अस्पृश्यता : लड़ाई अभी समाप्त नहीं

Last Updated 23 Sep 2019 04:13:45 AM IST

कर्नाटक के चित्रदुर्ग से भाजपा सांसद नारायणस्वामी का नाम अचानक सुर्खियों में आया। वजह उनके अपने लोक सभा क्षेत्र के गांव पेमनाहल्ली में उनके प्रवेश पर लगी कथित पाबंदी से है।


अस्पृश्यता : लड़ाई अभी समाप्त नहीं

दरअसल, नारायणस्वामी जब इस गांव में विकास कार्यों का जायजा लेने के लिए पहुंचे तो गांववालों ने एकत्रित होकर उनका विरोध किया। पिछड़ी जाति बहुल इस गांव में उन्हें बताया गया कि वह दलित हैं और उनका गांव में प्रवेश परम्परा के खिलाफ होगा।
अभी यह नहीं बताया जा सकता कि छुआछूत के इस स्पष्ट आचरण को लेकर क्या गांववालों के खिलाफ अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून, 1989 के तहत कोई कार्रवाई हुई है या नहीं या मामले को रफा-दफा कर दिया जाएगा। एक सांसद के साथ बरते गए छुआछूत के आचरण की जब खबर आ रही थी, उसी दिन उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में अस्पृश्यता का एक अधिक क्रूर एवं हिंसक रूप सामने आ रहा था। मोनू नामक एक दलित युवक को अन्य जाति के एक परिवार ने जिन्दा जला देने की घटना उजागर हो रही थी, मालूम हो कि मोनू का उस जाति की एक युवती से प्रेम था और यही बात लोगों को नागवार गुजर रही थी। एक ही देश के अलग अलग हिस्सों से आ रही यह खबरें निश्चित ही अपवाद नहीं हैं। आए दिन ऐसी ही खबरें आती रहती हैं और मन मस्तिष्क में कोई असर तक नहीं छोड़तीं। हकीकत यही है कि भारत के गणतंत्र घोषित किए जाने के साथ अस्पृश्यता पर भले पाबंदी लगा दी गई हो (26 जनवरी 1950), लेकिन वह आज भी कई स्तरों पर बनी हुई है। विडम्बना यही है कि सरकारें खुद भले ही अपने समाज की धवल छवि पेश करना चाहें, मगर वह इस तथ्य की अनदेखी करती हैं कि यह मसला महज अब भारत/दक्षिण एशिया के चुनिंदा मुल्कों तक सीमित नहीं है। जहां भी भारतीय गए हैं, वहां उन्होंने जाति के घेटटो से जनित मूल्यों मान्यताओं का प्रदर्शित किया है। दिलचस्प यह है कि इन खबरों का फोकस वहां रह रहे भारतीय और उनमें आज भी पाई जाती जातिगत भावना से था।

ब्रिटेन से आई खबर में बताया गया था कि किस तरह वहां रोजगार एवं सेवाओं को प्रदान करने के मामले में दक्षिण एशिया से आने वाले लोग जातिगत भेदभाव का शिकार होते हैं। ब्रिटिश सरकार के ‘समता विभाग’ की तरफ से किए गए इस सर्वेक्षण में यही पाया गया था कि किस तरह वहां रह रहे लगभग पांच लाख एशियाई लोगों में यह स्थिति नजर आती है, जिसके लिए विशेष कदम उठाने की जरूरत है। अमेरिका की सिलिकॉन वैली  में तो कई भारतवंशियों ने अपनी मेधा से काफी नाम कमाया है। मगर जब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रमों की पुनर्रचना होने लगी, तब हिन्दू धर्म के बारे में एक ऐसी आदर्शकृत छवि किताबों में पेश की गई, जिसका हकीकत से कोई वास्ता नहीं था। अगर इन किताबों को पढ़कर कोई भारत आता तो उसके लिए न अस्पृश्यता का सवाल उपस्थित था, न जाति अत्याचार कोई मायने रखता था, न स्त्रियों के साथ दोयम व्यवहार। जाहिर है हिन्दू धर्म की ऐसी आदर्शीकृत छवि पेश करने में रूढ़िवादी किस्म की मानसिकता के लोगों का हाथ था, जिन्हें इसके वर्णन मात्र से भारत की बदनामी होने का डर सता रहा था। अंतत: वहां सक्रिय सेकुलर हिन्दोस्तानियों को, अम्बेडकरवादी समूहों और अन्य मानवाधिकार समूहों के साथ मिल कर संघर्ष करना पड़ा और तभी पाठ्यक्रमों में उचित परिवर्तन मुमकिन हो सका।
यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि अपने यहां जिसे परम्परा के नाम पर महिमामंडित करने में हम संकोच नहीं करते हैं, उच्च-नीच अनुक्रम पर टिकी इस पण्राली को मिली दैवी स्वीकृति की बात करते हैं, आज भी आबादी के बड़े हिस्से के साथ (जानकारों के मुताबिक) 164 अलग-अलग ढंग से छुआछूत बरतते हैं। वही बात अगर किताब में दर्ज हो तो वह हमें अपमान क्यों मालूम पड़ती है? अस्पृश्यता की आज भी चली आ रही उपस्थिति बरबस हमें डॉ. आम्बेडकर की ऐतिहासिक रचना ‘जातिभेद का विनाश’ की याद ताजा करती है, जिसमें ग्राम चकवारा का विशेष उल्लेख है। किताब में वह बताते हैं कि किस तरह राजस्थान के इस गांव चकवारा के दलितों को अच्छे-अच्छे घी में बने पकवान खाते देख कर इस गांव के वर्ण समाज के लोग क्षुब्ध हुए थे और उन्होंने संगठित रूप से भोजन कर रहे दलितों पर हमला कर उनके पकवानों में मिट्टी डाली थी। सवाल उठता है कि इक्कीसवीं सदी में जबकि भारत विश्व शक्ति बनने के इरादे रख रहा है, वहां उसका प्रवेश इन्हीं दोनों दुनिया के साथ होने वाला है, या इन दो सत्ताओं से मुक्त होकर वह आगे बढ़ने का इरादा रखता है।

सुभाष गाताडे


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