वैदेशिक : बंटती हुई दुनिया
दुनिया इस समय ऐसे विभाजनों और खेमेबंदियों के साथ आगे बढ़ रही है जिन्हें माइक्रोस्कोपिक नजर से देखने की जरूरत है।
वैदेशिक : बंटती हुई दुनिया |
चूंकि इन विभाजनों में हिंद-प्रशांत और फारस की खाड़ी भी शामिल होंगे और दुनिया की बड़ी ताकतें इन्हें लेकर निर्णायक स्थिति तक जा सकती हैं, इसलिए भारत को इन पर निगहबानी रखने की जरूरत होगी।
हमें बार-बार बताया जा रहा है कि अमेरिका और चीन लड़ रहे हैं, लेकिन क्या सच यही है? यदि हां तो उनके असल मुद्दे क्या हैं-सिर्फ व्यापार संबंधी या सामरिक भी। अमेरिका और चीन के बीच इस लड़ाई में भारत कहां पर है यानी परिधि के बाहर या परिधि के अंदर? चूंकि अब इसमें एक तीसरा पहलू भी जुड़ रहा है यानी पाकिस्तान, इसका अर्थ हमें समझने की जरूरत है। दरअसल, अमेरिका और चीन के बीच जो टकराव दिख रहा है, वह सामान्य तौर पर ट्रेड, टैरिफ और टैक्नोलॉजी को लेकर है। लेकिन सीधी-सी दिखने वाली इस लड़ाई के पीछे असल पक्ष कुछ और भी हैं। एक वजह तो दोनों देशों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं हैं, या उनका साम्राज्यवादी चरित्र। ध्यान रहे कि अमेरिका फारस की खाड़ी या फिर संपूर्ण मध्य-पूर्व में और हिंद-प्रशांत में पॉलिसी रीसेट के दौर से गुजर रहा है। यही वजह है कि कभी भारत की तरफ हाथ फैलाता है, तो कभी पाकिस्तान की पीठ थपथपाता है। कभी भारत के साथ हिंद-प्रशांत में ‘स्ट्रैटेजिक ट्रैंगल’ का निर्माण करता है, जिसका उद्देश्य चीन को घेरना है, तो कभी ‘बेल्ड एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई)’ के लिए ज्वाइंट फंड निर्मिंत कर चीन को खुश करने की कोशिश करता है। इस स्थिति में भारत के लिए जरूरी है कि रीयल पॉलिटिक के आधार पर आगे बढ़े और साझेदारी करे।
डोनाल्ड ट्रंप ‘अमेरिका फस्र्ट’ के जरिए अमेरिका में अपनी जगह पक्की कर रहे हैं, लेकिन इसे लेकर अमेरिका के कुछ परंपरागत मित्र भी असहमत हैं। ऐसे में अमेरिका को कुछ नये मित्र चाहिए। भारत उनमें एक हो सकता है। वैसे भी भारत को ‘मेजर डिफेंस पार्टनर’ का दरजा देकर तथा ‘लिबोर एग्रीमेंट’ कर अमेरिका इस दिशा में आगे बढ़ चुका है। लेकिन भारत अमेरिका से पूरी तरह से डिक्टेट नहीं हो सकता। इसलिए ट्रंप मित्रता के साथ-साथ दबाव की रणनीति पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। उनका नया पाकिस्तान प्रेम इसी की बानगी है। दूसरी तरफ शी जिनपिंग का चीन को ‘एडवांस्ड सोशलिस्ट कंट्री’ बनाने का मंत्र दे रहे हैं, जो 2049 तक दुनिया की सबसे बड़ी सैनिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताकत के रूप में चीन की प्रतिष्ठा कराएगा। यह न केवल अमेरिका बल्कि पूरी दुनिया को डरा रहा है। यही कारण है कि पश्चिमी दुनिया चीन के साथ चल भी रही है, और शंका भी कर रही है। चीन चाहता है कि दक्षिण एशिया में भारत उसका अहम साथी बने।
सवाल उठता है कि अमेरिका और चीन के बीच लड़ाई किस तरह की है, और भारत को उसे किस नजरिए से देखना चाहिए? क्या अमेरिका सिर्फ व्यापार घाटे को कम करने के लिए चीन से युद्ध लड़ सकता है? नहीं। अमेरिका पिछले 40 साल से चीन के मुकाबले व्यापार घाटे में है। बस इतना कह सकते हैं कि दोनों देशों के बीच निवेश सीमा और टैक्नोलॉजी ट्रांसफर जैसे मुद्दे लड़ाई की वजह हो सकते हैं, लेकिन देश की जनता को इनसे सीधे तौर पर कुछ लेना-देना नहीं होता। असल पक्ष है कि चीन की कई योजनाएं दुनिया को आश्चर्यचकित करने के साथ-साथ डरा भी रही हैं। पहली है बीआरआई, जो चीन को ग्लोबल सॉफ्ट पावर बना सकती है। दूसरी है ‘मेड इन चाइना 2025’। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की इस योजना का लक्ष्य चीन को नई तकनीकों का केंद्र बनाना है। इसमें एयरोस्पेस, टेलिकम्युनिकेशंस, रोबोटिक्स, बायोटेक्नोलॉजी और इलेक्ट्रिक गाड़ियों की तकनीक भी शामिल हैं। यह व्यापार और बौद्धिक संपदा के लिए लंबी जंग का कारण बन सकती है।
बहरहाल, एक नई किस्म की लामबंदी दुनिया में देखी जा सकती है, जो नये शीतयुद्ध का भय दिखा रही है। चूंकि अनिश्चितता बढ़ रही है, इसलिए नये युद्धों की आशंकाएं भी बढ़ रही हैं। जम्मू-कश्मीर पर भारतीय संसद के निर्णय के बाद पाकिस्तान अमेरिका और चीन के और निकट पहुंचता दिख रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र में चीन के राजदूत झांग जुन का यह बयान, कि कश्मीर में बहुत खतरनाक स्थिति होने जा रही है, बेहद गंभीरता से समझने योग्य है, इसे समझना होगा।
| Tweet |