शिक्षा नीति : दलित-आदिवासी कहां?

Last Updated 15 Oct 2019 02:17:15 AM IST

हम देखें कि दलितों व आदिवासियों के लिए अब तक की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां किस रूप में रही हैं। पहला सवाल कि किसे और कब जरूरत होती है नई शिक्षा नीति की।


शिक्षा नीति : दलित-आदिवासी कहां?

पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 में बनी थी। यह शिक्षा नीति राष्ट्र की प्रगति और सुरक्षा के लिए बनी।
राजनीतिक तौर पर देखें तो 1968 का दौर था जब कांग्रेस की नीतियों के विरोध में नई राजनीतिक चेतना का विस्तार हो रहा था। एक खास समय में राजनीतिक स्थितियां भविष्य के लिए गहरे संकेत देती हैं, और उस समय राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली विचारधाराएं भविष्य में अपने को बनाए रखने व मजबूत करने की योजना में लग जाती हैं। शिक्षा का ढांचा अपनी जरूरत के अनुसार पीढ़ियां तैयार करने का कार्यक्रम तय करती हैं। दूसरी शिक्षा नीति तब आई जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या व सिख विरोधी हमलों के बीच आक्रामक हिन्दुत्व का उभार राष्ट्र की अगुवाई करने के लिए तैयार हो गया था। दूसरी तरफ आयातित कंप्यूटर जैसी नई तकनीक पर जोर था। राष्ट्र को बाजार बनाने के इरादे ने शिक्षा को संसाधन में बदल दिया। आक्रामक विचारधारा के ढांचे की मौजूदगी में मानव संसाधन तैयार करने को 1986 की नई शिक्षा नीति आई।
शिक्षा नीतियों में खास बात देखी गई कि पिछली नीतियां घोषणा करती रहीं कि पूर्ववर्ती नीतियां सफल नहीं हुई। 1986 की शिक्षा नीति की भूमिका में बताया गया है, ‘1968 की शिक्षा नीति के अधिकांश सुझाव कार्यक्रम में परिणत नहीं हो सके क्योंकि क्रियान्वयन की पुख्ता योजना नहीं बनी, न ही दायित्व निर्धारित किए गए और न ही वित्तीय व संगठन संबंधी व्यवस्थाएं हो सकीं। नतीजा रहा कि विभिन्न वगरे तक शिक्षा पहुंचाने, उसका स्तर सुधारने, विस्तार करने और आर्थिक साधन जुटाने जैसे महत्त्वपूर्ण काम नहीं हो पाए। आज उन कमियों ने बड़े अंबार का रूप धारण कर लिया है। इन समस्याओं का हल निकालना वक्त की पहली जरूरत है।’

