मेडिकल जांच के नाम पर जारी अत्याचार

Last Updated 18 Aug 2019 05:37:22 AM IST

यह उन दिनों की बात है जब अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे जब निर्भया/दामिनी के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद हजारों-लाखों लोगों ने अपने क्षोभ का इजहार किया था, और उसके कुछ समय बाद अत्याचार की शिकार गुड़िया को इंसाफ दिलाने के लिए हजारों हाथ उठे थे।


मेडिकल जांच के नाम पर जारी अत्याचार

उन्हीं दिनों राजधानी की सात लड़कियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पत्र भेज कर अपनी पीड़ा एवं तकलीफ को बयां किया था। इन बच्चियों ने मांग की थी कि अब मेडिकल जांच के नाम पर किसी पीड़िता को डॉक्टर के हाथों ही फिर फिंगर टेस्ट का शिकार न होना पड़े।
इस पत्र पर एम्स के फॉरेन्सिक मेडिसिन के एक प्रोफेसर की प्रतिक्रिया गौरतलब थी ‘अगर स्त्री की जननेद्रियों से पुरुष की इंद्रिय का स्पर्श भी बलात्कार में शुमार किया जाता है, तो ऐसे परीक्षण को क्या कहेंगे।’ लगभग सात साल पहले लिखे गए इस पत्र की याद ताजा हो गई जब खबर मिली कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2013 में इस पर पाबंदी लगाए जाने के बावजूद यह परीक्षण आज भी बदस्तूर है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को ऐसी तमाम पीड़िताओं की तरफ से पत्र लिखा गया है, और उसमें ‘उन डॉक्टरों के लाइसेंस रद्द करने की मांग की है जो शीर्ष अदालत की पाबंदी के बावजूद शर्मिदगीपूर्ण दो उंगलियों वाला परीक्षण करते हैं।’ यौन हिंसा की शिकार 12 हजार से अधिक पीड़िताओं और उनके परिजनों के मंच ‘राष्ट्रीय गरिमा अभियान’ की ओर से दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित कार्यक्रम में बताया गया कि बलात्कार की करीब 1500 पीड़िताओं और उनके परिजनों की ओर से यह पत्र लिखा गया है।

याद रहे कि लिलू/राजेश बनाम हरियाणा राज्य सरकार /2013/ के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि ‘टू फिंगर टेस्ट असंवैधानिक है, वह बलात्कार उत्तरजीवी/पीड़िता की निजता, शारीरिक और मानसिक गरिमा का उल्लंघन करता है।’ आखिर क्या होता है पीवी टेस्ट या फिंगर टेस्ट? पीड़िता की मेडिकल जांच के नाम पर डॉक्टर अपनी उंगली/फिंगर के जरिए पीड़िता के यौनांग की जांच करके यह प्रमाणपत्र जारी करता है कि वह ‘सहवास की आदी’ थी या नहीं, फिर जिसे मुकदमे में एक प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है।
जिन दिनों यह मामला सुर्खियों में था, उन दिनों ‘ह्यूमन राइट्स वॉच’ नामक संगठन द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट ‘डिग्निटी ऑन ट्रायल’ प्रकाशित हुई थी। यौन अत्याचार अन्वेषण के तरीकों में आज भी मौजूद मध्ययुगीन पैमानों को उजागर करती इस रिपोर्ट ने विचलित करने वाला तथ्य पेश किया था कि किस तरह आज भी अदालती फैसलों या उसकी पूर्वपीठिका बनती अदालती कार्रवाइयों में पीड़िता के चरित्र/चाल-चलन या उसके यौनिक अनुभव का मसला परोक्ष/अपरोक्ष रूप से विद्यमान है, जिसको लेकर तीस साल पहले ही लंबे संघर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने दिशा-निर्देश दिए थे। कुछ समय पहले की बात है जब महाराष्ट्र यूनिर्वसटिी ऑफ हेल्थ साइंसेंस ने ‘फारेंसिक मेडिसिन एंड टॉक्सिकालोजी’ के अपने पाठ्यक्रम को संशोधित करने के दौरान, ‘कौमार्य के लक्षण’ वाला अध्याय ही हटा दिया है अर्थात् आने वाले समय में वह मेडिकल के छात्रों को विवादास्पद हो चुके वर्जिनिटी टेस्ट अर्थात टू फिंगर टेस्ट जैसे परीक्षणों को नहीं शामिल करेगा। लेकिन प्रश्न उठता है कि सभ्य समाज कहे जाने वाले हम आखिर कब तक आंखों पर पट्टी बांधे रहेंगे?

सुभास गताडे


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