विश्लेषण : अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

Last Updated 20 Jan 2020 02:02:32 AM IST

सीएए, एनआरसी और एनपीआर को लेकर जो भी प्रतिक्रिया देश में हो रही है, जो धरने और प्रदशर्न हो रहे हैं, उनका प्रभाव केवल मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में है।


विश्लेषण : अमित शाह का बढ़ता ग्राफ

जो हिंदू इन आन्दोलन से जुड़े हैं, वो या तो विपक्षी दलों से संबंधित हैं या धर्मनिरपेक्ष विचारधारा वाले हैं। बहुसंख्यक हिंदू समाज चाहे शहरों में रहता है या गांवों में, गृहमंत्री अमित शाह के निर्णयों से अभिभूत है क्योंकि उसे लगता कि सरदार पटेल के बाद देश में पहली बार एक ऐसा गृहमंत्री आया है जो अपने निर्णय दमदारी के साथ लेता और उन्हें लागू करता है।
पिछले कुछ महीनों में जिस तरह के निर्णय अमित भाई शाह ने लिये हैं, उनसे एक संदेश साफ गया है कि मौजूदा सरकार, हिंदुओं के मन में पिछले 70 सालों से जो सवाल उठ रहे थे, उनका जवाब देने को तैयार है। फिर चाहे वो कश्मीर में धारा 370 हटाने का सवाल हो या नागरिकता का मामला हो या तीन तलाक का मामला हो या समान नागरिक कानून बनाने का मामला हो। हर मामले में अमित शाह के नेतृत्व में जो फैसले लिये जा रहे हैं और जिन पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति की मोहर लगी है, वो वही हैं जो अब तक आम हिंदुओं के मन में घुटे रहते थे। उनका सवाल था कि जब हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो मुसलमानों के लिए अलग कानून क्यों? अल्पसंख्यकों के लिए अलग मान्यता क्यों? कश्मीर अगर भारत का अभिन्न अंग है तो वहां विशेष राज्य का दरजा क्यों? वहां के नागरिकों को विशेष सुविधाएं क्यों? इसी तरह के सवाल थे कि जब पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी लगातार घट रही है, तो हिंदुओं के लिए भारत सरकार कुछ क्यों नहीं करती? इन सारे सवालों का ग़ुबार हर हिंदुओं के मन में भरा था, उसको बड़ी तेजी से निकालने का काम अब शाह कर रहे हैं।

