मुद्दा : विचार का डर
तोल्सतोय की अमर कृति, ‘वार एंड पीस’ की गिनती विश्व क्लासिक में होती है, जिसका भारत में भी लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
मुद्दा : विचार का डर |
ऐसी रचना के संबंध में किसी से भी यह सवाल पूछना कि, ‘किसी और देश के युद्ध के बारे में किताब तुमने अपने घर पर क्यों रखी हुई थी’ बेशक, चौंकाने वाला है। यह सवाल तब और भी चौंकाता है, जब हम इसके साथ यह जानकारी जोड़ते हैं कि यह सवाल, भीमा-कोरेगांव/यलगार परिषद प्रकरण के सिलसिले में, माओवादी-समर्थक होने के आरोप में एक साल से जेल में बंद, सामाजिक कार्यकर्ता वरनन गोंजाल्वेस की जमानत की सुनवाई के दौरान न्यायाधीश द्वारा पूछा गया था।
न्यायाधीश महोदय ने यह स्पष्ट करते हुए कि उन्होेंने यह सवाल कोई चलते-चलते यूं ही नहीं कर दिया था। गोंजाल्वेस के वकील को बाकायदा यह निर्देश भी दिया कि अपनी बहस के हिस्से के तौर पर अपने मुवक्किल के घर से पकड़ी गई किताबों और अन्य दस्तावेजों की सफाई पेश करें। बेशक, यह पूरा प्रसंग तब और भी चौंकाता है, जब हम इस पर गौर करते हैं कि उक्त प्रश्न, माननीय बांबे हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति, सारंग कोतवाल ने किया था। स्वाभाविक है कि इसीलिए, इस प्रसंग पर चौतरफा टीका-टिप्पणी हुई है।
वैसे इस प्रसंग में एक बात और गौर करने वाली है। हालांकि कानूनी प्रक्रिया की सामान्य अपेक्षा के अनुरूप, न्यायमूर्ति कोतवाल ने सरकारी पक्ष को इसका निर्देश देना तो जरूरी समझा कि आरोपपत्र के हिस्से के तौर पर बताएं कि पकड़े गए दस्तावेजों, सीडी आदि सामग्री में क्या है, जो अभियुक्त का दोष सिद्ध करता है? लेकिन ‘युद्ध और शांति’ के आपत्तिजनक होने को लेकर वह परम् निश्चिंत थे! बेशक, इस प्रसंग के अगर गहरे निहितार्थ नहीं होते, तो इसे मान्य न्यायाधीश के साहित्य-अनपढ़ होने का मामला मानकर छोड़ा जा सकता है। भारत में राजनीतिक-कार्यपालिका और प्रशासन से लोगों की उम्मीदें जितनी घटती गई हैं, नागरिक के लिए इकलौती शरण के रूप में मजबूरी में न्यायपालिका के गिर्द उतना ही आभामंडल जमा होता है। वर्ना यह एक अघोषित किंतु सब की जानी-मानी सचाई है कि हमारे देश में कम-से-कम निचले स्तर पर तो न्यायाधीशों की सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का ही नहीं, खुद कानून की शिक्षा का भी स्तर, आम तौर पर काफी दरिद्र ही है। वास्तव में पिछले कुछ अर्से में ही अलग-अलग हाईकोटरे के न्यायाधीशों द्वारा अपने न्यायिक निर्णयों से लेकर सार्वजनिक वक्तव्यों तक में मोरों के आंसुओं से संतानोत्पत्ति करने से लेकर, भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करने की जरूरत और ब्राrाणों की ‘श्रेष्ठता’ तक के जैसे दावे चर्चा में आए हैं, उनसे साफ हो जाता है कि हाईकोटरे के स्तर पर भी सब ठीक-ठाक नहीं है। उच्च न्यायपालिका के स्तर पर भी न्यायमूर्ति कोतवाल अकेले नहीं हैं, जिन्हें वास्तव में ‘शिक्षा’ शब्द के हिंदी वाले अर्थ में शिक्षित किए जाने की जरूरत है! मगर यह सिर्फ विश्व साहित्य से परिचित होने न होने का मामला नहीं है। यह उससे बढ़कर, एक समाज के रूप में जिंदा बने रहने के लिए, विचार की और उसके एक महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में किताबों की जरूरत को जानने और मानने का भी मामला है। न्यायमूर्ति कोतवाल इससे अनजान हैं कि ‘युद्ध और शांति’ क्या कहती है? उन्हें इसकी परवाह भी नहीं है। उनके लिए सिर्फ इतना जानना काफी है कि वह किसी विदेशी युद्ध के संबंध में है और उनके हिसाब से ऐसी किताब तो आपत्तिजनक ही हो सकती है। हो सकता है कि युद्ध के प्रसंग के चलते उन्हें रामायण और महाभारत का किसी के घर पर पाया जाना भी ऐसे ही आपत्तिजनक लगतार्।
आखिरकार, भीमा-कोरेगांव/ यलगार परिषद प्रकरण के आरोपी सामाजिक कार्यकर्ताओं पर, मूलत: ‘वैचारिक रूप से’, भारतीय राज्य के खिलाफ ‘युद्ध’ चलाने का ही तो आरोप है! इसीलिए, उनके खिलाफ साक्ष्यों के नाम पर कुछ झूठे-सच्चे दस्तावेजों, किताबों, सीडी आदि के सिवा और कुछ नहीं है। किंतु क्या यह सिर्फ ‘युद्ध’ की संज्ञा के इस्तेमाल कर के ‘विचार’ को ही अपराध बना दिए जाने का मामला नहीं है? नरेन्द्र मोदी के राज में गढ़ी गई ‘अरबन नक्सल’ या ‘वैचारिक माओवादी’ जैसी संज्ञाएं, एक बराबरी के और न्यायपूर्ण समाज के विचार को ही अपराध बना देती हैं। संविधान के रहते हुए, अगर सिर्फ ‘विचार’ के लिए जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद रखा जा सकता है, तो यह भारतीय न्यायपालिका की विफलता को ही दिखाता है। पर विचारों को न कोई जेल कैद कर सकती है और न कोई सजा मार सकती है। चट्टान की संदूकों में से दूब की तरह फूट पड़ते हैं विचार। मुझे तो तोल्सतोय की हंसी सुनाई दे रही है, और आपको!
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