कोरोना से जंग : दान सबसे बड़ा हथियार

Last Updated 08 May 2020 12:19:20 AM IST

हमारे समाज में बताया गया है कि धन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग दान करना है। यही वजह है कि भारतभूमि कभी दानवीरों से रिक्त नहीं रही। Corona to Rust, Donation largest weapon


कोरोना से जंग : दान सबसे बड़ा हथियार

इस कड़ी में सबसे पहला नाम सूर्यवंशी भगवान राम के पूर्वज राजा शिवि का आता है, जिन्होंने अपनी शरण में आए कबूतर के प्राण एक बाज से बचाने के लिए अपने प्राण ही दाव पर लगा दिए। राजा की दानवीरता से प्रभावित होकर बाज बने देवराज इंद्र और कबूतर बने अग्निदेव असली रूप में प्रकट हुए। वे राजा की दानवीरता की परीक्षा लेने आए थे। इस कड़ी में दूसरा नाम महर्षि दधीचि का है। उन्होंने देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय के लिए योगबल से अपना शरीर त्याग कर अपनी हड्डियां दान कर दी थीं ताकि उनसे इंद्र के वज्र का निर्माण हो सके। अंगराज कर्ण, कन्नौज के राजा हषर्वर्धन और चित्ताैड़ के महाराणा प्रताप के मित्र सेठ भामाशाह की दानवीरता से भी सभी लोग परिचित हैं।

इसलिए जिस देश का ऐसा इतिहास रहा हो उस देश को कोविड-19 जैसे संकट पर विजय पाने से कौन रोक सकता है। हाल में भारत रत्न उद्योगपति स्व. जेआरडी टाटा के भतीजे रतन टाटा ने सराहनीय मिसाल पेश की है। उन्होंने कोरोना से लड़ने के लिए 1500 करोड़ रुपये की धनराशि देश के लिए दान की है। यह कोरोना के खिलाफ युद्ध में किसी व्यक्ति और संस्था द्वारा दान की गई अब तक की सबसे बड़ी राशि है। यहां एक बात और है। दान को कभी भी राशि के आधार पर छोटा-बड़ा नहीं तय किया जा सकता। अगर किसी ने अपनी नेक कमाई में से अपनी क्षमता से बाहर जाकर पांच सौ रुपये का भी दान दिया है तो वो दान भी बड़ा है। जरूरतमंदों की सेवा कर हम ईश्वर को प्रसन्न करते हैं। इसलिए जब हम लक्ष्मीनारायण भगवान विष्णु की आराधना करते हैं तब कहते भी हैं-तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण भगवत गीता में है। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण कुंतिपुत्र अजरुन का मोह दूर करने के लिए कहते हैं कि हे! पार्थ तुम क्या साथ लाए थे और क्या साथ लेकर जाओगे। जो कुछ लिया यहीं से लिया और जो कुछ दिया यहीं से दिया। इस संसार में सब नर है। यही बात ज्येष्ठ पांडुपुत्र युधिष्ठर ने यक्ष प्रश्न संवाद के दौरान यक्ष बने धर्मराज से कही थी कि मृत्यु के बाद सिर्फ दान साथ जाता है। महाकवि तुलसीदास जी ने भी प्रभु श्रीराम के चरित्र का वर्णन करने वाले अपने कालजयी ग्रंथ रामचरितमानस में लिखा है कि धन का सबसे अच्छा उपयोग दान है। गोस्वामी जी ने तो यहां तक कहा है कि जो धन संचय करके रखा जाता है, वो नष्ट हो जाता है। इसलिए धन या तो दान कीजिए या भोग कीजिए। कबीरदास जी ने भी कहा है कि-
गोधन, गजधन, बाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन सब धन धूरि समान।।
अर्थात हाथी-घोड़े, गाय और रत्नों की खान भी मन के संतोष के सामने धूल के समान है। इसलिए मन में संतोष का होना परम आवश्यक है। दान के लिए प्रोत्साहित करने में कबीरदास जी भी पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने भी कहा है कि-
जो जल बाढै़ नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
अर्थात अगर नाव में पानी भरने लगे और घर में धन बढ़ने लगे तो पानी को दोनों हाथों से निकालने तथा धन को दान करने में ही बुद्धिमानी है। दान के बारे में तो कबीरदास की सोच का उदाहरण देते हुए लोग आज भी कहते हैं कि-
चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटयो नीर।
दान दिये धन न घटे, कह गए संत कबीर।।
हमारे धर्म ग्रंथों, ऋषि-मुनियों और मनीषियों ने भी धन संचय की प्रवृत्ति को कभी बढ़ावा नहीं दिया है। उन्होंने हमेशा दान के लिए प्रेरित किया है। गरुड़ पुराण के एक श्लोक में बताया गया है कि धन किनको प्रिय है, जो इस प्रकार है-
अधमा: धनमिच्छन्ति, धनं मानं च मध्यमा:।
उत्तमा: मानमिच्छन्ति, मानो हि महतां धनम्।।
अर्थात निम्न श्रेणी का व्यक्ति सिर्फ धन चाहता है। मध्यम श्रेणी का व्यक्ति धन और मान, दोनों चाहता है। यही श्रेणी सम्मानीय और व्यावहारिक है। उत्तम श्रेणी के व्यक्ति केवल मान चाहते हैं क्योंकि मान सबसे श्रेष्ठ धन है। यह श्रेणी आज के समय में लुप्तप्राय: है। धन संचय के बारे में हमारे समाज में आज भी कहावत है कि-
पूत सपूत तो क्यों धन संचय, पूत सपूत तो क्यों धन संचय।
अर्थात आपकी संतान लायक तो वह स्वयं धन कमा लेगी, इसलिए धन जमा करने की क्या जरूरत है। दूसरे अगर आपकी संतान नालायक है तो वह आपका जमा किया हुआ धन उड़ा भी देगी। फिर ऐसे में धन जमा करने का क्या लाभ। इसलिए जिस देश के लोगों की सोच ऐसी हो वो कोरोना तो क्या किसी भी संकट से पार पा सकता है और इतिहास इसका साक्षी है।

अशोक शर्मा


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