विश्लेषण : बदलाव का कितना असर?

Last Updated 11 Feb 2020 12:55:48 AM IST

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वर्तमान चुनाव में जिस तरह की सधी और संयत राजनीति की है, उसकी उम्मीद एक वर्ष पहले तक किसी को नहीं रही होगी।


विश्लेषण : बदलाव का कितना असर?

उन्होंने अपने किसी भाषण में नरेन्द्र मोदी का नाम तक नहीं लिया। यही केजरीवाल चार वर्षो तक प्रधानमंत्री मोदी को ना जाने किन-किन विशेषणों से विभूषित कर चुके हैं। उन्होंने शाहीन बाग को लेकर भी कोई ऐसा वक्तव्य नहीं दिया कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को उन्हें घेरे। 
जब प्रधानमंत्री ने लोक सभा में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट की घोषणा की तो अन्य पार्टियों ने इसे चुनाव को ध्यान में रखते हुए की गई घोषणा करार दे दिया लेकिन केजरीवाल ने टिप्पणी की कि इसका चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, मंदिर बनना चाहिए, सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ गया है और उसमें ट्रस्ट बनाने का आदेश था। प्रश्न है कि आखिर, केजरीवाल ने ऐसी रणनीति क्यों अपनाई? जो व्यक्ति बात-बात पर सीधे प्रधानमंत्री को ही निशाना बनाता था, अचानक उसमें इस तरह का बदलाव क्यों आया? इसी प्रश्न के उत्तर में केजरीवाल के भविष्य की राजनीति का उत्तर निहित है। आप देखेंगे कि 2011 में अन्ना हजारे के अभियान से लेकर और 2020 के केजरीवाल के वक्तव्यों और व्यवहार, दोनों में आमूल परिवर्तन आ गया है। जो कुछ उन्होंने कहा उसके विपरीत डंके की चोट पर बोलने और कर्म करने में उन्हें तनिक भी हिचक नहीं हुई। इस तरह का व्यक्तित्व भारत की क्षरित राजनीति में विरले मिलेगा। 

