नागरिकता : इतिहास और वर्तमान

Last Updated 13 Dec 2019 12:27:03 AM IST

स्वाधीनता संग्राम और तत्कालीन इतिहास को लेकर कुछ बुनियादी प्रश्न खड़े हो गए हैं।


नागरिकता : इतिहास और वर्तमान

गृहमंत्री अमित शाह ने जब नागरिकता संशोधन बिल संसद में पेश किया तो बहुतों को लगा है कि देश के संविधान और इसमें अंतर्निहित सिद्धांतों को एक ओर रखकर वर्तमान सरकार देश को एक हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की ओर धकेल रही है। बहस में जो सबसे खास बात दिखी वह यह कि दोनों पक्षों के बीच कोई संवाद की संभावना ही नहीं बन रही। इस विडंबनापूर्ण मुहूर्त में मनमोहन सिंह भी थे, जो उस हिस्से से आए थे जो आज पाकिस्तान है। भाजपा से लालकृष्ण आडवाणी बोलते पर वे तो सांसद ही नहीं हैं।

पाकिस्तान आंदोलन को लेकर विद्वानों में दो मत रहे हैं। जो सबसे अधिक लोकप्रिय है, वह है कि मोहम्मद अली जिन्ना ने 1937-1946 के बीच एक मुस्लिम सांप्रदायिक आंदोलन किया और अंतत: अप्रैल 1946 में बंबई में ‘डायरेक्ट एक्शन’ से पाकिस्तान (मुस्लिम भारत के लिए अलग देश) बनाने का खतरनाक फैसला किया। अगस्त 1946 के कोलकाता के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के बाद परिस्थितियां इतनी भयानक होती चली गई कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अंतत: जून 1947 को देश के बंटवारे को मानना पड़ा। दूसरा मत यह है कि हिन्दू-मुसलमान के राजनैतिक संघर्ष में 1920 के दशक में देश की व्यवस्था के प्रश्न पर जो विवाद खिलाफत आंदोलन के बाद के दंगों के बाद उभरे, उसमें से दो राष्ट्र का सिद्धांत सावरकर की ओर से आया (सिद्धांत रूप में हिन्दुत्व के प्रकाशन के बाद और स्पष्ट रूप से उनके हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बनने के बाद) और उसी सिद्धांत ने बाद में हिन्दू-मुसलमानों के बीच दीवार खड़ी कर दी। इसका फायदा अंगरेजों ने 1940 के दशक में उठाया और देश बंट गया। 

दरअसल, ये दोनों ही अपर्याप्त व्याख्याएं हैं। देश में हिन्दू और मुसलमान के आधार पर विभेद कम-से-कम उन्नीसवीं सदी से ही रहा है। मूल मुद्दा था लोकतंत्र के आधार को कांग्रेस द्वारा स्वीकारना और मुस्लिम नेतृत्व द्वारा प्रतिनिधित्व के आधार पर व्यवस्था को स्वीकार करना। मुस्लिम एलिट ने कभी भी लोकतंत्र के बहुमत के सिद्धांत को नहीं माना। चूंकि इस सिद्धांत के आधार में संख्या थी इसलिए हिन्दुओं को बढ़त हासिल होती और मुस्लिम नेतृत्व को लगता था कि इससे मुस्लिम दोयम दरजे के नागरिक होंगे। स्वाधीन भारत हिन्दू राज्य लेकर आएगा, यह भय बना ही रहा। गांधी ने वह सब कुछ किया जो वे कर सकते थे, लेकिन वे सफल नहीं हुए। गांधी की चेष्टाएं विश्वास और सद्भाव पर आधारित थीं। साइमन कमीशन और नेहरू रिपोर्ट पर हुए विवाद को ही पाकिस्तान के बनने के लिए पूर्वपीठिका के रूप में देखना चाहिए।

मुस्लिम लीग चाहती थी जैसे भी हो हिन्दू के वर्चस्व का अस्वीकार। इसीलिए हर हाल में इसने यह चाहा कि मुस्लिम जिन राज्यों में रहें वहां की बागडोर मुस्लिम हाथ में हो। पंजाब और बंगाल (जहां मुस्लिम हिन्दुओं से अधिक थे) दोनों में जो शासन करे वह स्वतंत्र हो। कांग्रेस शक्तिशाली केंद्र को रखना चाहती थी और मुस्लिम नेतृत्व राज्यों को स्वाधीन देखना चाहता था। यहीं मामला फंसा रहा। नेहरू रिपोर्ट से लेकर कैबिनेट मिशन तक खींचतान जारी रही। कांग्रेसी नेताओं को यह लगता था कि उनके पीछे जनशक्ति है, वे बाजी मार लेंगे। मार भी लेते, मगर 1940 के बाद अंग्रेजों के तीसरा पक्ष बन जाने के बाद स्थिति ऐसी बन गई कि बगैर लीग की सहमति के स्वराज संभव न रहा। इसने जिन्ना को ताकत दे दी और कांग्रेस को झुकना पड़ा।

गांधी ने कोशिश की, पर बात बनी नहीं। 1946 तक जिन्ना की ताकत इतनी बढ़ गई कि उसे 90 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमानों का समर्थन मिल गया। 1946 में देश के 90 प्रतिशत मुसलमान मुस्लिम लीग के साथ थे, इसको कहने-मानने में इतिहासकारों को लज्जा आती है। देश में ऐसी विकट परिस्थिति पैदा हो गई कि कांग्रेस ने लोक-लाज त्याग कर माउंटबेटन की मातहती में बंटवारे को मानते हुए स्वाधीनता के स्थान पर डोमिनियन स्टेट्स की टेक्टिकल मांग रखी। इसका मतलब यह हुआ कि विभाजन में आपकी मध्यस्थता जरूरी है। इसको कहने में भी बड़े इतिहासकार लजाते हैं। इस लज्जा के पीछे सदिच्छा है, पर वह अलग प्रसंग है।

1946 के उत्तरार्ध में भारत बंटने जा रहा है, यह सबको पता था। लेकिन कांग्रेस इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। इस कन्फ्यूजन ने लाखों लोगों की जान ले ली, ऐसा भी लोग मानते हैं। सब गांधी की ओर देख रहे थे। गांधी ने जून 1947 में बहुत मार्मिंक वाक्य कहा है, जिसके मर्म को समझना जरूरी है। उन्होंने कहा कि जब हिन्दू और मुसलमान साथ नहीं रहना चाहते तो अंग्रेज (वाइसराय) क्या कर सकते हैं? सबसे महत्त्वपूर्ण बात इस प्रसंग में यह है कि मार्च 1947 में ही खिजर हयात की सरकार गिराने के साथ ही हिन्दुओं को मारकर भगाने की कार्ययोजना लाहौर समेत कई इलाकों में शुरू हो गई थी और कांग्रेस नेतृत्व हिन्दुओं को पश्चिमी पंजाब को न छोड़ने के लिए कह रही थी।

मार्च 1947 से अगस्त 1947 के बीच जो अत्याचार सिख और हिन्दुओं पर हुआ, उसने जिन्ना के इस कथन कि ‘भारत और पाकिस्तान अमेरिका और कनाडा की तरह रहेंगे’, उसकी सारी संभावना को खत्म कर दिया। जो पश्चिमी पंजाब में हुआ उसका उलट अगस्त 1947 के बाद पूर्वी पंजाब और उन तमाम जगहों पर हुआ जहां-जहां शरणार्थी भाग-भाग कर पहुंचे। यह कहना बिल्कुल गलत है कि विभाजन का आधार धर्म नहीं था। कांग्रेस इसे स्वीकार नहीं कर सकी और इसने भारत को एक धार्मिंक राष्ट्र नहीं बनने दिया, यह अलग बात है। जो लाखों लोग मारे गए, बेघर हुए उनके बारे में सोचते हुए यह मानना पड़ेगा कि हिन्दुओं को पाकिस्तान (पश्चिमी और पूर्वी) में न्याय नहीं मिला। हिन्दुओं को भारत में शरण मिली पर यह सिलसिला चलता रहा और पूर्वी पाकिस्तान के बनने तक इस तरह विस्थापितों को लेकर कई समस्याएं उभर आई। जो लोग भागकर कश्मीर गए उनकी कहानी बहुत करुण है। पूर्वी पाकिस्तान से भागकर आए हिन्दुओं की कहानी कहते हुए भी इतिहासकारों को लज्जा आती है।

असम की कहानी बहुत जटिल है। वहां मुसलमानों को लाकर बसाने की 1940 के बाद से लेकर उन कांग्रेस नेताओं की कहानी है, जिनकी राजनीति ही लाकर बसाये गए मुसलमानों से चलती थी। इस पर ध्यान देने की जरूरत है। यह स्पष्ट है कि धार्मिंक रूप से अत्याचारित लोगों के लिए भारत का एक कर्तव्य है। कांग्रेस ने भी कोशिश की। बहुत सारा भार पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा ने उठाया लेकिन फिर भी बहुत सारे लोग हैं, जो दशकों बाद भी भय के साथ भारत में रह रहे थे। इस बिल द्वारा उनकी सुध ली गई है। वे लोग खुश हैं, आखिरकार उनको देश में नागरिक होकर रहने का सम्मान मिल सकेगा। अंत में यह उल्लेख जरूरी है। जैसा कि गृहमंत्री ने कहा है कि किसी की नागरिकता नहीं ली जाएगी, अगर यह सही है तो ही इस बिल का स्वागत होना चाहिए। अगर इसके पीछे कोई और मंशा है तो बात दूसरी है।

हितेन्द्र पटेल


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