मीडिया : पाक चैनलों की नकल में

Last Updated 13 Oct 2019 12:13:13 AM IST

गत सप्ताह कुछ अंग्रेजी एंकरों को तीन-तीन बार ‘अंध राष्ट्रवाद’ का दौरा पड़ा। यों तो ऐसा दौरा पड़ा ही रहता है, लेकिन कभी-कभी वह सरसांव तक पहुंच जाता है। इस बार ऐसा ही हुआ।


मीडिया : पाक चैनलों की नकल में

जब भी कोई बड़ी और उत्तेजक खबर या बाइट आती है, और चैनलों पर चर्चा का विषय बनती है तो कुछ एंकर किसी भी घोषित ‘राष्ट्रवादी’ से भी ‘बड़े राष्ट्रवादी’ नजर आते हैं। 
पहला दौरा तब पड़ता दिखा जब विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि ‘राष्ट्रवाद नकारात्मक नहीं होता।’ वे राष्ट्रवाद की सकारात्मक परिभाषा दे रहे थे, जो कहती थी कि बिना किसी घोषित ‘अन्य’ यानी दुश्मन के भी राष्ट्रवाद का विचार संभव है। इसे देख एक एंकर ने सवालिया टैगलाइन लगाई कि भारतीय अधिक ‘राष्ट्रवादी’ होते हैं? और इस तरह से राष्ट्रवाद को ‘जनता के नाम’ कर दिया गया।
दूसरा दौरा तब पड़ा जब एक सौ अट्ठाइस पेज के ‘प्रेरणा’ नामक दस्तावेज के बारे में खबर आई कि  इसके जरिए कांग्रेस के नये कॉडर को दक्ष किया जाएगा ताकि कांग्रेस फिर से जीवित हो सके। कुछ एंकरों ने इस दस्तावेज को भी अपने ‘राष्ट्रवाद’ की पटिया पर जम के धोया। तीसरा दौरा तब पड़ा जब संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि ‘लिचिंग’ भारतीय शब्द नहीं है, इसके बाद ‘लिंचिंग’ सिर्फ ‘सामान्य हिंसा’ जैसी बनकर रह गई। यों सहज राष्ट्रप्रेम या सहज देशप्रेम या राष्ट्रवाद का दावा हर बार गलत नहीं है। लेकिन उसकी ‘अति’ भी कोई भली बात नहीं। इन दिनों तो इसकी ‘अति’ ही अधिक दिखाई देती है, और कई चैनल इस ‘अति’ को अक्सर डंडे की तरह उपयोग में लाते हैं, जिसके जरिए जरा सी शिकायत को, जरा से सवाल को या न्याय की एक प्रार्थना तक को ‘राष्ट्रद्रोही’ या ‘राष्ट्रविरोधी’ करार देते रहते हैं।

इसके लिए हमें कुछ चैनलों के कार्यक्रमों के कुछ हैशटेगों, उनकी बहसों और लिखित लाइनों को देखना चाहिए जैसे कि ‘राफेल का आना’! दशहरे के दिन राफेल को लेने राजनाथ सिंह का पेरिस जाना और वहीं उनका ‘शस्त्र पूजा’ करना। इसकी खबर देते हुए चैनलों ने एक से एक देशभक्ति-वादी लाइनें लगाई  जैसे कि: -राफेल उड़ता है दुश्मन कांपते हैं!-जिसका नाम सुनते ही दुश्मन थर्राने लगता है!-इमरान तू चेत जा अब राफेल आ गया है!-राफेल दुश्मनों का काल!-हमें आंख दिखाओगे तो बहुत पछताओगे! यह सही है कि अपने ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ से प्रेम करना हर आदमी के लिए स्वाभाविक है, लेकिन इस  मामले में कोई कंपटीशन तो नहीं ही हो सकता। यों अधिकांश लोग अपने ‘राष्ट्रप्रेम’ का  ‘प्रदर्शन’ नहीं करते फिरते, लेकिन कुछ उसे नये कपड़े की तरह पहन कर इठलाते दिखते हैं, तो कुछ उसे तलवार की तरह चलाते दिखते हैं। अपने जनतंत्र में कोई सहज ‘राष्ट्रवादी’ हो सकता है तो कोई ‘अंध राष्ट्रवादी’ भी हो सकता है, लेकिन अच्छे प्रोफेशनल पत्रकार या एंकर, अखबार या स्टूडियो में बैठ खबर देते वक्त या चरचा कराते वक्त किसी विशेष विचारधारा के ‘प्रचारक’ नहीं हो सकते।
लेकिन अफसोस कि अधिकाधिक ऐसा ही होता नजर आता है। कई बार एंकरों और रिपोर्टरों की भाषा तक ‘अंध राष्ट्रवादी’ हो उठती है, और कई बार वह इतनी तुर्श नजर आती है कि राष्ट्रवादी राजनीति करने वाले तक खुश नजर आते हैं। कोई राजनीतिक दल राष्ट्रवाद को अपना केंद्रीय विचार बनाता है, उससे अपनी दैनिक राजनीति को परिभाषित करता है, और जो इससे सहमत नहीं हैं उनको ‘राष्ट्रदोही’ मानता है, तो उसे समझा जा सकता है क्योंकि उसकी विचारधारा ही ऐसी है, लेकिन यही चैनलों या एंकरों या रिपोर्टरों का अपना एजेंडा बन जाए तो चिंता की बात है। 
 कहने की जरूरत नहीं कि यह ‘अंध राष्ट्रवाद’ कॉरपोरेट और मल्टी नेशनल कॉरपोरेशंस से समर्थित है। यह ‘अंध राष्ट्रवाद’ उनके दिए विज्ञापनों द्वारा पालित-पोषित नजर आता है। चैनलों में आकर और बार-बार गूंजकर ‘अंध देशप्रेम’ और ‘अंध राष्ट्रवाद’ का यह विचार एक आदर्श ‘पैकेज’ में बदल जाता है, और इस पैकेज में कोई जरा भी ‘कमी’ निकालता है,  उसके दोष बताता है तो उसे तुरंत ‘देशद्रोही’ या ‘राष्ट्रद्रोही’ करार दे दिया जाता है। हमारे कई एंकर आए दिन ऐसा करते रहते हैं। और, राष्ट्रवाद का यह भाव जनता में कितने गहरे बैठ गया है, तब साफ हुआ जब एक चरचा में एक लेखक ने कहा कि भारत की जनता तो ऐसी है कि वह आधी रोटी खा लेगी लेकिन इमरान की इज्जत उतरी कि नहीं यह जरूर देखेगी।आप अगर पाकिस्तानी चैनलों को देखें तो सरफ लगता है कि इस मामले में हमारे चैनल  पाक की ‘अंध राष्ट्रवादी शैली’ की नकल करते हैं, इसलिए और भी दयनीय नजर आते हैं।

सुधीश पचौरी


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