सुरक्षा परिषद : जो हुआ, होना ही था
पाकिस्तान कह रहा है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जम्मू-कश्मीर मसले पर चर्चा उस्की कूटनीतिक विजय है।
सुरक्षा परिषद : जो हुआ, होना ही था |
वस्तुत: यह खबर जैसे ही आई कि सुरक्षा परिषद जम्मू-कश्मीर पर अनौपचारिक चर्चा के लिए तैयार हो गई है, तो पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने इसे ऐतिहासिक उपलब्धि बता दिया। उनका कहना था कि सुरक्षा परिषद कश्मीर मुद्दे पर 40 साल बाद चर्चा करने को राजी हुआ है। इसके पहले कश्मीर पर अनौपचारिक चर्चा 1971 में हई थी।
प्रश्न है कि इससे हुआ क्या? क्या भारत की स्थिति में कोई बदलाव आ गया? क्या किसी देश ने बैठक के बाद कहा कि भारत ने जम्मू-कश्मीर में बदलाव करके गलत किया है? क्या सुरक्षा परिषद ने कोई बयान दिया? भारत ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने तथा उसे केंद्र-शासित प्रदेश में बदलने का जो निर्णय किया है, वह यथावत है और रहेगा। प्रधानमंत्री इमरान खान को अपने देश में जम्मू-कश्मीर को लेकर भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा है। इस घटनाक्रम को अपने अनुकूल प्रचारित करने से उन्हें थोड़ी राहत मिली है अन्यथा व्यवहार में तो पाकिस्तान ने मात खाई है। पाकिस्तान ने सुरक्षा परिषद का आपातकालीन सत्र बुलाने की मांग की थी। चीन ने उसका साथ दिया। चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है जिसकी मांग का असर होना है। किंतु परिषद के अध्यक्ष पोलैंड के जोना रॉनेका ने बंद कमरे की अनौपचारिक मंतण्रा की स्वीकृति दी। पाकिस्तान ने अर्जी दी कि मामला उससे जुड़ा है, इसलिए उसके प्रतिनिधि को बात रखने की इजाजत दी जाए और चीन ने इसका समर्थन किया। यह भी स्वीकार नहीं किया गया। इसके लिए उसे 15 सदस्य देशों में से नौ सदस्यों का समर्थन चाहिए था। चीन के अलावा कोई अन्य देश उसके साथ नहीं आया।
चीन ने सलाह दी थी कि बैठक के बाद घटनाक्रम के बारे में अनौपचारिक घोषणा परिषद के अध्यक्ष जोएना रोनिका करें। चीन को किसी दूसरे देश का समर्थन नहीं मिला। इसलिए पाकिस्तान के विदेश मंत्री का दावा हास्यापद है कि हमें कश्मीर मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में सफलता मिल गई। वस्तुत: भारत की शांत कूटनीति चीन-पाक चाल को विफल करने में सक्रिय थी। भारत वहां समझाने में सफल रहा कि जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक बदलाव उसका आंतरिक मामला है, जिसका अंतरराष्ट्रीय समुदाय से कोई सरोकार नहीं है। पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन वहां आतंकवाद फैलाते हैं, जिसे देखते हुए सुरक्षा सख्त है लेकिन धीरे-धीरे ढील दी जा रही है। भारत की छवि विश्व में जिम्मेवार और संयत राष्ट्र की है। परिषद के ज्यादातर सदस्य देशों से हमारे गहरे संबंध हैं। इसका असर हुआ। चीन ने भले मानवाधिकारों की बात क ही जिसे अन्य देशों ने नकार दिया।
वैसे भारत की कूटनीति सक्रिय थी लेकिन बैठक को हमारे राजनीतिक नेतृत्व ने महत्त्व नहीं दिया। कारण यह है कि हाल के वर्षो में अनौपचारिक चर्चा बार-बार होने लगी है। सुरक्षा परिषद के सदस्य बंद कमरे में बातचीत करते हैं, और इनकी जानकारी बाहर नहीं आती। न मीडिया को प्रवेश मिलता है, न रिकॉर्ड रखा जाता है। वैसे भी सुरक्षा परिषद का एक स्थायी सदस्य रूस खुलकर भारत के साथ आ गया था। उसने बयान दिया था कि हमारा मत है कि भारत ने अपनी संविधानिक प्रक्रियाओं के तहत फैसला किया है। इस पर द्विपक्षीय बातचीत तो होगी लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप की इसमें कोई गुंजाइश नहीं है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री ने रूस के विदेश मंत्री से 14 अगस्त को संपर्क किया था। इस पर आधिकारिक बयान में रूस ने कहा कि पाकिस्तान और भारत के बीच मतभेद सुलझाने का विकल्प नहीं है, सिवाय द्विपक्षीय बातचीत के। फ्रांस ने ऐसी घोषणा तो नहीं की लेकिन साफ हो गया था कि वह भारत का साथ देगा। यूरोपीय संघ के दूसरे सदस्यों ने भी भारत के खिलाफ नहीं जाने का संकेत दिया।
संयुक्त राष्ट्र भी दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था। स्वयं इमरान खान का डोनाल्ड ट्रंप से बातचीत करने के बावजूद अमेरिका रु चि लेने को तैयार न हुआ। अंतत: पाकिस्तान की इज्जत बचाने के लिए वह अनौपचारिक बैठक पर राजी हो गया। तो कुल मिलाकर यह है इस बैठक की पृष्ठभूमि, चरित्र, सदस्य देशों का रुख एवं परिणति। हालांकि बैठक के बाद संयुक्त राष्ट्र में चीन के दूत जियांग जून ने मीडिया से बातचीत में दावा किया कि सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर गंभीर चिंता जताई। इसके आगे किसी ने क्या कुछ कहा, इसकी जानकारी वे न दे सके। कोई सदस्य कुछ बोला होता तो चीन अवश्य इसे सामने रखता क्योंकि बैठक का सूत्रधार वही था। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरु द्दीन ने मीडिया के साथ बातचीत में भारत का पक्ष रखा। साबित किया कि पाकिस्तान को किस तरह मुंह की खानी पड़ी है। हालांकि उनका स्वर कुछ सफाई देने जैसा था। मसलन, जम्मू-कश्मीर के हालात और सुरक्षा व्यवस्था को लेकर। भारत ने जब ऐतिहासिक और साहसी फैसला किया है, तो बयानों से भी यह संदेश निकलना चाहिए कि उसे सफल बनाने के लिए वह दृढ़ता और संकल्प के साथ लगा है। यह हमारा सुरक्षा आकलन होगा कि हमें कब स्थिति के सामान्य होने की घोषणा करनी है। अकबरु द्दीन ने कहा भी कि एक देश जेहाद का इस्तेमाल कर रहा है, हिंसा भड़काई जा रही है।
बहरहाल, इस घटनाक्रम का दूसरे नजरिए से भी विश्लेषण करना होगा। शाह महमूद कुरैशी चीन से गुहार लगाई थी। तब चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों तथा चार्टर के अनुसार इसका निदान हो। भारत को शंका थी कि चीन कुछ करेगा। पाक अधिकृत कश्मीर के साथ उसका हित जुड़ा है। वह चीन-पाक आर्थिक गलियारा के तहत भारी निवेश कर रहा है। लद्दाख की सीमा को विवादित मानता है। उसकी पूरी रणनीति सीमा विवाद बनाए रखने पर है। चीन को भान है कि यह बदला हुआ भारत है जो यहीं नहीं रु केगा। आगे पाक अधिकृत कश्मीर को भी पाने का कदम उठाएगा। इसलिए उसके विरुद्ध पाकिस्तान के साथ मिलकर घेरेबंदी करनी होगी। तात्पर्य यह कि चीन आगे भी भारत के सामने समस्याएं पेश करेगा। मानकर चलना चाहिए कि हमारी सरकार इसके लिए कमर कस चुकी होगी। अंतरराष्ट्रीयकरण से न चिंतित होने की आवश्यकता है, न विचलित होने की। हमें इसके लिए भी तैयार रहना होगा कि पूरी दुनिया खिलाफ हो जाए तब भी जम्मू-कश्मीर को लेकर हमारा संकल्प वही रहेगा, जो आज है।
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