1986 की शिक्षा नीति ने समझदारी दिखाई कि 1968 की शिक्षा नीति से ज्यादा स्पष्टता दिखाते हुए अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति को समावेशी बनाने पर जोर दिया। दलित और आदिवासी तो इस तरह की नीतियों में एक समावेशी पात्र भर होता है। ऐसा लगता है कि समावेशी शब्द नहीं होता तो शायद नीति को राष्ट्रीय कहने में झिझक होती। पहला सवाल तो यह किया जाना चाहिए कि सरकार की किसी भी नीति का आखिर, वह कौन सा हिस्सा होता है जो लागू नहीं हो पाता। पिछड़े, दलितों व आदिवासियों के लिए अपने नेक इरादों को जाहिर करना, उन्हें मतदाता के रूप में लुभाने की मजबूरी हो सकती है, लेकिन उसे जमीनी स्तर तक पहुंचाना राजनीतिक विचारधारा के सामाजिक-आर्थिक आधार यानी सामाजिक-आर्थिक शक्तियों पर निर्भर करता है। उदाहरण से यह समझा जा सकता है। मेरे बचपन के दिनों में जब ब्रिटिश शासन से देश को आजादी मिलने के कुछ वर्ष ही बीते थे तब शाहाबाद जिले के एक गांव में स्कूल खोलने की योजना का ऐलान किया गया। लेकिन वह स्कूल नहीं खुल सका क्योंकि उस गांव के जमींदार ने इसकी इजाजत देने से मना कर दिया।
उलटे पूछा कि जरूरतमंद वर्ग स्कूलों में पढ़ने लगेगा तो उसकी विशाल क्षेत्र में होने वाली खेती के लिए कौन मजदूरी करेगा? देखा जा सकता है कि 1986 की नीति में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए जो कार्यक्रम तैयार किए गए, उनमें भी 2019 में भारी कटौती कर दी गई है। इस तरह कह सकते हैं कि नई शिक्षा नीति में राष्ट्रीय व दलित-आदिवासी दो भिन्न अर्थ के रूप में मौजूद रहे हैं। 2019 में हिन्दुत्व का उभार चरम स्तर पर पहुंच चुका है। 1986 में नागरिकों को मानव संसाधन में तब्दील करने के लिए योजना बनाई गई तो 2014-2019 और उसके बाद 2019-2024 की सरकार फिर से मानव संसाधन मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय बनाने और राष्ट्रीय शिक्षा आयोग जैसे संगठनात्मक ढांचे खड़ा करने के उद्देश्य के साथ नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लेकर सामने आई है। इस उलटफेर का विचारधात्मक आधार एक ही है।
भारत में विरासत में मिली शिक्षा व्यवस्था, उसकी उपलब्धियों के आलोचनात्मक मूल्यांकन के बिना आधुनिक भारत के लिए नई गणतंत्रात्मक शिक्षा व्यवस्था नहीं खड़ी की जा सकती। ज्योति बा फूले व सावित्री बाई फूले जैसों के संघर्ष की पृष्ठभूमि के बिना शिक्षा नीति आकार नहीं ले सकती। नई नीति दरअसल, पुरानी नीतियों का दोहराव होने के साथ उसमें 2019 की राजनीतिक पृष्ठभूमि के प्रभाव को मिश्रित करने का प्रयास भर दिखाई देता है। प्रस्तावित दस्तावेज में स्वीकार किया गया है, ‘आजादी के बाद के दशकों में हम (नई शिक्षा नीति के प्रस्तावक) बड़े पैमाने पर सबके लिए शिक्षा की पहुंच बनाने में व्यस्त रहे हैं, और दुर्भाग्य से शिक्षा की गुणवत्ता पर हमने ध्यान नहीं दिया। पिछली दो नीतियों (राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 एवं 1986) का कार्यान्वयन अभी भी अधूरा है। 1986 के अधूरे एजेंडे को उचित रूप में इस नीति (2019 की नई शिक्षा नीति) में शामिल किया गया है।’ यह स्वीकारोक्ति एक तो यह स्पष्ट करती है कि 2019 की नीति कितनी नई है। दूसरा, नई नीति में जो मिशण्रकिया गया है, उसे नई शिक्षा नीति के प्रस्ताव में इस बयान के साथ समझा जा सकता है, ‘हालांकि कुछ पहलुओं में तरक्की के बावजूद शिक्षा प्रणाली में नीरसता बनी हुई है, जिसमें हमारी प्राचीन परंपराओं के बिल्कुल उलट विद्यार्थियों को उनकी व्यक्तिगत क्षमता के लिए विकसित नहीं किया जाता।’
2019 के लिए शिक्षा नीति और 1986 की शिक्षा नीति की प्रेरक शक्तियां तकनीकी क्रांति रही हैं, न कि विचारात्मक स्तर पर नई आधुनिक और समानता के लिए समाज बनाने की दृष्टि है। 1986 में कंप्यूटर युग का विस्तार था तो 2019 में इंटरनेट की तकनीक का विस्तार है। 2019 का दस्तावेज कहता है-‘1986 की शिक्षा नीति बनने के बाद महत्त्वपूर्ण विकास हुए हैं, जिनने इस समय नई नीति बनाना जरूरी कर दिया है। 1986 की नीति इंटरनेट क्रांति के ठीक पहले तैयार की गई थी, जो तकनीक की क्षमता को पहचानते हुए पिछले कुछ दशकों के आमूल परिवर्तन का अंदाजा नहीं लगा पाई। तब से हम शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए तकनीक को अपनाने के साथ गवन्रेस और शिक्षा में योजना-प्रबंधन में इसके उपयोग को लेकर काफी धीमे रहे हैं, जो काफी घातक रहा है।’

अनिल चमड़िया


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