निरक्षरता का कलंक धोने में लीपापोती
शिक्षा सभ्य, सक्षम और सुदृढ़ समाज की आधारशिला होती है। किसी भी देश के विकास के स्तर को शिक्षा यानी साक्षरता के प्रतिशत से ही आंका जाता है।
निरक्षरता का कलंक धोने में लीपापोती |
संस्कृत की सूक्ति है ‘विद्यां ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम’ मतलब विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता आती है। शिक्षा के इसी महत्त्व को ध्यान में रखते हुए यूनेस्को यानी संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन द्वारा घोषित 8 सितम्बर को ‘विश्व साक्षरता दिवस’ विश्व भर में मनाया जाता है।
गौरतलब है कि सात वर्ष से अधिक आयु वर्ग के एक व्यक्ति, जो किसी भी भाषा में किसी भी समझ से पढ़ और लिख सकता है, को साक्षर माना जाता है। साक्षरता अभियान राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना के तहत चलाया था। गांधी का सपना था कि भारत में कोई निरक्षर न रहे। भारत में संसार की सबसे अधिक अनपढ़ जनसंख्या निवास करती है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की साक्षरता दर 75.06% है। भारत में उच्चतम और सबसे कम साक्षरता दर के बीच का अंतर बहुत अधिक है। केरल में साक्षरता दर सबसे ज्यादा 94% है, जबकि बिहार में सबसे कम 64% है। भारत में निरक्षरता शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच व्यापक अंतराल है। निरक्षरता से निपटने के लिए सरकार के कई प्रयास किए गए हैं। शिक्षा की राष्ट्रीय नीति 1986, ने घोषित किया कि पूरे देश को निरक्षरता खत्म करने के कार्य में विशेष रूप से 15-35 आयु वर्ग के लोगों के प्रति वचनबद्ध होना चाहिए। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन 1988 में अस्तित्व में आया और साक्षरता प्रयास में समुदाय के सभी वर्गों को शामिल करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। 1992 शिक्षा नीति ने भारत की 21वीं सदी में प्रवेश करने से पहले 14 वर्ष की उम्र तक सभी बच्चों को संतोषजनक गुणवत्ता के लिए स्वतंत्र और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की परिकल्पना की। सुप्रीम कोर्ट ने 1993 के अपने फैसले में कहा था कि बच्चों को मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार है। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने संविधान (83वें संशोधन) विधेयक, 2000 को अपनी सहमति दे दी और ‘शिक्षा का अधिकार’ संविधान में मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया।
विडंबना है कि आज भी हमारे नेताओं और लोगों के प्रतिनिधियों ने साक्षरता को कम से कम प्राथमिकता दी है, गरीबी उन्मूलन, भोजन, कपड़े, आश्रय, काम, स्वास्थ्य आदि इसके ऊपर हैं। देश की निरक्षता को सरकारों की कुछ बड़ी असफलताओं में माना जाए तो अतिशयोक्ति नहीं है। ‘एजुकेशन फॉर ऑल ग्लोबल मॉनिटिरंग रिपोर्ट’ में बताया गया है कि 1991 से 2006 के बीच भारत में साक्षरता दर 48 से बढ़कर 63 हो गई। लेकिन जनसंख्या वृद्धि के कारण यह बदलाव दिखाई ही नहीं दिया। गरीब और अमीर भारत का फासला शिक्षा और आर्थिक असमानता में स्पष्ट रूप से देखा जाने लगा है। देश में अमीर और गरीब में बहुत ज्यादा फासला है। यह तेजी से बढ़ रहा है। इसका असर शिक्षा पर भी देखने को मिल रहा है। एक तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुकी महिलाएं हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी जगह बनाई है तो दूसरी ओर ऐसे लाखों बच्चे हैं, जिन्हें प्राथमिक शिक्षा का मूल अधिकार भी नहीं मिल पा रहा। न केवल सरकार, बल्कि हर साक्षर नागरिक को निरक्षरता के दानव से जूझने में योगदान करना चाहिए। हमारा आदर्श वाक्य होना चाहिए ‘प्रत्येक एक को सिखाना’, अगर हम वास्तव एक विकसित देश बनना चाहते हैं या अपने देश को बनाना चाहते हैं तो आवश्यकता है कि हमें अशिक्षा को रोग के तौर पर देखें और इसे जड़ से खत्म करने में जुट जाएं।
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