मीडिया : मीडिया और कश्मीर
पिछले पखवाड़े के दौरान कश्मीर को लेकर मीडिया में जितना सतत कवरेज आया है, उतना एकमुश्त कभी नहीं आया।
मीडिया : मीडिया और कश्मीर |
सरकार ने, संसद ने और मीडिया ने कश्मीर के मुद्दे को सबका मुद्दा बना दिया है। हर खबर, हर बहस में वह है। चलते-चलते भी आप किसी से चरचा करते हैं, तो कश्मीर बीच में आ ही जाता है, और अगर आप सावधानी से बात न करें तो या तो आप पल भर में देशभक्त, मोदीभक्त या संघी या भाजपा वाले बताए जा सकते हैं, या फिर देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही घोषित किए जा सकके हैं। इस मानी में कश्मीर के कई ‘रूप’ और ‘मानी’ हैं।
एक कश्मीर हमारा जो निर्विवाद है, तो एक कश्मीर वह भी है जो विवादास्पद है, झगड़े की जगह है जिस पर तीन-चार परिवारों ने साठ-सत्तर साल से कब्जा कर रखा था। इसी तरह एक कश्मीर आतंकियों और पत्थरबाजों का है, तो एक कश्मीर बक्करवालों और गुज्जरों का भी है, और एक कश्मीरी पंडितों का भी है, जिनको आतंकवादियों ने रातोंरात कश्मीर से भगाया था। फिर एक कश्मीर सरकार का है, और एक संसद और संविधान का है, और अब जब अनुच्छेद 370 हट चुका है, तो एक हमारी कल्पनाओं में बार-बार बनता-बिगड़ता कश्मीर है, जो अचानक हम सबके लिए खुल गया है, उपलब्ध हो गया है। कभी-कभी लगता है कि अब सब कुछ ठीक हो जाना है। 370 हट चुका है। अब उसको विकास की मुख्यधारा में आ जाना है। ‘टूरिस्ट स्पॉट’ और ‘तीर्थ स्पॉट’ से बढ़ कर तेज विकास वाले इलाके में बदल जाना है, जिसकी इकनॉमी पर सिर्फ तीन-चार परिवारों का हक न होगा बल्कि भारत के अन्य इलाकों की तरह हर आदमी का बराबर का दावा होगा। प्रॉपर्टी खरीदी-बेची जा सकेगी। लोग वहां बस सकेंगे। जो बाहर निकाल दिए गए वे वापस जा सकेंगे और पाकिस्तान घुसपैठ कर किसी को तंग न कर सकेगा। न आतंकी हाफिज सईद की चलेगी, न मसूद अजहर की चलेगी।
लेकिन कभी-कभी ऐसी आशंका भी सताने लगती है कि कहीं कश्मीर नियंत्रण से बाहर न हो जाए। कहीं और भी बुरी हालत में न पहुंच जाए, और जैसा कि राजद सांसद मनोज झा ने कहा है कि कहीं ‘पैलेस्टाइन’ न बन जाए, कहीं वहां के लोग नाराज होकर अधिक उग्र न हो जाएं और कहीं वह एक नये युद्ध क्षेत्र में न बदल जाए..। पूरा देश कभी आशा, कभी आशंका में झूलता नजर आता है। ऐसा दुविधा और विभक्ति का अनुभव कभी नहीं हुआ। लेकिन जिस वक्त हम ऐसा सोच रहे होते हैं, उसी वक्त यह खयाल भी आता है कि ऐसा नहीं है। माना कि कश्मीर एक समस्या है, लेकिन उसे सुलझाया किया जा सकता है। सत्ता में संघ और भाजपा हैं, जिनके घोषणापत्र का संकल्प यह भी है कि अनुच्छेद 370 हटाया जाए। इसलिए, अगर कश्मीर का मुद्दा अब न सुलझा तो कब सुलझेगा? संसद के जरिए 370 को हटाना, मोदी और भाजपा के जिगरे का ही काम था। कुछ शुरुआती तनाव रहेंगे और वहां वालों को कुछ दिन और परेशानियां रहेंगी। इसके बाद सब कुछ ठीक हो जाना है। इसके बावजूूद हमें बहुत से ‘विघ्न-संतोषी’ किस कदर चाहते हैं कि कुछ ऐसा हो जाए कि भाजपा का दांव उल्टा पड़े। सरकार को लेने के देने पड़ जाएं। इन विघ्नसंतोषियों में मीडिया का एक हिस्सा भी शामिल है, लेकिन उनकी ऐसी ‘कामना’ फलवती नहीं दिखती। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भरोसा देने लगा है कि पिछले आठ-दस दिन की मनोवैज्ञानिक कशमकश के बाद अब चीजें ठहरने लगी हैं, और विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा भी धीरे-धीरे समझने लगा है कि जो हुआ सो ठीक हुआ। आखिर 370 तो एक अस्थायी व्यवस्था ही था, और अगर इस इलाके का विकास करना है तो 370 को हटना ही था। किसी को तो रिस्क लेनी थी। किसी को तो जुआ खेलना था। भाजपा ने दांव लगा दिया। अब देखते हैं कि क्या हो सकता है।
कभी यही कश्मीर एक ‘टूरिस्ट स्पॉट’ और फिल्मों के शूट के लिए आकषर्क ‘आउटडोर’ रहा है। ‘जंगली’, ‘कश्मीर की कली’ और ‘जब जब फूल खिले’ ने उसे धरती के स्वर्ग की तरह पेश किया है। आम जनता के मन में बना कश्मीर ऐसा ही कश्मीर है, जिसमें छुट्टी मनाने जाया जा सकता है। शम्मी कपूर की तरह बरफ के बीच फिसल कर जोर से ‘याहू’ गाया जा सकता है। लेकिन वह कश्मीर सन् पचास-साठ का कश्मीर है। अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद हमें कौन-सा कश्मीर चाहिए? क्या अब भी पचास-साठ वाला कश्मीर चाहिए या उससे कुछ अधिक वाला चाहिए? कश्मीर को लकर ‘याहू’ बहुत कर लिया, उसे अपनी ‘सैरगाह’ से अधिक समझिए। उसे आगे भी आने दीजिए!
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