दखल : मुस्लिम समाज का भारतीयकरण

Last Updated 11 Aug 2019 12:19:00 AM IST

दुनिया के एक बड़े इतिहासकार-चिंतक टोनी जूड्त ने बीसवीं सदी के बारे में लिखते हुए 2008 में महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की है कि दुनिया बीस साल पहले से इतनी अलग हो चुकी है कि हम भूल चुके हैं कि यहां तक हम कैसे आए हैं।


दखल : मुस्लिम समाज का भारतीयकरण

हमारे इतिहासबोध पर मिथक हावी हो गए हैं। वे कहते हैं कि हमें इतिहासबोध को छोड़ना नहीं चाहिए। इसकी जरूरत है।  आज से 77 साल पहले, 9 अगस्त, 1942 को गांधी ने अपने देश के लोगों का जब आह्वान किया था तो उन्हें अंदाजा नहीं था कि पांच साल के अंदर ही उन्हें कहना पड़ेगा कि ‘हमने मानवता को खो दिया है’ और ‘सब कुछ ईश्वर के हाथ में ही होता है, मनुष्य बस प्रयास कर सकता है’। उस दौर में भारत के राष्ट्रीय स्वप्न को एक धक्का सांप्रदायिक उन्माद से मिला। इसने भारत को हिला दिया। धर्म के आधार पर उत्पन्न राजनैतिक शक्ति का मुकाबला भारत का यह राष्ट्रवाद नहीं कर पाया और अंतत: भारत को बांट दिया गया। गांधी समेत भारतीय नेतृत्व विभाजन को नहीं मानता था। बंटवारा शरीर का नहीं हो सकता, यह वे दुहराते रहे। दूसरी ओर, मो. अली जिन्ना-लियाकत अली जैसे लोग देश को जमीन की तरह बांटने के सिद्धांत पर चले और इस आधार पर ही लोगों को समझाने में सफल रहे।

भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने नहीं माना, लेकिन बंटवारा हुआ तो धार्मिंक आधार पर ही। हिंदू और मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते तो हम कैसे अंग्रेज वायसराय को दोष दे सकते हैं, 1947 में गांधी ने यह कहा था। अपनी जगह को न छोड़ने के गांधी के आह्वान को हिंदू और मुसलमान, दोनों न मान पाए और भीषण दौर सीमा के दोनों ओर देखा गया। सही है कि काठियावाड़, जहां गांधी जन्मे थे, बांटने के विचार पर वह सहमत नहीं हुए थे। कश्मीर में भी कुछ ले-देकर बांट लेने का वे विरोध करते हैं।  जिस राष्ट्रवाद का स्वप्न भारतीय राष्ट्रवाद ने दो ढाई दशकों में तैयार किया था, उसमें देश का बंटवारा किसी भी तरह से स्वीकार्य नहीं था। लेकिन बंटवारा हुआ और उसी नेतृत्व को इसे स्वीकार करना पड़ा। ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के आह्वान पर जो शुरू हुआ उसके बाद अंग्रेज तो छोड़ गए पर देश के दो टुकड़े हो गए और राष्ट्रवाद का वह समावेशी स्वप्न तत्वत: बिखर गया।
नेहरू के नेतृत्व में नये भारत ने राष्ट्रवाद के स्वप्न को बचाए रखने की इस आधार पर कोशिश की कि भारत में रह रहे लोग-हिंदू और मुसलमान-सभी इस देश को अपना मानकर आगे बढ़ेंगे। उन्होंने बहुत सारे समझौते भी किए। इस देश के मुसलमान इस देश में रहे, कश्मीर भी भारत के साथ जुड़ा और लगा कि नेहरू सफल हो गए। लेकिन 1970 के आते न आते देश में राजनीति की एक दूसरी धारा, जो हिंदू राष्ट्रीय राजनीति के सिद्धांत पर आधारित थी, ने जोड़ पकड़ा और धीरे-धीरे इसने कभी हिंदू और कभी राष्ट्रीय के रूप को राजनीतिक क्षेत्र में इस तरह रखा कि यह राजनीति में कांग्रेस के मुकाबले खड़ी हो गई। आज यह देश को संचालित कर रही है।
जिसे हम हिंदू राष्ट्रवादी कहते हैं, उसके भीतर दो तरह की धाराएं हैं-एक को उदार हिंदूवादी (मालवीय) धारा और दूसरी को उग्र (सावरकर) धारा। पहले वाले लोग कांग्रेस के भीतर से उभरे थे और दूसरी धारा उसके मुकाबले में। अंग्रेजों ने सावरकर वाली धारा को हिंदुओं के राजनैतिक नेतृत्व के रूप में स्वीकार नहीं किया। जब देश छोड़ कर जाने लगे तो मामले को कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच में तय कर गए। हिंदू राष्ट्रवाद राष्ट्रीय क्षितिज पर नहीं आ सका पर कांग्रेस के भीतर हिंदू हित की बात करने वालों के साथ उनका संपर्क बना रहा। बाद में विभाजन के दौर में हिंदू हित की बात को आधार मिला। हिंदू महासभा और आरएसएस के नजदीक आने के बाद बने जनसंघ ने इस हिंदू राष्ट्रीय संकल्प को राजनैतिक धरातल पर प्रभावी ढंग से रखा। बलराज मधोक सावरकर की धारा के थे। हिंदू हित की राजनीति के आधार पर बढ़ना चाहते थे। दूसरी ओर, साठ के दशक में एक उदार राष्ट्रवादी हिंदू नेतृत्व वाजपेयी-आडवाणी के रूप में उभरा जिसने मधोक की लाइन को किनारे कर दिया। यही नेतृत्व 1975 के बाद अधिक मुखर हुआ। 1977 के बाद सत्ता में आने के बाद इसे विस्तार मिला। उसके बाद की कहानी में मोड़ तब आया जब आडवाणी के नेतृत्व में रथयात्रा शुरू हुई। इसने बीजेपी को देशव्यापी आधार दिया। नरेन्द्र मोदी के उत्थान के साथ इस आंदोलन को जोड़कर देखा जा सकता है।
देश में हिंदुओं के साथ अन्याय होता है, विश्व के एकमात्र देश जहां हिंदू इतनी बड़ी संख्या में रहते हैं (नेपाल को छोड़कर) वहां भी मुसलमानों पर सरकार का ध्यान अधिक रहता है ताकि उनका राजनैतिक समर्थन मिलता रहे। यह बात दशकों से कही जा रही थी, लेकिन 1990 के बाद इस प्रचार को जन समर्थन मिलने लगा। सेक्युलरिज्म को निशाने पर लाया गया और इसकी ओट में मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया जाने लगा। राजनीतिक ध्रुवीकरण के आधार के रूप में धर्म एक बार फिर उभर आया। गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन के ठीक पचास साल बाद अयोध्या विवाद ने देश में जनांदोलन का रूप ले लिया। आखिरकार, मस्जिद को तोड़ दिया गया। 1992 और 1914 के बीच भारत में नये भारत का एक दूसरा स्वप्न/प्रोजेक्ट बना जिसे नये मध्य वर्ग ने निर्मिंत किया है। यह 1920 और 1930 के उस मध्य वर्ग से भिन्न था, जिसने समावेशी राष्ट्रवाद को विस्तार दिया था। यह वैीकरण का दौर था और इसमें अतीत-वर्तमान के बीच का संबंध वर्तमान के संदर्भ से अधिक संचालित था। लोग बेहतर भौतिक जीवन जीना चाहते थे। एक तरह से यह पूरे विश्व में अमेरिकी जीवन शैली के विस्तार का युग था। साथ ही, इसी समय ‘सभ्यताओं के युद्ध’ का बोध आया, खाड़ी युद्ध हुए और इसी के साथ सारी दुनिया में इस्लाम के नाम पर लामबंदी का युग आया। लगा मानो इस्लाम का एक तालिबानी संस्करण पूरी दुनिया को तबाह कर देगा। इस दौर में कश्मीर में जो हुआ उससे भी देश में खूब चर्चाएं हुई। गोधरा कांड, गुजरात के दंगे, मुंबई अटैक, पार्लियामेंट पर हमला.. और यह सिलसिला चलता रहा।
ऐसे दौर में मोदी को हिंदू राष्ट्रवादी की ओर से विकल्प के रूप में उभारा गया। मोदी ने इस ऐतिहासिक मौके पर पूरी ताकत से अपने को देश के नव निर्माण के संकल्प के साथ जोड़ दिया। इस संकल्प से बुद्धिजीवी का जोड़ न बना पर जनता और मध्य वर्ग का बन गया। जनता ने मोदी को ताकत दी। इस नई ताकत के साथ अब हिंदू राष्ट्रवादी स्वप्न ने समावेशी राष्ट्रवादी स्वप्न को हटाने की बात सोची है। इसी क्रम में वे ‘एक देश एक विधान’ जैसे लोकप्रिय नारे के साथ अनुच्छेद 370 हटाने के लिए आगे बढ़े। वे सावरकर के हिंदू राष्ट्र के मूल संकल्प के साथ हैं कि इस देश में जो रहेगा, उसे हिंदू अपने को मानना होगा, भले ही उसका धर्म जो भी हो। मोटे तौर पर यह भारतीय मुसलमान को स्वीकार करता है, मुसलमान भारतीय को नहीं। मुसलमान अपने को पहले मुसलमान माने और बाद में भारतीय तो उससे खतरा है, यह संदेश सब ओर दिया जा रहा है। प. बंगाल तक में जहां बीजेपी का शासन नहीं है, यह संदेश पूरी ताकत से पहुंचाया जा रहा है। अंत में, यह कहना भी जरूरी है कि जैसे समावेशी राष्ट्रवाद के साथ राष्ट्रीय पूंजीपति थे, इस नये हिंदू राष्ट्रवाद के साथ मौजूदा कॉरपोरेट है। इस नये नारे में नये भारत को आर्थिक रूप से शक्तिशाली बनाना प्रमुख उद्देश्य है। अपने तौर पर ‘इस्लामी खतरे’ से यह देश को बचाना चाहता है। उम्मीद करता है कि भारतीय मुसलमान भारतीयता को धर्म से अधिक महत्त्व दे। 73 साल पहले उस भयानक माहौल में मजहब को अधिक महत्त्व मिल गया था। अब वह विकल्प ही नहीं है। मुस्लिम समाज का भारतीयकरण कैसे होगा, यह सफल होगा या नहीं, इस पर ही इस नये भारतीय स्वप्न का भविष्य तय होगा।

हितेन्द्र पटेल


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