केरल : छात्राओं पर ही रोक क्यों?

Last Updated 26 Sep 2019 06:00:28 AM IST

केरल हाई कोर्ट ने अपने एक महत्तवपूर्ण फैसले में हाल ही में माना कि ज्ञान हासिल करने के लिए छात्र-छात्राओं के माध्यम और तरीकों पर रोक लगाकर अनुशासन नहीं थोपा जाना चाहिए।


केरल : छात्राओं पर ही रोक क्यों?

साफ कहा, इंटरनेट का इस्तेमाल करना संविधान प्रदत्त अनुच्छेद 21 के तहत शिक्षा के अधिकार और निजता के अधिकार का हिस्सा है। साथ ही उस छात्रा को कॉलेज हॉस्टल में फिर प्रवेश देने का निर्देश दिया, जिसे मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर रोक-टोक का विरोध करने पर निकाल दिया गया था।

अपने फैसले में जस्टिस पीवी आशा ने कहा, संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद ने पाया है कि इंटरनेट का इस्तेमाल करना मौलिक आजादी है। शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने का भी जरिया है। ऐसा कोई भी नियम या निर्देश जो छात्रों के इस अधिकार को नुकसान पहुंचाता है, उसे कानूनन इजाजत नहीं दी जा सकती। जाहिर है अदालत ने अपने फैसले में जो कुछ भी कहा, उसमें कोई भी बात कानून से इतर नहीं है। फैसला पूरी तरह से संविधान के दायरे में है।

लड़कियों के संवैधानिक अधिकारों के हक में है। लड़कियों के साथ लैंगिक भेदभाव करने वाला यह हास्यास्पद और बेतुका मामला केरल स्थित कोझिकोड के श्री नारायणगुरु कॉूेज का है। कॉलेज प्रबंधन ने हॉस्टल में इसे लागू किया था कि हॉस्टल की छात्राओं को रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक अपने मोबाइल फोन और लैपटॉप वार्डन के पास जमा करने होंगे। कॉलेज के तुगलकी फरमान का बीए दूसरे वर्ष की छात्रा फाहीमा शिरीन ने विरोध किया। जिस पर उसे कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया।

फाहीमा ने हॉस्टल से निकाले जाने को अदालत में चुनौती देते हुए याचिका दाखिल कर दी। याचिका में अपना पक्ष रखते हुए कहा, ‘हॉस्टल का नियम, उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, निजता की स्वतंत्रता और शिक्षा के अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। याचिकाकर्ता ने अदालत का इस तथ्य की तरफ भी ध्यान दिलाया कि इस तरह की पाबंदियां केवल लड़कियों के छात्रावास में ही लगाई गई हैं, लड़के इसके दायरे में नहीं हैं।

बॉयज हॉस्टल में इस तरह की कोई पाबंदी नहीं है। ये सीधे-सीधे लड़कियों के साथ लैंगिक भेदभाव है। याचिकाकर्ता की दलील थी कि हॉस्टल के नियमों ने ‘यूजीसी विनियम, 2012’ का उल्लंघन किया है। याचिकाकर्ता ने अपने पक्ष को ओर मजबूत करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के ‘श्रेया सिंघल बनाम भारत सरकार’, ‘एनडी जयल बनाम भारत सरकार’ और ‘जस्टिस पुट्टुस्वामी बनाम भारत सरकार’ मामलों का हवाला दिया, जिसमें शीर्ष अदालत ने अपने फैसलों में नियमों के उल्लंघन को निजता के अधिकार का उल्लंघन माना था।

बहरहाल, हाई कोर्ट ने दोनों पक्षों की सुनवाई के बाद अपने आदेश में कहा, ‘मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर पाबंदी और पढ़ाई के घंटों में इसे जमा करवाने का निर्देश पूरी तरह से गैरजरूरी है। कॉलेज प्रबंधन को अनुशासन लागू करते वक्त मोबाइल फोन के सकारात्मक पहलू भी देखना चाहिए।’  
कोई पहली मर्तबा नहीं है, जब लड़कियों की सुरक्षा के नाम पर किसी विश्वविद्यालय प्रबंधन ने नाजायज बंदिशें लगाई हों। ऐसा ही एक मामला, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय का भी था, जहां विश्वविद्यालय प्रबंधन ने छात्रावासों में रहने वाली छात्राओं को रात आठ बजे के पहले लौट आने का फरमान जारी किया था। प्रबंधन की अपने आदेश के हक में  दलील थी कि यह कदम छात्राओं के हित को देखते हुए उठाया गया है।

छात्राओं के साथ जाने-अनजाने कोई अनहोनी न हो, लिहाजा उन पर यह बंदिश लगाई गई है। दोनों मामलों में एक बात समान है, इस तरह के दिशा-निर्देश महज लड़कियों के लिए जारी किए गए, लड़कों के लिए नहीं। एक लिहाज से देखें तो ये दिशा-निर्देश लैंगिक भेदभाव को बढ़ाने वाले हैं। कॉलेज प्रबंधन का आदेश यूजीसी के उस नियम का भी उल्लंघन है, जिसमें कहा गया है कि शिक्षण संस्थान लिंग के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं करेगा। महिलाओं के साथ भेदभाव का परिचायक है कि उनके पक्ष में तमाम संवैधानिक उपबंध और कानून बनने के बाद भी समाज अपनी पुरुष प्रधान मानसिकता बदलने को तैयार नहीं। जब तक यह मानसिकता नहीं बदल जाती, तब तक समाज में कोई बड़ा बदलाव आएगा, इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है।

जाहिद खान


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