सामयिक : इस लोकतंत्र को क्या कहिए!

Last Updated 16 Aug 2019 03:48:35 AM IST

आजाद भारत में ‘लोकतंत्र’ या कहें ‘संसदीय लोकतंत्र’ का ऐसा नजारा अब तक की पीढ़ियों ने नहीं देखा होगा।


सामयिक : इस लोकतंत्र को क्या कहिए!

चुने हुए प्रतिनिधि सत्ता पाने को ऐसे लालयित हों कि उन्हें न मर्यादाओं की फिक्र है, न उस जनता की जिसके वोट से वे सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बने हैं। विचारधारा तो कहां सूख गई और उस पर सत्ता के ‘रियल स्टेट’ वालों का ऐसा दखल हो गया कि उसकी जमीन भी ढूंढें नहीं मिलती। दलगत मर्यादाएं और जनता से किए वादे तो मानो सब ‘जुमले’ हैं।
विधानसभाओं से लेकर लोक सभा, हर सदन का सदस्य मौका पाते ही सत्ता पक्ष में बैठने को तैयार है। शर्म-हया को उतार फेंकने की दलीलें तो ऐसी हैं कि कठदलीली भी बेचारी धरती में समा जाए। हाल के नजारे ही देख लीजिए। गोवा में दस कांग्रेसी विधायकों ने एकमुश्त पाला बदल लिया। न उन्हें इस  फिक्र ने सताया कि जनता, जिसने उन्हें भाजपा के प्रतिनिधियों के खिलाफ वोट देकर विधानसभा में भेजा, क्या सोचेगी? न भाजपा के माथे पर शिकन हुई कि उसके पार्टी के स्थानीय नेता या कार्यकर्ता क्या कहेंगे। कर्नाटक का उदाहरण भी सामने है। लोक सभा और राज्य सभा में तो गजब का नजारा है। तेलुगू देशम के तीन राज्य सभा सदस्य भाजपा में शामिल हो गए। न उन्हें यह शर्म आई कि वे राज्य के प्रतिनिधि हैं, और अगर आंध्र प्रदेश में भाजपा के विधायक नगण्य हैं तो वे कैसे राज्य सभा में भाजपा के सदस्य हो सकते हैं! न भाजपा को इसकी फिक्र है, न तेलुगू देशम को ही लगा कि यह संविधान के विरुद्ध है तो उसे चुनौती दी जाए। कांग्रेस के तो उप-सचेतक ही भाजपा में पहुंच गए। ये तो मात्र कुछ नमूने हैं। याद करेंगे तो न जाने कितने घटनाक्रम याद आ जाएंगे जो आजाद देश में लोकतंत्र और संवैधानिक मर्यादाओं को ध्यान में रखने वालों को बेचैन कर सकते हैं। लेकिन यह बेचैन होने का नहीं, बल्कि नई हकीकत से रू-ब-रू होने का वक्त है।

