वैदेशिक : ड्राइविंग सीट पर बाजवा
पिछले दिनों पाकिस्तानी सेना चीफ कमर जावेद बाजवा ने कुछ देर के लिए अपनी वर्दी उतारी और संभ्रांत नेता की तरह कराची में पाकिस्तान के जगत सेठों की बैठक लेने पहुंच गए।
वैदेशिक : ड्राइविंग सीट पर बाजवा |
बैठक गुपचुप नहीं हुई, बल्कि आधिकारिक रूप से संपन्न हुई जबकि इससे पहले वे रावलपिंडी में दो बार गुपचुप बैठकें कर चुके थे। इसलिए इस बैठक के बाद कयास लगना शुरू हो गया कि क्या यह बैठक इमरान खान के तख्तापलट का ट्रेलर है?
पाकिस्तान में सामान्य व्यक्ति से लेकर उच्चस्तरीय विश्लेषक तक के जेहन में बैठ चुका है कि पाकिस्तानी सेना इमरान को सत्ता से बेदखल करने की पटकथा लिख रही है। पाकिस्तानी आर्मी चीफ अपना हुलिया ही नहीं बदल रहे हैं, बल्कि मिजाज भी बदल रहे हैं। मिजाज इसलिए बदल रहा है, क्योंकि वे एक डिफैक्टो शासक की तरह काम करने लगे हैं यानी अब पाकिस्तान की ड्राइविंग सीट पर बैठ चुके हैं। गौर से देखें तो यह पाकिस्तान में तख्तापलट या सत्ता हस्तांतरण का एक नरम तरीका है। ऐसा लगता है कि बाजवा कि जनमत को जानने की कोशिश इन मीटिंगों के जरिए कर रहे हैं। विशेषकर उन वगरे के जरिए जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर पकड़ रखते हैं, और बाजार का मर्म पहचानते हैं। जैसे ही उन्हें लगेगा कि बिजनेस क्लास के साथ बाजार और बाजार के साथ जनता का मूड बदल गया है, वे इमरान को पूरी तरह से सत्ताच्युत कर देंगे। अब कुछ सवाल हैं, जिनका उत्तर ढूंढ़ना आवश्यक है। पहला, पाकिस्तान में आखिर बार-बार ऐसा होता क्यों है?
दूसरा, बाजवा किस हद तक जा सकते हैं? तीसरा, बाजवा की इमरान के साथ विदेश यात्राएं और उन देशों के राष्ट्र प्रमुखों व सेना प्रमुखों के साथ मीटिंग आखिर क्या संदेश देती हैं? जहां तक पहले प्रश्न का संबंध है, तो सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में लोकतंत्र सही रूप में कभी जड़ें जमा ही नहीं पाया बल्कि सेना द्वारा नियंत्रित या गाइडेड ही रहा। इस तरह से वहां सेना ‘रियल स्टेट एक्टर’ की हैसियत में रही और इस्लामाबाद का राजनीतिक एस्टैब्लिशमेंट औपचारिक और प्रतीकात्मक एक्टर के रूप में। रही बात बाजवा की कि वे किस हद तक जा सकते हैं, तो इसका एक उदाहरण नवाज शरीफ के रूप में देखा जा चुका है। पाकिस्तानी आर्मी चीफ बाजवा की नियुक्ति शरीफ ने की थी। लेकिन शरीफ को जेल पहुंचाने में बाजवा की ही मुख्य भूमिका रही।
ध्यान रहे कि इमरान की जीत के पीछे पाकिस्तानी आर्मी की ही अहम भूमिका थी क्योंकि आर्मी शरीफ और उनकी पार्टी को न्यायपालिका के जरिए खत्म न करती तो इमरान का इस्लामाबाद जाने का रास्ता कभी साफ नहीं हो पाता। जो लोग पाकिस्तान के जुडिशियल एस्टैब्लिशमेंट और आर्मी के बीच की बॉण्डिंग को पहचानते हैं, वे इस सत्य से भी वाकिफ होंगे कि शरीफ के राजनीतिक कॅरियर को खत्म कराने का कुचक्र यदि पाकिस्तानी आर्मी नहीं रचती तो न्यायपालिका शरीफ के विरु द्ध उस सीमा तक कभी नहीं जाती जिस सीमा तक वह गई।
बाजवा ने आर्मी चीफ बनते ही पाकिस्तानी सैनिकों को संबोधित करते हुए कश्मीर पर आक्रामक रवैया अपनाने को कहा था यानी बाजवा की वरीयतों में सबसे ऊपर कश्मीर था। अब कश्मीर पूरी तरह से उनकी पकड़ से बाहर है। यही नहीं भारत की निगाह अब पीओके पर जम चुकी है लेकिन इमरान कुछ नहीं कर पा रहे जिससे लगे कि पाकिस्तान इस मुद्दे पर किसी प्रकार की कूटनीतिक बढ़त हासिल कर पाएगा। स्वाभाविक है कि पाकिस्तानी फौज एंपायरिंग की बजाय अब स्वयं कप्तानी करने के विकल्प का चयन करेगी। इसकी झलक न केवल बाजवा द्वारा व्यवसायियों की बैठक में मिली है, बल्कि उनके विदेश दौरों में भी दिखी। जहां तक घरेलू नीतियों का प्रश्न है, तो कारोबारियों की मीटिंग में कारोबारियों की बाजवा से मांग थी कि वे जल्द से जल्द निवेश बढ़ाने के बारे में विचार करें ताकि अर्थव्यवस्था की कमियों को दूर किया जा सके। स्पष्ट है कि पाकिस्तान के कारोबारियों को इमरान सरकार से ज्यादा सेना पर भरोसा है। इतिहास गवाह है कि 1958, 1969, 1977 और 1999 का जब सेना ने चुनी हुई सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया था। खास बात यह है कि सेना लोकतांत्रिक सरकारों को आर्थिक संकट और भ्रष्टाचार के नाम पर ही उखाड़ फेंकती रही है।
कुल मिलाकर बाजवा ड्राइविंग सीट पर बैठने का उत्सुक दिख रहे हैं, और यह पाकिस्तान के लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है।
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