व्यक्ति अनुभवों से सीखता है। केजरीवाल के सीखने का तरीका अपने किस्म का है। कुछ लोग उन्हें राजनीति में अभिनय सम्राट का खिताब यूं ही नहीं देते। वह कल क्या बोलेंगे, क्या करेंगे इसका पूर्वानुमान लगाना तो उनके धुरंधर साथियों के लिए भी कठिन था। तभी तो अन्ना अभियान से लेकर पार्टी की स्थापना और चुनाव में उनके विजय के लिए काम करने वाले ज्यादातर प्रमुख साथी आज उनके साथ नहीं हैं। या तो उन्होंने उनको मजबूर कर दिया कि बाहर चले जाएं और जो नहीं गए उनको बाहर कर दिया। केजरीवाल जो कुछ बोलते हैं, और जो कुछ नहीं बोलते हैं उससे उनके चिंतन और भावी व्यवहार का आकलन करना बिल्कुल गलत होगा। केजरीवाल को समझ आ गया है कि मोदी की लोकप्रियता देश में अतुलनीय है। उन्होंने उन पर हमला करने की प्रतिक्रिया में जनता का गुस्सा देखा है। 2019 के लोक सभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (आप) दिल्ली में तीसरे नम्बर की पार्टी बनने को विवश हो गई। यह नहीं मानना चाहिए कि मोदी के प्रति उनके अंदर सम्मान भाव पैदा हो गया है, या वे हिंदुत्व के पैरोकार हो गए हैं, या अचानक इतने सेक्युलर हो गए हैं कि उन्हें हिंदू-मुसलमान पर बात करने की आवश्यकता महसूस नहीं होती।
दरअसल, केजरीवाल को पता है कि कांग्रेस मैदान में नहीं है, इसलिए मुसलमानों का ज्यादातर वोट आप को ही मिलना है। तो उनके बोलने की आवश्यकता नहीं, लेकिन थी। केजरीवाल चुनाव जीत जाते हैं, तो उनकी राजनीति कैसी होगी? चुनाव हार जाते हैं, तो उनकी राजनीति कैसी होगी? कांग्रेस को स्वीकार नहीं है कि केवल वही चुनाव लड़े जहां भाजपा से उसका सीधा मुकाबला हो। केजरीवाल चुनाव जीतते हैं तब और ना जीतते हैं, उस स्थिति में भी हो सकता है वह लोक सभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की कोशिश में शामिल हों। लेकिन जैसी रणनीति उन्होंने अपनाई है, उसका संकेत यही है कि सरकार में आने के बाद वे भले केंद्र सरकार से सतत टकराव की नीति पर आगे नहीं चलेंगे लेकिन मौका-बेमौका सरकार की आलोचना करेंगे जो उनका स्वभाव है, जिस काम में वे सफल नहीं होंगे उसका आरोप केंद्र सरकार या उपराज्यपाल पर मढ़ेंगे लेकिन सीधे प्रधानमंत्री को निशाना बनाने से बचेंगे।
उनके लिए कठिनाई मुस्लिम वोट को बनाए रखने की है। इसके लिए उनको भाजपा और संघ की आलोचना करनी होगी। खतरा है कि ऐसा करना भाजपा के पक्ष में जा सकता है। तो वे मुसलमानों को लेकर और हिंदुत्व के मामलों में क्या रणनीति अपनाएंगे? कहना कठिन है। कारण, जो कुछ उनका विचार होता है, उसको प्रकट करने से उनका लेना-देना नहीं होता। जो उनकी राजनीति को सूट करे, जिससे वोट मिले, जिनसे उनकी लोकप्रियता बढ़े, वे पीड़ित माने जाएं ऐसी ही बात बोलते हैं। उसी तरह काम करते हैं। यह सब जारी रहेगा लेकिन जरा बदले अंदाज में। पिछले 5 सालों में उनका अनुभव है कि मोदी सरकार राज्यों के साथ सहयोग करते हुए विकास के काम में यथासंभव मदद करती है। 
उदाहरण के लिए यमुना शुद्धिकरण को लेकर पहले उमा भारती और उसके बाद नितिन गडकरी ने स्वयं केजरीवाल से मुलाकात की, उनके सामने पूरा एजेंडा रखा, कई बैठकों के बाद केजरीवाल को तैयार किया और यमुना पर काम हो रहा है। यमुना रिवर फ्रंट बनेगा और यमुना शुद्ध होगी ऐसी उम्मीद की जा सकती है। केजरीवाल का तरीका है कि वे केंद्र सरकार के कार्यों को अपना बता कर जनता के बीच ले जाते हैं। इसमें उनको तनिक भी हिचक नहीं होती। इसलिए वे पूरी कोशिश करेंगे कि केंद्र सरकार का ज्यादा से ज्यादा सहयोग लेकर और मोदी सरकार की योजनाओं के अनुसार भी दिल्ली के विकास का काम कराया जाए ताकि उसे अपनी उपलब्धियों के रूप में जनता के समक्ष रखा जा सके। लेकिन वह पराजित हो गए तो? ज्यादा संभावना इस बात की है कि वे दिल्ली सरकार की नाक में दम करने के लिए पहले वाले रूप में आने की कोशिश करें। विधानसभा में विपक्ष के नेता के रूप में उनको भूमिका निभाने का अवसर नहीं मिला है। हालांकि आंदोलनकारी के रूप में उनका पहले की तरह उभरना कठिन है। लेकिन वे अभिनय तो कर ही सकते हैं। इसलिए विधानसभा से लेकर सड़कों तक वह ऐसा दृश्य उत्पन्न करने की कोशिश करेंगे जिससे जनता को विश्वास दिला सकें कि उनके असली हमदर्द, या उनके हितों के लिए संघर्ष करने वाले एकमात्र नेता वही हैं, सरकार उनकी वास्तविक हितैषी नहीं है। कैसे करेंगे, इसका निश्चित पूर्वानुमान कठिन है।
हमने मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली में अशांति और अव्यवस्था पैदा करते उन्हें देखा है, लेकिन वह पुराने केजरीवाल की बात थी। उनके पास समय होगा इसलिए वे शांति से दिल्ली को चलने नहीं देंगे, इतना निश्चित है।

अवधेश कुमार


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