनीतिक प्रकृति यह थी कि क्षेत्रीय दलों का बोलबाला बहुत अधिक बढ़ गया। प्रमुख दल के रूप में भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही क्षेत्रीय दलों के समर्थन की आवश्यकता थी। दोनों ही दलों को क्षेत्रीय दलों की उचित-अनुचित मांगों और दबावों को झेलना पड़ा, जिससे अव्यवस्था बढ़ी और नीति निर्माण में कठिनाइयां आई। 2014 के चुनाव में पुन: नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी पर एक अंतर के साथ। इन चुनाव में भाजपा को स्वयं के बलबूते पर 282 स्थानों पर जीत हासिल हुई। लेकिन मोदी ने लोक सभा में इस बहुमत के बावजूद वाजपेयी की तरह राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए अपने सहयोगी दलों के साथ सद्भाव रखा। लेकिन इन पांच वर्षो में क्षेत्रीय दलों को भी यह संदेश मिल गया कि वे सत्ता में अपनी मनमानी नहीं कर सकते हैं।
संभवत: इस गठबंधन के स्थायित्व में उनका जोखिम ज्यादा था। अब उनकी चिंता यह भी थी कि उनके अपने प्रभाव क्षेत्र को भाजपा की सेंध से कैसे बचाया जाए? बाईस वर्षो के इस सफर में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने अनेक उतार-चढ़ाव तय किए हैं, लेकिन भाजपा के वर्तमान राजनीतिक वर्चस्व ने इस गठबंधन को अब क्षेत्रीय दलों की मजबूरी बना दिया है। यदि महाराष्ट्र के अपवाद को छोड़ दें तो अन्य क्षेत्रीय दल ऐसे भी नजर आते हैं, जो भविष्य में इस गठबंधन से जुड़ने के लिए लालायित रहेंगे। देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति में अन्य कोई राजनीतिक दल या गठबंधन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को चुनौती देता नजर नहीं आ रहा। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह गठबंधन वाजपेयी की भाजपा को बहुत बड़ी देन है।
| Tweet![]() |