ये सही है कि अमित शाह के काम करने का तरीका कुछ लोगों को कुछ हद तक अधिनायकवादी लग सकता है। लेकिन जिस तरह वो अपने तकरे को लोक सभा की बहसों में पेश करते हैं और जिस तरह कानूनी जानकारों को भी अपने तकरे से निरूत्तर कर देते हैं, उससे यही लगता है कि वे जल्दीबाजी में कदम नहीं उठा रहे हैं। अगर हम आजाद भारत के इतिहास पर नजर डालें तो जैसा मैंने कई बार सोशल मीडिया पर भी लिखा है कि नक्सलवाद जैसी आतिवादी विचारधारा का जन्म बंगाल की वामपंथी दमनकारी नीतियों के विरुद्ध हुआ था। जो भी सरकार केंद्र या प्रांत में होती है, जब तक उसका विरोध प्रखर नहीं होता तब तक वो उसे बर्दाश्त कर लेती है। लेकिन देखने में आया है कि जब-जब विरोध प्रखर होता है और सत्ता में बैठा मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री या जो दल है वह मजबूत होता है तो उसकी प्रतिक्रिया प्राय: हिंसक होती है। इसके अपवाद बहुत कम मिलते हैं। जो लोग आज भारतीय जनता पार्टी की सरकार पर आतिवादी होने का आरोप लगा रहे हैं, उनको इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि क्या पिछली सरकारों में ऐसी घटनाएं नहीं हुई थी? मसलन जब बोफोर्स विवाद चल रहा था तब 1987 में ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के पत्रकारों पर तेजाब किसने और क्यों फिंकवाया था? इसी के साथ दूसरा विषय है योग्यता के सवाल को लेकर।
जैसे जेएनयू में ही प्रश्न उठाए गए कि कुलपति के द्वारा अयोग्य लोगों की भर्तियां की जा रही है। क्या वामपंथी ये कह सकते हैं कि जब उनका प्रभाव था तब सारी भर्तियां योग्यता के आधार पर ही हुई थी? इसी तरह एक और प्रश्न आम भारतीय के मन में आता है कि आज बड़ी तादाद में मुसलमान सड़कों पर तिरंगा झण्डा लहरा रहे हैं और जन-गण-मन गा रहे हैं। उन्हें इस बात की भी खुशी है कि बहुत सारे हिंदू भी उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर ये लड़ाई लड़ रहे हैं। पर क्या ये एकजुटता हमेशा रहने वाली है? कश्मीर में जब हिंदुओं को, खासकर कश्मीरी पंडितों को रातों-रात निकाला गया, पूरी कश्मीर घाटी को हिंदुओं से खाली करवा लिया गया, उस वक्त इस तरह की एकजुटता क्यों नहीं दिखी? हिंदू और मुस्लिम एक साथ कश्मीरी पंडितों के लिए सड़कों पर पिछले 30 सालों में कितनी बार निकले? जिस वक्त श्रीनगर के लाल चौक  पर रोज़ तिरंगे झण्डे जलाऐ जा रहे थे, उस वक्त कितने मुसलमानों ने शेष भारत में सड़कों पर उतर कर इसका विरोध किया? कितनी बार ऐसा हुआ है कि मोहर्रम के ताजिये या रामलीला की शोभायात्रा में साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। ये सही कि दंगे भड़काने का काम राजनैतिक दल और स्वार्थी तत्व करते आए हैं, लेकिन समाज के स्तर पर अगर दोनों में इतनी सहानुभूति और समझ है तो फिर उसका प्रदर्शन सामान्य दिनों में देखने को क्यों नहीं मिलता?
दरअसल, ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि इस समय मुसलमान असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इसलिए उनका देशप्रेम झलक रहा है। भारत ही नहीं दुनिया के तमाम देशों में बसे हिंदुओं का ये कहना है कि जब दुनिया में मुसलमानों के 58 देश हैं तो एक अकेला भारत हिंदू राष्ट्र क्यों न बने? दुनिया के सबसे पुराने धर्म का एक भी देश दुनिया में नहीं है। क्योंकि हिंदू धर्म स्वभाव से ही उदारवादी होता है, इसलिए भारत में इतने सारे धर्म पनपते चले गए। वे ये प्रश्न भी करते हैं कि भारत में गैर हिंदुओं को जो छूट मिली है, वो क्या किसी मुसलमान देश में हिंदुओं को मिल सकती है? इसके साथ ही एक भावना जो विश्व में फैल रही है, वो ये कि मुसलमान जिस देश में भी जाते हैं, वहां अपने धर्म का प्रभाव बढ़ाने में जुट जाते हैं। जिससे समाज में अशांति पैदा होती है। इसलिए पश्चिम के देश ही नहीं बल्कि साम्यवादी चीन तक में मुसलमानों पर सरकार की पाबंदियां बढ़ाई जा रही हैं। इसलिए मुसलमानों के समझदार और उदारवादी वर्ग को आत्मचिंतन करना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है और इसे कैसे रोका जाए? तुर्की और इंडोनेशिया उदारवादी इस्लाम के बेहतरीन नमूने हैं।
जहां तक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बल प्रदर्शन का आरोप है तो यह बात इसाई धर्म पर भी लागू होती है। जिसने मध्य युग में तलवार के जोर पर बाइबिल का प्रचार किया और लोगों पर तमाम अत्याचार किए। केवल हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन धर्म ही ऐसे है, जो भारत में जन्मे और जिनका प्रचार-प्रसार अहिंसक तरीके से अपने दर्शन की गुणवत्ता के कारण हुआ। बावजूद इसके गत शताब्दियों में हिंदू धर्म का विधर्मिंयों ने जमकर मजाक उड़ाया और उसकी मान्यताओं को बिना परखे नकार दिया। अमित शाह की नीतियां इसीलिए दुनियाभर के हिंदुओं को प्रभावित कर रही है, क्योंकि उन्हें लगता है कि अंतत: अब भारत हिंदू राष्ट्र बनेगा।

विनीत नारायण


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