बापू : नफरत या उनका डर..
क्या महात्मा गांधी की अगुआई में चला स्वतंत्रता संघर्ष नाटक था और देश के तमाम स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों के साथ ‘एडजस्टमेंट’ करके चल रहे थे?
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भाजपा के सांसद-जो पिछली मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे-अनंत कुमार हेगड़े द्वारा गांधी को लेकर तथा आजादी के समूचे आंदोलन को लेकर प्रगट ऐसे अपमानजनक उद्गारों की व्यापक र्भत्सना हुई है। उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग भी उठी।
मालूम हो कि पिछले दिनों बेंगलुरू में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि महात्मा गांधी के नेतृत्व में संचालित आजादी का आंदोलन एक ‘नाटक’ था और जब वह उस इतिहास को पढ़ते हैं तो उनका ‘खून खौलता है’ कि ‘कैसे-कैसे लोग महात्मा के तौर पर जाने गए।’ क्या यह कहा जाना वाजिब होगा कि हेगड़े की टिप्पणी ‘महज जबान फिसलना’ थी, या सरकार की फौरी दिक्कतों से ध्यान बांटने के लिए कही गई बात? वैसे पहली दफा नहीं है जब उन्होंने विवादास्पद बात कही है। यकीन करना मुश्किल लगता है कि यह ताजा बयान यूं ही दिया गया था। भारतीय जनता के उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को लेकर हिंदुत्ववादी संगठनों में छिपा तिरस्कार का जो भाव है, वही इस वक्तव्य में प्रगट हो रहा था।
कई उदाहरण मिलते हैं, जब इनके संस्थापक-सदस्यों या सरसंघचालकों ने शहीदों का मजाक उड़ाया है। हेडगेवार, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक सदस्य थे, ने कहा था : ‘देशभक्ति का मतलब महज जेल जाना नहीं है। ऐसी सतही राष्ट्रभक्ति के बहाव में आना उचित नहीं है।’ याद कर सकते हैं कि केंद्र में भाजपा के सत्तासीन होने/मई, 2014/के तत्काल बाद अभियान चल पड़ा था, जब एक तरफ गांधी का न्यूनीकरण हो रहा था और साथ ही साथ सैनिटाइज्ड/साफसुथराक्रत रूप में उन्हें मिलाने की कोशिशें भी परवान चढ़ रही थीं। मिसाल के तौर पर स्वच्छ भारत अभियान में गांधी उसके ब्रांड एम्बेसेडर के तौर पर न्यूनीक्रत किए गए थे और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष की उनकी महान विरासत को लगभग धुंधला किया गया था। खादी आयोग ने अपने सालाना कैलेंडर में हमेशा से चली आ रही गांधी की तस्वीर की जगह मोदी की तस्वीर चस्पा की थी। नाथूराम गोडसे, जिसे आजाद भारत का पहला आतंकी कहा जाता है, को इसी दौरान संसद सदन के पटल पर और बाहर भी ‘देशभक्त’ घोषित किया गया, इसी दौरान गोडसे के मंदिर देश के अलग-अलग हिस्सों में बनाने के ऐलान भी हुए। कुछ जगह बने भी। गौरतलब है कि इस घटनाक्रम पर रोहित कुमार-जो शिक्षाविद् हैं, और पोजिटिव साइकोलोजी तथा साइकोमेटिरक्स में दखल रखते हैं-ने अपने आलेख में प्रश्न उठाया था कि उन्होंने गांधी की प्रतिमा पर इसलिए तो गोलियां नहीं चलाई कि ‘उन्हें लग रहा हो कि गांधी अभी जिंदा हैं।’ बिहेविरल साइकोलोजिस्ट अर्थात स्वभाव संबंधी मनोविज्ञानियों के हवाले से रोहित बताते हैं कि नफरत और डर एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। ‘सत्य और अहिंसा, जैसा कि हम जानते हैं, वे ‘हथियार’ थे जिनके बूते महात्मा ने अपने ‘युद्ध’ को लड़ा था। क्या यह मुमकिन है कि विगत पांच वर्षो में हर बार हिंदुत्ववादी संगठनों को, जब भी उन्होंने इन दो ताकतवर ‘हथियारों’ को प्रयोग में देखा हो, गांधी का भूत नजर आया हो?’ जाहिर है लेखक के इस विश्लेषण को आप यूं ही खारिज नहीं कर सकते।
आखिर, इस बात को कैसे समझा जाए कि बमुश्किल छह-सात माह पहले सत्ता पर अधिक बहुमत से दोबारा काबिज मोदी-शाह हुकूमत को-जो कल तक अजेय लग रही थी-अचानक बचावात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ रहा है? अचानक ऐसा कैसे हुआ कि हतबल दिख रहे विपक्ष को भी चकित करते हुए लाखों लाख लोग ‘- छात्र, नौजवान, महिलाएं, कलाकार, लेखक- देश के कोने-कोने से सड़कों पर उतर आए और उन्होंने धर्म को नागरिकता का पैमाना बनाने की हिंदुत्ववादी सरकार की योजना को चुनौती दी। कैसे हुआ कि संविधान का प्राक्कथन-वही संविधान जिसकी रचना जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रीत्व काल में हुई थी तथा जिसका मसविदा डॉ. आम्बेडकर की अगुआई वाली कमेटी ने तैयार किया था-जनता के इस स्वत:स्फूर्त विद्रोह का ऐलाननामा/घोषणापत्र बना?
आखिर, ऐसा कैसे हुआ कि सदियों से धर्म एवं जेंडर के आधार पर भेदभाव का शिकार बनी शाहीनबाग की महिलाएं इस शांतिपूर्ण प्रतिरोध का प्रतीक बन कर उभरीं? शायद गांधी की यह बात लोगों के दिलोदिमाग में जज्ब हुई है: ‘जब भी मैं निराश होता हूं, मुझे याद आता है कि समूचा इतिहास यही बताता है कि हमेशा सत्य और प्रेम का तरीका ही जीता है। तानाशाह और हत्यारे रहे हैं, और कुछ वक्त़ तक, वे अजेय भी दिखते रहे हैं, मगर अंत में उन्हें शिकस्त मिली है। इसके बारे में हमें सोचना चाहिए-हमेशा।’
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