वैश्विकी : बिना कप्तान जहाज

Last Updated 05 Apr 2020 12:25:24 AM IST

कोरोना महामारी के प्रकोप का चरमबिंदु अभी आना बाकी है, लेकिन रक्षा विशेषज्ञों और कूटनीति के जानकारों ने यह विश्लेषण करना शुरू कर दिया है कि कोरोना के बाद की दुनिया कैसी होगी?


वैश्विकी : बिना कप्तान जहाज

पश्चिमी देशों के शोध संस्थना, थिंक टैंक और विश्वविद्यालयों में कोरोना के साथ ही जलवायु परिवर्तन जैसे भारी खतरे के तात्कालिक और दूरगामी परिणामों पर गहन चिंतन शुरू हो गया है।
अनेक विशेषज्ञों का यह मानना है कि पहले की समुद्ररूपी दुनिया में करीब 200 देश अलग-अलग नाव के रूप में विचरण करते थे। आज की दुनिया में ये सभी देश एक जलयान के अलग-अलग केबिन के रूप में विद्यमान हैं। हर केबिन की चिंता करने वाले या प्रबंध करने वाले लोग हैं। लेकिन जहाज की चिंता करने वाला कोई कैप्टन नहीं है। कोरोना महामारी के संबंध में यह विश्लेषण सही साबित होता है। करीब सौ दिन पहले जब चीन के वुहान में कोरोना वायरस का पहला मामला आया तो पूरी दुनिया में उसी समय खतरे की घंटी बज जानी चाहिए थी, भले ही इस महामारी का उपचार करने वाली वैक्सीन का विकास न हो पाता, लेकिन कम-से-कम अन्य देश ऐहतियाती उपाय करके जनहानि को सीमित तो कर ही सकते थे। चिकित्सा सामग्री के  उत्पादन तथा जहां उसकी आवश्यकता है; वहां तक उसकी आपूर्ति की प्रणाली तैयार की जा सकती थी।  संक्रमण चीन से पूर्व एशिया, पूर्व एशिया से यूरोप ओैर यूरोप से जब अमेरिका पहुंचा तो इस महामारी के विकराल स्वरूप का अनुमान हुआ। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।

आज दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका और उसका सबसे समर्थ राज्य न्यूयार्क इस महामारी के सामने अपने आप को बेबस पा रहा है।  न्यूयार्क के गर्वनर ने तो इस बात का रोना रोया है कि मुंह पे लगाई जाने वाले मास्क और चिकित्साकर्मियों के लिए गाऊन जैसे सुरक्षा परिधान  के लिए उन्हें चीन की ओर देखना पड़ रहा है। हालत यह है कि अमेरिका के अलग-अलग राज्य चीन से इन सामग्रियों का आयात करने की होड़ में है, जिससे इनके दाम दस गुना बढ़ गए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इस महामारी ने अमेरिका सहित दुनिया के विभिन्न देशों को यह संदेश दिया है कि भारी-भरकम रक्षा बजट, दुनिया भर में सैनिक अड्डे, आधुनिकतम मिसाइल, परमाणु हथियारों और अन्य देशों में सैनिक हस्तक्षेप से किसी देश का भविष्य सुरक्षित नहीं हो सकता। अमेरिका के पास यह सबकुछ है, लेकिन फिर भी उसकी अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन लड़खड़ा गई है। अमेरिका ही नहीं दुनिया के अलग-अलग देशों में युद्ध जैसी परिस्थिति, युद्धकाल का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसी शब्दावलियों का प्रयोग किया जा रहा है। लेकिन यह युद्ध एक अदृश्य शत्रु के विरुद्ध है, जिसे बमों, टैंकों और मिसाइलों से नहीं हराया जा सकता। मानव कल्याण को समर्पित चिकित्सा जैसे पेशे से जुड़े चिकित्साकर्मी ही वास्तविक योद्धा और जनरल हैं। दवाइयों और चिकित्सा उपकरण ही जीत हासिल करने के आवश्यक उपकरण हैं। विश्व नेताओं को यह सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि एक-दूसरे पर निर्भर विश्व में वास्तविक चुनौती और खतरा किसी अन्य देश से नहीं बल्कि कोरोना जैसी महामारी और जलवायु परिवर्तन से है। कोरोना आगामी दशकों में आने वाले जलवायु परिवर्तन के खतरे का एक ट्रेलर मात्र है। यह जरूर है कि कोरोना की मार दुनिया के विकसित और अमीर देशों पर पड़ी है, जबकि जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक नुकसान गरीब देशों का होगा।
भारत में कोरोना महामारी के प्रसार में मुस्लिम कट्टरपंथी तबलीग-ए-जमात की भूमिका से भी एक तथ्य सामने आता है। बचाव के उपायों को नजरअंदाज करते हुए दिल्ली में जमात की बैठक का आयोजन किया गया। चिकित्सकों के परामर्श के विपरीत मजहबी नेताओं ने परवरदिगार पर भरोसा करने का उपदेश दिया। नतीजा यह हुआ कि निजामुद्दीन के एक ही आवासीय स्थल पर सैकड़ों की संख्या में लोग संक्रमण का शिकार बने। धार्मिक वैमनस्यता के वर्तमान माहौल में कोरोना लोगों के बीच दूरियां बढ़ाने का एक जरिया बन गया। चिंता करने की बजाय एक-दूसरे को दोषी ठहराने का सिलसिला शुरू हो गया। अब यह स्पष्ट है कि मध्ययुगीन और संकीर्ण मानसिकता से 21वीं शताब्दी का समाधान नहीं हो सकता। कोरोना का विश्व नेताओं के लिए सबक है कि वे भावी खतरे को समझें और जवाबी रणनीति अपनाएं।

डॉ. दिलीप चौबे


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