सामयिक : बॉन्ड पर बवाल

Last Updated 25 Nov 2019 12:31:21 AM IST

चुनावी बॉन्ड को लेकर तूफान मचा हुआ है। सड़क से लेकर संसद तक इसके खिलाफ आवाज उठ रही है।


सामयिक : बॉन्ड पर बवाल

आरोप यह है कि चुनावी बॉन्ड के द्वारा मनी लॉन्ड्रिंग हो रही है और फर्जी नाम से कंपनियां बनाकर राजनीतिक दलों को चंदा दिया जा रहा है। यह सच है कि 3 जनवरी 2018 से जबसे चुनावी बॉन्ड आरंभ हुआ इसके माध्यम से सबसे ज्यादा धन भाजपा को मिला है। इसमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि अगर चुनाव बॉन्ड सभी दलों के लिए था तो भाजपा को ही सबसे ज्यादा चंदा क्यों मिल रहा है? इसका जवाब हम अपने नजरिये से दे सकते हैं।
राजनीतिक जवाब तो यही है कि भारतीय जनता पार्टी ने अपने लाभ के लिए चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था की। लेकिन यदि हम निष्पक्ष होकर विचार करेंगे तो निष्कर्ष वही नहीं आएगा जो इस समय बताया जा रहा है। एक समय था जब सबसे ज्यादा चंदा कांग्रेस पार्टी को मिलता था। कांग्रेस केंद्र से लेकर राज्यों तक की सत्ता में थी। इस समय भाजपा की सत्ता केंद्र से लेकर अनेक राज्यों में है। इसमें स्वाभाविक ही कारपोरेट और व्यापारी वर्ग उसे ज्यादा चंदा दे रहे हैं। वस्तुत: यहां मूल प्रश्न चुनावी और राजनीतिक दलों के लिए चंदे का है। इस बात पर लंबे समय से बहस होती रही है कि राजनीतिक दलों को जो भी चंदा मिले वो पारदर्शी हो। कौन कंपनी या व्यक्ति कितना किस पार्टी को दे रहा है, यह सबके सामने होना चाहिए। पार्टयिों का तर्क यह था कि जो चंदा देने वाले हैं, खासकर व्यापारी नहीं चाहते कि उनका नाम सार्वजनिक किया जाए। वास्तव में यह बहुत बड़ी समस्या रही है। इसके समाधान के लिए चुनाव सुधार के रूप में या राजनीतिक सुधार के रूप में कई कदम आजादी के बाद से उठाए गए पर उनका ज्यादा प्रभाव नहीं हुआ।

नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा 2017 के बजट में चुनावी बॉन्ड की योजना लाने के पीछे भी चुनाव को काला धन से मुक्ति का ही विचार था। सरकार ने 20 हजार तक की नकदी की सीमा को घटाकर दो हजार कर दिया क्योंकि 20 हजार तक चंदा देने वाले का स्रोत बताने की आवश्यकता नहीं थी। चुनाव आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक ने आरंभ में बॉन्ड लेकर आरंभ में कुछ शंका प्रकट की थीं। आज भले उसे उद्धृत कर चुनावी बॉन्ड को निशाना बनाया जा रहा है, किंतु काफी विचार-विमर्श के बाद इसका प्रावधान किया गया था। इसमें चंदा देने वालों को भारतीय स्टेट बैंक में अकाउंट खुलवाना है, जिसमें अपनी पूरी जानकारी देनी है। स्टेट बैंक के पास उनका पूरा रिकॉर्ड है। वह कितने का बॉन्ड खरीद रहे हैं और कौन सी पार्टी के लिए ले रहे हैं यह भी जानकारी है। चंदे की राशि राजनीतिक दल के बैंक खाते में जमा होगी। हां, बॉन्ड पर दानदाता का नाम नहीं होगा। इसके पीछे सोच यही थी कि दलों को गुप्त चंदा तो मिलेगा, लेकिन काले धन के रूप में अज्ञात स्रोत के रूप में नहीं। बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट से मिलता जुलता एक लिखित दस्तावेज होता है। बॉन्ड की बिक्री साल के चार महीने जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में दस दिनों के लिए होती है। आम चुनाव के समय बॉन्ड की खरीदी की सुविधा ज्यादा दिनों तक की गई।
बॉन्ड खरीदने वाले दानदाताओं की बैलेंस शीट में इसका वर्णन होगा। इससे पता चलेगा कि उसने स्वच्छ पैसा किसी दल को चंदा में दिया है। दानदाता को पता होगा कि उसने किस दल को चंदा दिया है, और दल चुनाव आयोग को रिटर्न भरकर देगा। अगर विपक्ष के आरोप के अनुसार इसमें गड़बड़ी हो रही है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। प्रश्न उठता है कि अगर हम चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को खत्म करते हैं तो उसकी जगह चुनावी चंदे के लिए या राजनीतिक दलों के चंदे के लिए कौन सी व्यवस्था खड़ी की जाए? इसका सीधा उत्तर किसी के पास नहीं है। कॉरपोरट ने राजनीतिक दलों और चुनावी चंदे के लिए मिलकर कुछ ट्रस्ट बनाए। उनसे भी चंदा आता है, पर वह भी सफल व्यवस्था नहीं मानी जा रही। वास्तव में आपस में तू-तू-मैं-मैं या गुत्थम-गुत्थी की बजाय सबको यह विचार करना चाहिए कि ऐसी कौन सी व्यवस्था हो, जिसमें खुलकर राजनीतिक दलों को कोई चंदा दे और उसके अंदर कोई भय न रहे। पार्टयिों का पूरा चंदा कहां से आता है, यह भी जानकारी सार्वजनिक हो जाए। यह एक आदर्श स्थिति होगी। यहां तक पहुंचना बहुत कठिन है। जिस ढंग से राजनीतिक प्रतिस्पर्धा राजनीतिक दुश्मनी में बदल गई है, उसमें यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि एक पार्टी को चंदा देने वाले के बारे में दूसरी पार्टी को पता चल जाए तो वह उसके खिलाफ प्रतिशोध के भाव से काम कर सकती है। इस समय चुनावी बॉन्ड के विरोध के पीछे मूल कारण राजनीतिक है। अगर दूसरी पार्टयिां को भाजपा के आसपास चंदा मिला होता तो पार्टयिां इसे मुद्दा नहीं बनातीं। सवाल यह है कि क्या जो राजनीतिक दल बदलाव चाहते हैं वे कम-से-कम खर्च में चुनाव लड़ने को तैयार हैं?
क्या वे पारदर्शी तरीके से चंदा लेने के लिए तैयार हैं और क्या चंदा देने वाले बिल्कुल खुलकर राजनीतिक पार्टयिों को चंदा देने को तैयार हैं? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका समाधान किसी कानून से और किसी सरकारी व्यवस्था से नहीं हो सकता। आप कोई कानूनी ढांचा या व्यवस्था खड़ी कर दे, उससे वैसा आमूल बदलाव नहीं हो सकता, जिसकी राजनीति एवं चुनाव प्रणाली को आवश्यकता है।
यह मुख्यत: राजनीतिक सुधार का विषय है। राजनीतिक दल अपने खर्चे कम करें और चुनाव कम-से-कम खर्च में आयोजित हो जाएं। इसके लिए कोई पार्टी तैयार नहीं। दुर्भाग्य यह है कि राजनीतिक दलों के व्यवहार से आम जनता की मानसिकता का भी विकृतिकरण हुआ है। कोई ईमानदार व्यक्ति, जिसके पास अकूत धन नहीं है, चुनाव में खड़ा होता है तो आम लोग उसका उपहास उड़ाते हैं। जो धन बल के साथ चुनाव में उतरता है, उनकी और लोगों का आकषर्ण भी ज्यादा रहता है। तो एक मतदाता के नाते आम जनता को भी विचार करना चाहिए कि हमको एक ईमानदार, सक्षम और योग्य प्रतिनिधि चाहिए या वो जिनके पास धन की शक्ति है? मतदाता के नाते यह भी विचार करना पड़ेगा कि हम कैसे राजनीतिक दल को मत दें? तो चुनावी स्वच्छता की स्थापना राजनीतिक दलों के साथ आम जनता और मतदाता की भी जिम्मेदारी है। ऐसा वातावरण बनाए जिसमें राजनीति स्वच्छ और पारदर्शी हो? अगर चुनावी बॉन्ड से निकली बहस इस दिशा में जाए तभी कुछ हो सकता है, अन्यथा यह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति तक सीमित रह जाएगा जो साफ दिख रहा है।

अवधेश कुमार


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment