सामयिक : शिकारा : कश्मीरी प्रेम कथा

Last Updated 10 Feb 2020 12:28:06 AM IST

कश्मीर की घाटी से 30 बरस पहले भयावह परिस्थतियों में पलायन करने वाले कश्मीरी पंडितों को उम्मीद थी कि विधु विनोद चोपड़ा की नई फिल्म ‘शिकारा’ उनके दुर्दिनों पर प्रकाश डालेगी।


सामयिक : शिकारा : कश्मीरी प्रेम कथा

वो देखना चाहते थे कि किस तरह हत्या, लूट, बलात्कार, आतंक और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों पर दी जा रही धमकियों के माहौल में 24 घंटे के भीतर लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने घर, जमीन-जायदाद, अपना इतिहास, अपनी यादें और अपना परिवेश छोड़कर भागना पड़ा। वे अपने ही देश में शरणार्थी हो गए।
25 डिग्री तापमान से ज्यादा जिन्होंने जिंदगी में गर्मी देखी नहीं थी, वो 40 डिग्री तापमान में ‘हीट स्ट्रोक’ से मर गए। कोठियों में रहने वाले टेंट में रहने को मजबूर हो गए। 1947 के भारत-पाक विभाजन के बाद ये सबसे बड़ी त्रासदी थी, जिस पर आज तक कोई बॉलीवुड फिल्म नहीं बनी। उन्हें उम्मीद थी कि कश्मीर के ही निवासी रहे विधु विनोद चोपड़ा इन सब हालातों को अपनी फिल्म में दिखाएंगे, जिनके कारण उन्हें भी कश्मीर छोड़ना पड़ा। वो दिखाएंगे कि किस तरह तत्कालीन सरकार ने कश्मीरी पंडितों की लगातार उपेक्षा की। सरकार चाहती तो इन 5 लाख कश्मीरियों को देश के पर्वतीय क्षेत्रों में बसा देती। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। कश्मीरी पंडित आज भी बाला साहब ठाकरे को याद करते हैं। जिन्होंने महाराष्ट्र के कॉलेजों में एक-एक सीट कश्मीरी शरणार्थियों के लिए आरक्षित कर दी, जिससे उनके बच्चे अच्छा पढ़ सकें।

