स्वास्थ्य : भारत भी हो शतायु
आज से लगभग चार सौ साल पहले भक्त शिरोमणि तुलसी दास ने जब अपनी यह चौपाई रची होगी कि ‘लाभ हानि जीवन मरण जस अपजस विधि हाथ’ तब यह बात जरूर सच रही होगी।
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मनुष्य की आयु पूरी तरह से भाग्य का ही खेल रहा होगा। लेकिन आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। इतनी कि आज की तारीख में हमारा जीवन-मरण बहुत हद तक इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारी सरकारें हमें दीर्घायु बनाने के लिए क्या-क्या उपाय करती हैं?
1947 में जब भारत आजाद हुआ था तो यहां के लोगों की औसत आयु मात्र 32 साल थी। आम तौर पर अपने जीवन के चौथे दशक में लोग परलोक सिधार जाते थे लेकिन आज देश के नागरिकों की औसत आयु लगभग 69 वर्ष है। पुरु षों की आयु स्त्रियों से थोड़ी कम है, पुरु ष औसतन यहां 68 वर्ष जीते हैं, और स्त्रियां 70 वषर्। किसी देश या समुदाय की औसत आयु की गणना उसके जन्म-मृत्यु की दर के औसत तथा अन्य जनसांख्यिकी कारकों के आधार पर की जाती है। इसका मतलब यह है कि जन्म के समय किसी बच्चे के कितने लंबे समय तक जीवित रहने की आशा की जा सकती है। इसलिए औसत आयु को जीवन प्रत्याशा भी कहा जाता है। आजादी के बाद के इन सात दशकों में भारत ने आर्थिक दृष्टि से उल्लेखनीय विकास विकास किया है। और इसी के चलते हमारी जीवन प्रत्याशा दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। लेकिन अभी भी यह वैश्विक औसत से कम है। गौरतलब है कि दुनिया में आज एक सामान्य व्यक्ति के 72 साल तक जीवित रहने की आशा की जाती है।
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया है, जीवन की यह प्रत्याशा जन्म-मृत्यु दर के अलावा अनेक दूसरे जनसांख्यिकीय कारकों पर भी निर्भर करती है। और भारत में ये जनसांख्यिकीय कारक ज्यादा प्रभावी साबित हो रहे हैं। इन प्रभावों के आकलन के लिए जरूरी है कि अन्य देशों के साथ तुलना करते हुए इनका नीर-क्षीर विश्लेषण किया जाए। जैसे अफ्रीका में एक देश है लेसेथो। लेसेथो के लोगों की औसत आयु 53 साल से भी कम है। वहां बच्चों के टीकाकरण की दर काफी अच्छी है, इसलिए वे जन्म के बाद सुरक्षित रहते हैं। सफाई की व्यवस्था भी बुरी नहीं है, मगर युवा अवस्था में वहां एड्स, टीबी तथा दूसरे तरह के संक्रमणों से मरने वालों की तादाद बहुत ऊंची है। इसलिए उनकी औसत आयु कम हो जाती है। भारत में इसका उलटा है। यहां जन्म से पांच साल तक की उम्र में मरने वाले बच्चों की संख्या बहुत ज्यादा है। यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यहां सभी बच्चों का टीकाकरण नहीं हो पाता। बहुत सारे बच्चे पहले टीके के बाद उसकी दूसरी खुराक नहीं ले पाते। डायरिया और न्यूमोनिया जैसी आम बीमारियों से यहां बड़े पैमाने पर बच्चों की मृत्यु होती है क्योंकि उन्हें समय पर इलाज की सुविधा नहीं मिल पाती। मेडिकल सुविधा के अभाव के अलावा इसका एक कारण अशिक्षा भी है। लोग झाड़-फूंक का सहारा लेने लगते हैं।
