विश्वविद्यालय : सहिष्णु माहौल की जरूरत
देशभर के प्रमुख विश्वविद्यालयों में वैचारिक लड़ाई चरम पर है। विचारधाराओं के संघर्ष से उन्माद और वैमनस्य उपज रहा है।
विश्वविद्यालय : सहिष्णु माहौल की जरूरत |
परिणामत: पठन-पाठन ठप है, और संकायों में ताले जड़े हैं। आपसी मतभेद, दमनकारी मनभेद में बदल गए हैं, और परिसर खूनी जंग के अखाड़े बन गए हैं। वैचारिक असहिष्णुता का आलम यह है कि कल तक जो सहपाठी खानपान की साझी संस्कृति के परिचायक थे, आज परस्पर खून के प्यासे हो गए हैं। खुलकर वैचारिक मतभेद सामने रखने वाले सोशल मीडिया के माध्यम से एक-दूसरे पर तरह-तरह के घृणित पंथ आधारित आरोप मढ़ रहे हैं। भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद से मतभेद की ये स्थितियां ज्यादा मुखर हुई हैं।
दक्षिणपंथी और वामपंथियों के बीच की खाई पहले से ज्यादा गहरी हुई है। 1990 के दशक में साम्यवाद के अंत और कम्युनिस्ट में उदारतावाद के उदय से वामपंथ की नींव हिल गई। भारत में वामपंथ की अस्मिता पर ग्रहण लग गया जिस बचाने के लिए कई क्षेत्रों में उग्र-वामपंथ और नक्सलवाद का फैलाव हुआ। आज जेएनयू को वामपंथी अस्मिता संकट के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। भारतीय लोकतंत्र वैचारिक प्रतिस्पर्धा को खुला मंच देता है। हमारा संविधान इसे सिरे से स्वीकारता भी है।
भारत हजारों वर्षो से वयम् ब्रहास्मि (हम सभी ब्रह्म हैं) और वसुधैव कुटुबंकम (समूची धरती परिवार है) की विचारधारा को आत्मसात करता आया है। इसमें अनंत विचाराधाराओं, संस्कृतियों, मतों, पंथों और पूजा-पद्धतियों को आश्रय मिला। आजादी के पूर्व और पश्चात भी सभी धर्म और संप्रदाय के लोग एकत्व भाव से समरसतापूर्ण जीवन जीते थे। सेक्युलरिज्म व सहिष्णुता को आधुनिक भारत में ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ के रूप में परिभाषित किया जाता है, लेकिन प्राचीन भारत में असंख्य पंथों एवं असीमित विभिन्नताओं वाले सामाजिक परिवेश का अस्तित्व प्रमाणित करता है कि जब यूरोप सेक्युलरिज्म और सहिष्णुता से अपरिचित था तब भारत में ये संकल्प सामाजिक-संस्कृति की आधारशिला थे।
राजनीतिक गतिविधियों के संकेद्रन ने कैम्पस का मिजाज अचानक बदला है। विश्वविद्यालय परिसर में होने वाली हलचलों ने अकारण ही राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। वैसे तो तमाम यूनिर्वसटिी में छात्र राजनीति की स्वस्थ परंपरा रही है। मनभेद या मदभेद भुलाकर स्वस्थ वैचारिक लड़ाई को प्रमुखता दी जाती है, लेकिन एबीवीपी जैसे छात्र संगठनों के उभार और अवसान की ओर अग्रसर वामपंथ के चलते स्थितियां कैम्पस से बाहर सड़क पर टकाराहट की वजह बन गई हैं। जेएनयू में खूनी संघर्ष बानगी भर है। हालात कमोबेश सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों में एक से हैं। जेएनयू भारत के उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों में गिना जाता है।
न केवल भारत बल्कि दुनियाभर के छात्र हजारों की संख्या में हर साल यहां आते हैं। आजादी के बाद निर्मिंत ‘नेहरूवियन मॉडल’ से विकसित और प्रंबधित यह संस्थान अपनी शुरुआत से ही चर्चा के केंद्र में रहा है। एक वक्त था जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक को कैम्पस में आकर छात्र संगठनों की बात गंभीरता से सुननी पड़ती थी। उनकी मांगों के समक्ष झुकना पड़ता था। तब सभी विचारधाराओं को एकसमान रूप से उभरने और अपनी जड़ें जमाने का अवसर दिया जाता था। हालांकि तब एकाध छात्र संगठन को छोड़कर वामपंथ का ही दबदबा था। 90 के दशक में अटल बिहारी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एबीवीपी जैसे छात्र संगठनों ने अपना विस्तार करना शुरू किया। संबंधित संस्थानों सहित छात्रों को मिलकर प्रयास करने होंगे ताकि विचारों के परस्पर आदान-प्रदान और सौहार्दपूर्ण व्यावहार के लिए छात्रों को खुला मंच मिले और उनका सर्वागीण नैसर्गिक विकास हो सके।
वास्तविक वैचारिक सहिष्णुता तो यही है कि सभी दल और छात्र संगठन मिलजुल विकास आधारित काम करें छात्र और परिसर संबंधी समस्याओं को अपने ऐजेंडे में प्रमुखता से स्थान दें। अपनी सैद्धांतिक धारणाओं को व्यर्थ में जाया करने की बजाय उनका यथेष्ट इस्तेमाल करें। राष्ट्र और राज्य की भलाई इसी में है कि छात्र वैमनस्यता को त्याग परहिताय की भावना से काम करें। आखिर, लोकतंत्र की अवधारणा भी तो अंतत: इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है- सर्वे भवन्तु सुखिना:। लोकतंत्र में तर्कपूर्ण असहमति अनिवार्य है, लेकिन अभद्रता या विद्रोह मान्य नहीं। सहिष्णुता के आधार पर अन्य संगठनों को भी वैचारिक विस्तार का अवसर दिया जाए यही असल सहिष्णुता है। प्रतिस्पर्धियों को उचित सम्मान और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का अवसर देकर ही समानता, समरसता और समभाव का परिचय दिया जा सकता है।
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