मीडिया : बेमतलब बदतमीजियां
मीडिया संबंधी अघ्ययनों में बताया जाता है कि मीडिया का मूल काम है एक स्तरीय भाषा के जरिए यथार्थ को ‘मीडिएट’ करना।
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‘मीडिएट करना’ करने का अर्थ है कि जनता और यथार्थ के बीच एक भरोसमंद ‘माध्यम’ बनकर काम करना यानी घटनाओं की जानकारी एकत्रा करना, फिर उसे संवार कर, संपादन कर प्रसारित करना आदि। इसे ही ‘मीडिएशन’ कहते हैं। इस काम में सबसे जरूरी है उस भाषा का निर्माण जो सब के बीच आपसी ‘बातचीत’ को संभव कर सके। लोगों के बीच संवाद स्थापित कर सके और ऐसा संवाद कराए जो लोगों को समाहार तक ले जाए!
मीडिया किसी भी मुददे के अधिकतम पक्षों को बताते हुए पाठक या दर्शक को एक निष्कर्ष तक ले जाता है। लोग उससे बातचीत करने और अपनी बात कहने की तमीज सीखते हैं। लेकिन अगर मीडिया ऐसी भाषा में संवाद करने लगे जो बातचीत की जगह ‘तू तू मैं मैं’ वाली हो या ‘बदतमीजी’ वाली हो तो हम भी उसको आदर्श समझ उसकी नकल करने लगेंगे। अफसोस कि इन दिनों यही हो रहा है। अपना मीडिया दिनानुदिन ऐसी ही बदतमीज भाषा को दिखाता-सुनाता रहता है। उसे देख-सुन कर हम और अधिक उजड्ड और बदतमीज हुए जाते हैं। अगर आज बहुत से सुशिष्ट-सुसभ्य दिखने वाले व्यक्ति जरा-सी बात पर आपा खो कर कटुक्तियां करने लगते हैं तो उसका एक बड़ा कारण है मीडिया द्वारा ऐसी कटुक्तियों को ‘बड़ी खबर’ के रूप में प्रसारित करना! बार-बार प्रसारित होकर ऐसी कटुक्तियां हमारे लिए़ ‘नया नार्मल’ बनाती हैं। टीवी कटुक्तियों का ‘साधारणीकरण’ करने लगता हैऔर ऐसे ‘अपशब्द’ कालांतर में हमारे दैनिक शब्दकोश में घुस जाते हैं।
ऐसी कटुक्तियां मीडिया में ‘किसी आम खबर’ की तरह नहीं आतीं बल्कि ‘मेड फॉर मीडिया’ की तरह आती हैं। इन दिनों वे पहले ‘सोशल मीडिया’ पर पहले आती हैं फिर उनको ‘टोल’ किया या करवाया जाता है और जितना ही वे टोल होती हैं, मुख्य मीडिया यानी टीवी के लिए जरूरी होती जाती हैं। फिर प्राइम टाइम में उन पर बहसें कराई जाती हैं, जहां कुछ लोग ‘हेट स्पीकर’ को कोसते हैं तो कुछ उसके पक्ष में बात करते हैं। ‘हेट स्पीकर’ देर तक हीरो बना रहता है। एक कहता है कि ये ‘हेबिचुअल ऑफेंडर’ है तो दूसरा कहता है-पहले अपने गरेबां में झांक कर देखो तब दूसरे पर उंगली उठाओ! और टीवी में बज-बजकर बदतमतीजी एक ‘आदर्श खबर’बनती जाती है। जब ‘घृणा’ वाली भाषा टीवी की भाषा बन जाती है तो ‘सविनय निवेदन’ छाप भाषा में मीडिया की दिलचस्पी नहीं रह जाती। भड़कीली भाषा पर दर्शक जुटते हैं। ‘नागरिक भाषा’ बोलने वाले चैनल को कोई नहीं देखना चाहता। दूसरे को नीचा दिखाने वाली भाषा, किसी ताकतवर को घृणित बनाने वाली, हीन बनाने वाली भाषा, खबर चैनलों को अधिक दर्शक जुटाती है। ‘जितने दर्शक उतने ही विज्ञापन, जितने विज्ञापन उतनी ही कमाई’ के तर्क से संचालित खबर चैनल भड़कीली भाषा को ही पसंद करते हैं। इसीलिए वे ऐसी ‘भड़कीली बाइटों’ की तलाश में रहते हैं, जो उनके प्राइम टाइम को‘अनिवार्य दर्शनीय’ बना दें। शिष्ट भाषा की जगह एक मोटी ‘गाली’ ही ऐसा कर सकती है। टीवी-दर्शक गाली देने वाले की हिम्मत के कायल होते हैं। उनकी नजर में ‘ठुकने वाले’ की अपेक्षा ‘ठोकने वाला’ बड़ा होता है। वही अपनी बात कहने का साहस दिखाता है।
बहुत-से नेता या सेलीब्रिटीज पहले भड़काऊ ‘ट्वीट’ मारते हैं और बाद में ‘टोल’ किए या करवाए जाते हैं। ‘टोल’ किए जाकर वे अचानक बड़ी धमाकेदार खबर बन जाते हैं। खबर चैनल उनके कहे पर चरचा कराने लगते हैं। कुछ लोग उनकी लानत-मलामत करते हैं तो कुछ उनको सही ठहराने लगते हैं और इस तरह वे टीवी के घृणा वीर कहलाने लगते हैं। इन दिनों कोई डेढ़ दर्जन नेता व सेलीब्रिटीज ऐसे हैं जिन्होंने पिछले बरसों में आए दिन अपनी घृणा वाणी से आम दर्शक का मन मुग्ध किया है। घृणा वाणी का अपना आकषर्ण होता है। अगर कोई किसी बड़े ताकतवर के प्रभामंडल में छेद करता है तो एक टीवी-दर्शक के रूप में हम भी उस ताकतवर मनुष्य को हीन होता हुआ, उसे घृण्य बनता हुआ देखकर तुष्ट होते हैं। ताकतवर के बरक्स हमारा नित्य पिटता हुआ तुच्छ अहंकार, किसी ताकतवर की टोपी उछलती देख बड़ा आनंद महसूस करता है। शायद इसी से हमारा मीडिया ‘मीडिएट’ करने की अपनी क्षमता को खोने लगा है और हमें और अधिक बदतमीज बनाता जा रहा है।
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