मीडिया : मनोवैज्ञानिक युद्ध के बीच

Last Updated 18 Aug 2019 05:48:37 AM IST

हम सब चाहते हैं कि ‘जम्मू-कश्मीर’ खुल जाए और हम सबके मन में आशंकाएं भी हैं कि जब खुलेगा तो क्या होगा? हमारे मीडिया ने एक ऐसा ही कश्मीर बनाया है, जिसे हम खुला भी देखना चाहते हैं, और परेशान भी होते हैं।


मीडिया : मनोवैज्ञानिक युद्ध के बीच

जाहिर है कि इन दिनों हम एक ‘मनोवैज्ञानिक युद्ध’ के बीच हैं। सरकार ने भी कह दिया है कि शनिवार को लैंडलाइन फोन खोल दिए जाएंगे और इंटरनेट सेवाओं के साथ स्कूल-कॉलेज भी खोल दिए जाएंगे। कुछ दिन पहले कश्मीर को कवर कर रहे एक अंग्रेजी चैनल के रिपोर्टर ने श्रीनगर के एक वृद्ध से पूछा कि कश्मीर की स्थिति क्या है, तो वह बोला कर्फ्यू खोल दीजिए। फिर देखिए क्या होता है। यह डरावना वक्तव्य ही था, जिसे चैनल ने उसी अर्थ में दिखाया था। अन्य कई चैनलों ने इससे कुछ भिन्न-सा दिखाया। लोग कहते कि सरकार ने कर्फ्यू लगा रखा है, इससे बड़ी परेशानी हो रही है।
विपक्ष का भी एक बड़ा हिस्सा यही कह रहा है कि कर्फ्यू हटाइए। नेताओं की नजरबंदी खत्म कीजिए। कहने की जरूरत नहीं कि यह सभी की आम जिज्ञासा है। इसलिए मीडिया में कोई न कोई यह सवाल अवश्य उठाता है कि कब तक बंद रहेगा कश्मीर? श्रीनगर के वे इलाके कब खुलेंगे जिनको ‘अति संवेदनशील’ कहा जाता है, और तब क्या होगा?
कुछ विघ्न-संतोषी सोचते हैं कि वहां के नाराज लोग सड़कों पर निकलेंगे और सरकार का विरोध करने लगेंगे। जब सरकार के रहते हुए युवा पत्थरबाजी करते थे और आतंकवादी कहीं भी फट जाते थे तो अब न जाने क्या होगा और अंतत: इस निरंकुश सरकार को मालूम हो जाएगा कि उसका यह कदम एकदम ‘गलत’ और ‘जनविरोधी’ है। अनेक लोग सरकार की ‘कच्ची’ चाहते हैं ताकि अपनी लाइन को सही सिद्ध कर सकें। आज के मीडिया-सेवी समय में आप किसी समाज को बहुत दिनों तक टीवी, मोबाइल और इंटरनेट सेवाओं से वंचित नहीं रख सकते। सूचना की आवाजाही पर आप जितना ही अधिक अंकुश लगाते हैं, लोगों को जितना सूचना-वंचित रखते हैं, उतना ही अफवाहें बढ़ती हैं, और अफवाहें उन्माद फैलाती हैं, और उन्माद अंधता पैदा करता है। जब मीडिया-सेवाएं खुलेंगी तब क्या होगा? इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है।

सोशल-मीडिया की समूह बनाने और उनको सक्रिय करने की आंदोलनकारी क्षमता से परिचित लोग अच्छी तरह जानते हैं कि एक बार मोबाइल-इंटरनेट खुले तो जबर्दस्त विरोध होगा। दबी हुई आवाजें जब निकलेंगी तो कहां जाकर ठहरेंगी? उधर, बहुत से लोग सोचते हैं कि पक्के इरादे वाली मजबूत सरकार है पीछे नहीं हटने वाली। धीरे-धीरे स्थिति बहाल करेगी ताकि सब नियंत्रण में रहे और उसकी फजीहत न हो।
सरकार के पक्षकार कहते हैं कि कश्मीर की समस्या कभी न कभी तो हल होनी थी। नई मजबूत सरकार ने इसे कर दिखाया क्योंकि यह सरकार न समस्या ‘पालती’ है, न ‘टालती’ है, बल्कि निपटाने में यकीन करती है। अब तक सरकारों में हिम्मत न थी। इसमें हिम्मत है, सो कर दिया। आखिर, एक लगातार रिसते और खतरनाक होते जा रहे नासूर को कब तक सहते रहते? किसी को तो उसका ऑपरेशन करना था। ऑपरेशन के लिए ‘एनेस्थेसिया’ दी जाती है। कश्मीर में ‘अनिश्चित काल के लिए’ लागू की गई दफा 144 और तज्जन्य ‘प्रतिबंध’ एक प्रकार का एनेस्थेसिया ही है ताकि ऑपेरशन के दौरान मरीज को  तकलीफ महसूस न हो और वह ठीक हो जाए।
लेकिन ऐसा सोचने वाले लोग भी मन ही मन चिंतित होंगे कि जब खुलेगा तो पता नहीं क्या होगा? क्या पाकिस्तान यों ही हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा? क्या नाना प्रकार के अंदरूनी और बाहरी आतंकवादी तत्व चुप रहेंगे? क्या जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा और आईएसआईएस के मॉड्यूल घात लगाए न बैठे होंगे कि जैसे ही खुले हम ऐसी स्थिति पैदा कर दें जिससे आजिज आकर प्रशासन कोई ‘गलती’ कर बैठे और वो मीडिया के जरिए दुनिया को बता सकें कि भारत सरकार कितनी दमनकारी है।
संसद की बहसों, मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में चलते पिछले बीस-पच्चीस दिनों के कवरेज और चरचाओं ने यह बात नीचे तक साफ कर दी है कि अनुच्छेद 370 अस्थायी व्यवस्था थी, जिसे हटना ही था और जब भी हटती कुछ न कुछ ऊंच-नीच तो होनी ही थी। शनिवार की मीडिया रिपोर्ट बताती हैं कि लैंडलाइन वाले फोन खोल दिए गए हैं, और सोमवार तक स्कूल-कॉलेज खोल दिए जाएंगे। फिर भी सवाल उद्विग्न करता है कि आगे क्या होगा? यह एक ऐसा नया मनोवैज्ञानिक युद्ध है, जो जमीन से अधिक लोगों के दिमागों में लड़ा जा रहा है।

सुधीश पचौरी


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