लोकतंत्र और संविधान सब कुछ बहुमत, सत्ता तथा धनबल की ताकत के शरणागत हैं। यहां तक कि संविधान की मर्यादाओं पर अमल के लिए जो संस्थाएं बनाई गई थीं, शायद उन पर भी भरोसा नहीं रह गया। या फिर कोई और आशंका है, जो बाकी बचे विपक्ष को भी कानूनी हस्तक्षेप तक हासिल करने से विरक्त कर रही है। मसलन, तेलुगू देशम ही अपने राज्य सभा सदस्यों के भाजपा में शामिल होने को इस आधार पर चुनौती दे सकती थी कि राज्य में भाजपा के विधायक ही नहीं हैं तो राज्य सभा में उसके सदस्य कैसे हो सकते हैं। संवैधानिक मर्यादाओं पर गौर करने वाली संस्थाओं को भी देखना चाहिए था कि यह महज दल-बदल कानून की धाराओं के न लागू होने का ही मामला नहीं है। लेकिन कहीं इन बातों पर विचार करने की फुर्सत नहीं दिखती।  सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीर में मीडिया ब्लैकआउट पर कश्मीर टाइम्स की जनहित याचिका की फौरन सुनवाई से इनकार कर दिया जबकि यह होता हुआ सभी देख रहे हैं।  अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इसकी तीखी आलोचना हो रही हैं। एडीटर्स गिल्ड भी इसके खिलाफ बयान जारी कर चुका है। खैर! सुप्रीम कोर्ट की अपनी वजहें हो सकती हैं लेकिन इससे लोगों का भरोसा डिगता है।
सवाल यह भी अहम है कि संवैधानिक संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों का मौजूदा रवैया क्या जन-प्रतिनिधियों को जनता से वादाखिलाफी और सत्ता-तंत्र का हिस्सा बनने को उतावला बना रहा है? हाल में एक टीवी रिपोर्टर ने एनडीए की पहली सरकार में वित्त मंत्री और विदेश मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा से पूछा कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने और राज्य को दो केंद्र-शासित प्रदेशों में बांटने का बहुजन समाज पार्टी, तेलुगू देशम और आम आदमी पार्टी ने भी क्यों फौरन समर्थन जाहिर कर दिया? सिन्हा का जवाब था, सरकारी एजेंसियों का डर दिखाया जाएगा और संवैधानिक संस्थाओं से राहत की उम्मीद नहीं रह जाएगी तो ऐसा होना लाजिमी है। तो, सवाल है कि क्या अब यह संसदीय लोकतंत्र अपने मायने खो चुका है? चुनाव क्या लोकतंत्र का प्रहसन बनकर रह गए हैं? सत्ता-बल और धन-बल उस विकराल सांड की तरह सब कुछ चकनाचूर करने पर उतारू हैं? गौर कीजिए, संसद में कही देश के लिए अहम बातों के भी कोई मायने नहीं रह गए हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर और अक्साई चिन के बारे में गृह मंत्री ने कहा कि जान देकर भी उनकी रक्षा करेंगे। लेकिन विदेश मंत्री ने चीन के विदेश मंत्री को वचन दिया कि जम्मू-कश्मीर के फैसले का नियंत्रण रेखा या वास्तविक नियंत्रण रेखा पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा यानी उस दिशा में कोई पहल नहीं होगी। तो, संसद अगर ऐसे अस्पष्ट, छलावापूर्ण बयानों की जगह बन जाए और उसे कहीं चुनौती न दी जा सके, तो इसे क्या कहेंगे? जम्मू-कश्मीर के ही मामले में जो कुछ हुआ, उसे लोकतांत्रिक और संवैधानिक तरीका तो नहीं ही कहा जा सकता।
याद दिलाने की दरकार नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों की भी यह अवमानना सरीखा है लेकिन बहुमत है तो क्या फर्क पड़ता है। सबसे डरावना पहलू यह है कि राज्य के अधिकार और संघीय व्यवस्था पर जोर देने वाले दल भी अपनी पुरानी बातों का मान नहीं रख पा रहे हैं। हो सकता है, उन्हें डर हो कि उनकी अपनी ही पार्टी के लोग उन्हें छोड़कर जा सकते हैं। बहरहाल, इस पूरे किस्से का सबसे डरावना पहलू यह है कि देश अब पूरी तरह एकदलीय व्यवस्था में तब्दील होता दिख रहा है। इस साल और अगले साल कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। भाजपा को शायद ही कहीं चुनौती मिले जबकि अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है। यह एकदलीय व्यवस्था भी ऐसी है कि किसी जनप्रतिनिधि की कोई अहमियत नहीं रह गई है। उसे सिर्फ सत्ता के फायदे मिलने हैं।
देश का भाग्य सिर्फ दो केंद्रीय व्यक्तियों के हाथ में है। यह तो जॉर्ज आरवेल के मशहूर उपन्यास एनिमल फॉर्म जैसा होगा, जहां नेता कभी-कभार आदमी की तरह तो अधिकतर समय सूअरों की तरह आचरण करते दिखते हैं। यह तर्क भी डरावना है कि निर्वाचित होने के बाद सब धुल जाता है। याद रहे, हिटलर भी चुनकर ही आया था और कौरवों ने द्रौपदी के चीरहरण को पांडवों को नेस्तनाबूद करने का आखिरी हल समझा था। खैर! वाकई देश बदल रहा है, और उसी के साथ हमारा लोकतंत्र, संविधान, इतिहास, भूगोल सब बदल रहा है।

हरिमोहन मिश्र


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