2018 की इस रिपोर्ट के मुताबिक, यहां हर साल पांच साल से कम उम्र के 88 लाख बच्चे मौत का निवाला बन जाते हैं, जो दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है। इसी वजह से हमारी जीवन प्रत्याशा कम हो जाती है अन्यथा देश में बहुत सारे लोग ऐसे भी हैं, जो सौ साल से ऊपर जीते हैं। दुनिया में बहुत सारे देश ऐसे हैं, जिनकी औसत आयु हम से काफी ज्यादा है। इटली, फ्रांस, कनाडा, स्विटजरलैंड, अमेरिका, स्पेन और आस्ट्रेलिया जैसे बहुत सारे देशों की औसत आयु 80 साल से ऊपर है। जापान के लोगों की जीवन प्रत्याशा तो लगभग 85 वर्ष है किंतु दूसरी ओर ऐसे भी देश हैं, जहां के लोग मुश्किल से जीवन के 50 बसंत देख पाते हैं। जिस सिएरा लियोन को हम गृह युद्ध और सौंदर्य प्रतियोगिताओं की वजह से खबरों में देखते हैं, वहां की औसत आयु मात्र 51 वर्ष है। गरीबी और भुखमरी से बेहाल मध्य अफ्रीका, चाड और सोमालिया की जीवन प्रत्याशा 55 वर्ष से भी कम है। कम औसत आयु और ज्यादा औसत आयु वाले इन दो तरह के देशों के बीच एक फर्क तो साफ नजर आता है। जो देश अमीर हैं, वहां की जीवन प्रत्याशा ज्यादा है। जो देश गरीब हैं, उनकी जीवन प्रत्याशा कम है।
गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव, अशिक्षा, गंदगी, युद्ध, बेरोजगारी और जीवन यापन की स्थितियां किसी देश में वहां की मृत्यु दर को निर्धारित करती हैं। यह मृत्यु दर वहां की जीवन प्रत्याशा तय करती है लेकिन इसका निर्धारण सिर्फ किसी देश के अमीर या गरीब होने से नहीं होता। यह निर्धारण इस बात से भी होता है कि कोई देश अपने लोगों को स्वस्थ और दीर्घायु बनाने को अपनी योजनाओं में कितना महत्त्व देता है। वहां की सरकारें अपनी जन स्वास्थ्य योजनाओं, शिक्षा और नागरिक सुविधाओं पर कितनी रकम खर्च करती हैं। आप इन आंकड़ों पर एक नजर डालिए। भारत अपनी जीडीपी का सिर्फ 39 प्रतिशत हिस्सा जन स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है, जबकि अमेरिका 179 प्रतिशत हिस्सा खर्च करता है। जिन देशों की औसत आयु 80 से ऊपर है, उनमें से कोई भी देश अपनी जीडीपी का 9 प्रतिशत से कम हिस्सा स्वास्थ्य के लिए सुरक्षित नहीं करता। फ्रांस और कनाडा जैसे देश तो 11 प्रतिशत से भी ज्यादा खर्च करते हैं।
जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है, वहां सौ साल से ज्यादा जीने वालों की भी संख्या ज्यादा है। ये आंकड़े 2011 की जनगणना पर आधारित हैं, 2021 के आंकड़ों के आने में तो अभी काफी देर है। इसलिए हम और आप कितनी लंबी जिंदगी प्राप्त करेंगे, यह सिर्फ विधि का ही विधान नहीं है, कुछ हद तक तो इसे हमारी सरकारें भी इस बारे में तय करती हैं। भारत के लोगों को ऋषि-मुनियों की तरह दीर्घायु बनाने के लिए हमारी सरकारों को इस कार्य को अपनी प्राथमिकता सूची में स्थान देना होगा और स्वास्थ्य सेवाओं को प्राइवेट सेक्टर के हवाले कर देने के बदले हेल्थ क्षेत्र की बेहतरी के लिए अपना बजट बढ़ाना होगा। इसी के जरिए अपेक्षित परिणाम हासिल हो सकते हैं। हमारा निवेदन है कि हमें भी शतायु बना दे सरकार।
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