बेरोजगारी : जल्द निकालना होगा हल

Last Updated 17 Feb 2020 01:06:51 AM IST

अभी हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में काफी गम्भीरता से राहुल गांधी के ‘डंडे मार कर भगाने’ वाले बयान का जवाब दिया।


बेरोजगारी : जल्द निकालना होगा हल

राहुल गांधी पिछले कुछ समय से लगातार इस सवाल को उठा रहे हैं। राहुल गांधी ने संसद में कहा कि हाल ही में पेश हुए आम बजट में भी सरकार ने बेरोजगारी पर कोई बात नहीं की। भारत सरकार के सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि भारत में पिछले पैतालीस वर्षो में सबसे ज्यादा बेरोजगारी गत 4 वर्षो में हुई है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में चिंता वाली बात ये है कि देश में पढ़े लिखे बेरोजगारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे अपने यहां इसका लेखा-जोखा रखने का कोई रिवाज नहीं है। शायद इसलिए नहीं है क्योंकि इस समस्या का जिक्र कोई भी सरकार नहीं सुनना चाहती।
अगर किसी के मुंह से सुनने को मिलता है तो सिर्फ उनसे जो सत्ता में नहीं होते और जिन्हें युवा शक्ति को लुभाने की जरूरत होती है। अब चूंकि हाल फिलहाल कहीं बड़े चुनाव नहीं है, लिहाजा राजनीतिक या मीडियाई हलचल दिखाई नहीं देती। जबकि अपने आकार और प्रकार में यह समस्या दूसरी बड़ी से बड़ी कथित समस्याओं पर भारी पड़ती है। पढ़े-लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है। इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है। जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद पर पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है। जिस पर गौर करना जरूरी है।

अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं। गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है। गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्रा कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है। जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है। लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है। उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम-से-कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती। उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो, तो सोच विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा। यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े-लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है। आइए, लगे हाथ इस भीड़ या फौज के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर लें। पिछली सदी के अंतिम दशक में सूचना प्रौद्योगिकी का बोलबाला हुआ। उस दौर में यानी राजीव गांधी के फौरन बाद जब सूचना क्रांति का माहौल बना तो ऐसा माहौल बन गया कि आगा पीछा सोचे बगैर भारी भीड़ सूचना प्रौद्योगिकी में ही उमड़ पड़ी। बाद में जरूरत से ज्यादा पनपा दिए गए इस क्षेत्र में सूचना प्रौद्योगिकी के कुशल युवकों खासतौर पर डिप्लोमा या सर्टीफिकेटधारियों का क्या हो रहा है?
हमारे सामने है। इस सदी के पहले दशक में प्रबंधन प्रौद्योगिकों का दौर चला। शायद ही कोई जिला हो, जहां बीसीए, बीबीए और दूसरे ऐसे कोर्स के लिए कॉलेज न खुले हों। यहां से प्रशिक्षण प्राप्त युवाओं को उस स्तर पर नौकरी नहीं प्राप्त हुई, जैसा उन्होंने सोचा था। सामान्य अनुभव है कि थोड़े बहुत प्रशिक्षित बेरोजगार को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है। देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं। लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है। परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सैल्समेन कितनी संख्या में खपेंगे? यानी किन क्षेत्रों में कितने कुशल कामगारों की या प्रशिक्षित व्यावसायिक मानव संसाधनों की जरूरत है, इसका हिसाब ही नहीं लगाया जाता। यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है। और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम-से-कम प्रशिक्षित व्यावसायिक लोगों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है। इसके लिए याद दिलाया जा सकता है कि देश के एक बड़े प्रदेश उप्र में कौशल विकास केंद्र वाकई मन लगाकर यह काम कर रहे हैं और उनके परिणाम भी अपेक्षा से कहीं बेहतर नजर आ रहे हैं। लेकिन देश में इक्का-दुक्का जगह ऐसा होना समग्र स्थिति पर ज्यादा असर नहीं डाल सकता। और उससे भी ज्यादा गौर करने की यह बात है कि ऐसे प्रयासों की समीक्षा करने तक का कोई प्रबंध नहीं है।
बहरहाल, अगर जरूरत है तो रोजगार नीति को नये परिप्रेक्ष्य में बनाने की जरूरत है? कालेधन पर लगाम लगाने के लिए मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी जैसे साहसिक फैसले लिये, जिसका लाभ क्रमश: सामने आएगा। फिलहाल इससे अर्थव्यस्था को झटका लगा है, उससे शहर का मध्यम और निम्न वर्ग काफी प्रभावित हुआ है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उन व्यापारियों का कारोबार ठप हो गया या दस फीसद रह गया, जो सारा लेन-देन नकद में करते थे। इतनी बड़ी तादाद में इन व्यापारियों का कारोबार ठप होने का मतलब लाखों लोगों का रोजगार अचानक छिन जाना है। इसी तरह ‘रियल इस्टेट’ की कीमतों में कालेधन के कारण जो आग लगी हुई थी, वो ठंडी हुई। सम्पत्तियों के दाम गिरे। पर बाजार में खरीदार नदारद हैं। नतीजतन पूरे देश में भवन निर्माण उद्योग ठंडा पड़ गया। ये अकेला एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें मजदूर, राजमिस्त्री, सुपरवाइजर, इलेक्ट्रशियन, प्लम्बर, बढ़ई, आर्किटेक्ट, इंजीनियर, भवन सामग्री विक्रेता और उसका स्टाफ समेत लंबी फौज हर शहर और कस्बे में जुटी थी।
सम्पत्ति की मांग तेजी से गिर जाने के कारण शहर-शहर में भवन निर्माण का काम लगभग ठप हो गया है। इससे भी बहुत बड़ी संख्या में बेरोजगारी बड़ी है। इतना ही नहीं इन सबके ऊपर आश्रित परिवार भी दयनीय हालत में फिसलते जा रहे हैं। आए दिन कर्ज में डूबे युवा उद्यमी सपरिवार आत्महत्या कर रहे हैं। उधर बैंकों से लाखों करोड़ लूटकर विदेश भाग गए बड़े आर्थिक अपराधियों के कारण बैंकों ने अपना लेन-देन काफी सीमित और नियंत्रित कर दिया है। अगर इसी तरह बेरोजगारी बढ़ती गई तो समाज में अराजकता बढ़ने की आशंका और भी बढ़ जाएगी, जिस पर ध्यान देने की जरूरत है।

विनीत नारायण


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