वो जगमोहन जी को भी याद करते हैं, जिन्होंने उनके लिए बुरे वक्त में राहत पहुंचवाई। वो ये जानते हैं कि अब वो कभी घाटी में अपने घर नहीं लौट पाएंगे। लेकिन उन्हें तसल्ली है कि धारा 370 हटाकर मोदी सरकार ने उनके जख्मों पर कुछ मरहम जरूर लगाया है। उन्हें इस फिल्म  से बहुत उम्मीद थी कि ये उनके ऊपर हुए अत्याचारों को विस्तार से दिखाएगी। मगर उनकी ये उम्मीद पूरी नहीं हुई। दरअसल, हर फिल्मकार का कहानी कहने का एक अपना अंदाज होता है, कोई मकसद होता है। चोपड़ा ने ‘शिकारा’ फिल्म बनाकर इस घटनाक्रम पर कोई ऐतिहासिक फिल्म बनाने का दावा नहीं किया है, जिसमें वो ये सब दिखाने पर मजबूर होते। उन्होंने तो इस ऐतिहासिक दुर्घटना के परिप्रेक्ष्य में एक प्रेम कहानी को ही दिखाया है। जिसके दो किरदार उन हालातों में कैसे जिए और कैसे उनका प्रेम परवान चढ़ा? इस दृष्टि से से देखा जाए, तो ‘शिकारा’ कम शब्दों में बहुत कुछ कह देती है। माना कि उस आतंक भरी रात की विभीषिका के हृदय विदारक दृश्यों को विनोद ने अपनी फिल्म में नहीं समेटा, पर उस रात की त्रासदी को एक परिवार पर बीती घटना के माध्यम से आम दर्शक तक पहुंचाने में वे सफल रहे हैं। यह उनके निर्देशन की सफलता है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी कोई कैसे जीता है और चुनौतियों का सामना करता है, इसका उदाहरण हैं ‘शिकारा’ के मुख्य पात्र, जो हिम्मत नहीं हारते, उम्मीद नहीं छोड़ते और एक जिम्मेदार नागरिक भूमिका को निभाते हुए, उस कड़वेपन को भी भूल जाते हैं, जिसने उन्हें आकाश से जमीन पर पटक दिया।
फिल्म के नायक का अपनी पत्नी के स्वर्गवास के बाद पुन: अपने गांव कश्मीर में लौट जाना और अकेले उस खंडित घर में रहकर गांव के मुसलमान बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लेना, हमें जरूर काल्पनिक लगता है, पर चोपड़ा ने इस आखिरी सीन के माध्यम से एक उम्मीद जताई है कि शायद भविष्य में कभी कश्मीरी पंडित अपने वतन लौट सकें। पिछले दिनों नागरिकता कानून को लेकर जो देशव्यापी धरना, प्रदर्शन और आन्दोलन हुए हैं, उनमें एक बात साफ हो गई कि देश का बहुसंख्यक हिंदू समाज हो या अल्पसंख्यक सिख समाज, सभी वगरे से खासी तादाद में लोगों ने मुसलमानों के साथ इस मुद्दे पर कंधे-से-कंधा मिलाकर समर्थन किया। कश्मीर घाटी के मुसलमानों को बताने के लिए यह काफी है कि जिन हिंदुओं को तुमने पाकिस्तान के इशारे पर अपनी नफरत का शिकार बनाया था, वो हिंदू ही तुम्हारे बुरे वक्त में सारे देश में तुम्हारे समर्थन में आ गए। उनका ये कदम सही या गलत है, ये भी नहीं सोचा और हमदर्दी में साथ दिया। कश्मीर के पंडित कश्मीर की घाटी में फिर लौट सकें, इसके लिए कोई फौज या सरकार माहौल  नहीं बनाएगी। यह काम तो कश्मीर के मुसलमानों को ही करना होगा।
उन्हें समझना होगा कि आवाम की तरक्की, फिरकापरस्ती और जिहाद से नहीं हुआ करती। वो आपसी भाईचारे और सहयोग से होती है। मिसाल दुनिया के सामने है। जिन मुल्कों में भी मजहबी हिंसा फैलती है, वे गर्त में चले जाते हैं और लाखों घर तबाह हो जाते हैं। रही बात ‘शिकारा’ फिल्म की तो ये एक ऐेतिहासिक ‘डॉक्यूमेंटरी’ न होकर केवल प्रेम कहानी है, जो एहसास कराती है कि नफरत की आग कैसे समाज और परिवारों को तबाह कर देती है? पिछले दो दशकों में ‘जोधा अकबर’, ‘पद्मावत’ जैसी कई फिल्में आई हैं, जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का संदर्भ लेकर प्रेम कथाओं को दिखाया गया है। जब भी ऐसी फिल्में आती हैं, तो समाज का वह वर्ग आन्दोलित हो जाता है, जिनका उस इतिहास से नाता होता है और तब वे फिल्म का डटकर विरोध करते हैं, कभी-कभी तोड़-फोड़ और हिंसा भी करते हैं। फिल्म उद्योग को समझने वाले इसके अनेक कारण बताते हैं। कुछ मानते हैं कि ऐसा फिल्म निर्माता के इशारे पर ही होता है। क्योंकि विवाद का सीधा लाभ निर्माता को मिलता है। पर इन विवादों का एक कारण लोगों की भावनाओं का आहत होना भी होता है। जाहिर है कि जिस पर बीतती है, वही जानता है। क्योंकि कश्मीरी पंडितों के साथ पिछले तीस सालों में भारत सरकार या देश के बुद्धिजीवियों और क्रांतिकारियों ने कभी कोई सहानुभूति नहीं दिखाई, कभी उनके मुद्दे पर हल्ला नहीं मचाया।
इसलिए शायद उन्हें ‘शिकारा’ से बहुत उम्मीदें थी। पर सारी उम्मीदें एक ही फिल्म निर्माता से करना या तीस बरस के सारे कष्टों को एक ही फिल्म में दिखाने की मांग करना, कश्मीरी पंडितों की आहत भावना को देखते हुए उनके लिए स्वाभाविक ही है। पर निर्माता के लिए संभव नहीं है। ‘शिकारा’ ने कश्मीरी पंडितों की समस्या पर भविष्य में एक नहीं कई फिल्में बनाने की जमीन तैयार कर दी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले सालों में हमें उन अनछूए पहलूओं पर भी तथ्यपरख फिल्में देखने को मिलेंगी। तब तक ‘शिकारा’ काफी है हमें भावनात्मक रूप से कश्मीर की इस बड़ी समस्या को समझने और महसूस कराने के लिए।

विनीत नारायण


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