अवसाद : जल्द तोड़नी होगी कमर
भारत में मानसिक अवसाद के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। गत वर्ष विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा जारी शीषर्क ‘डिप्रेशन एवं अन्य सामान्य मानसिक विकार-वैश्विक स्वास्थ्य आकलन’ रिपोर्ट के मुताबिक अन्य देशों के मुकाबले भारत और चीन तनाव से बुरी तरह प्रभावित हैं।
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रिपोर्ट के मुताबिक दक्षिण पूर्व एशिया और पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में मानसिक अवसाद से ग्रस्त लोगों की संख्या सर्वाधिक है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में 5.7 करोड़, चीन में 5.5 करोड़, बांग्लादेश में 63.9 लाख, इंडोनेिया में 91.6 लाख, म्यांमार में 19.1 लाख, श्रीलंका में 8 लाख, थाइलैंड में 28.8 लाख और आस्ट्रेलिया में 13.1 लाख अवसाद से ग्रसित लोग हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में अवसाद से प्रभावित लोगों की कुल संख्या 32.2 करोड़ है, जिसमें 50 प्रतिात सिर्फ भारत और चीन में ही हैं। डब्ल्यूएचओ के आंकड़ों पर गौर करें तो दुनिया भर में अवसाद के शिकार लोगों की अनुमानित संख्या में 2005 से 2015 के बीच 18.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि अवसाद के अलावा भारत और चीन में चिंता भी बड़ी समस्या है। भारत एवं अन्य मध्य आय वाले देशों में आत्महत्या के सबसे बड़े कारणों में से एक चिंता भी है। रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में भारत में करीब 3.8 करोड़ लोग चिंता जैसी समस्या से ग्रसित हैं। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में अवसाद सबसे ज्यादा पाया गया है। देश में बढ़ते अवसाद को ध्यान में रखकर ही पिछले दिनों केंद्र सरकार ने संसद में मानसिक स्वास्थ्य देखरेख विधेयक 2016 पर मुहर लगाई, जिसमें मानसिक अवसाद से ग्रस्त व्यक्तियों के लिए मानसिक स्वास्थ्य देखरेख एवं सेवाएं प्रदान करने एवं ऐसे व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण करने का प्रावधान किया गया है। चूंकि भारत आश्क्त लोगों के अधिकारों के संबंध में संयुक्त राष्ट्र संधि का हस्ताक्षरकर्ता है, लिहाजा उसकी जिम्मेदारी भी थी कि वह इस प्रकार के प्रभावी कानून गढ़ने की दिशा में आगे बढ़े।
और भारत ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा सामुदायिक स्तर पर अधिकतम स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की रचनात्मक और स्वागतयोग्य पहल तेज कर दी है। इस पहल से अवसाद से ग्रसित मरीजों के अधिकारों की तो रक्षा होगी ही साथ ही मानसिक रोग को नये सिरे से परिभाषित करने में भी मदद मिलेगी। मनोवैज्ञानिकों की मानें तो मनोभावों संबंधी दुख है और इस अवस्था में कोई भी व्यक्ति स्वयं का लाचार व निरा महसूस करता है। इस स्थिति से प्रभावित व्यक्ति के लिए सुख, शांति, प्रसन्नता और सफलता को कोई मायने नहीं रह जाता है। वह निराशा, तनाव और अशांति के भंवर में फंस जाता है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अवसाद के लिए भौतिक कारक भी जिम्मेदार हैं। इनमें कुपोषण, आनुवंशिकता, हार्मोन, मौसम, तनाव, बीमारी, नशा, अप्रिय स्थितियों से लंबे समय तक गुजरना इत्यादि प्रमुख है। इसके अतिरिक्त अवसाद के 90 प्रतिशत रोगियों में नींद की समस्या होती है। अवसाद के लिए व्यक्ति की सोच की बुनावट और व्यक्तित्व भी काफी हद तक जिम्मेदार है। अवसाद अकसर दिमाग के न्यूरोट्रांसमीटर्स की कमी के कारण भी होता है। यह एक प्रकार का रसायन होता है जो दिमाग और शरीर के विभिन्न हिस्सों में तारतम्य स्थापित करता है। इसकी कमी से शरीर की संचार व्यवस्था में कमी आती है और व्यक्ति में अवसाद के लक्षण उभर आते हैं। मनोचिकित्सकों की मानें तो जब लोगों में तीव्र अवसाद होते हैं तो उनमें आत्महत्या के विचार भी पनपते हैं। ऐसे हालात में परिवार की भूमिका बढ़ जाती है। परिवार की जिम्मेदारी बनती है कि वह रोगी को अकेला न छोड़े और न ही उसकी आलोचना करे। बल्कि इसके उलट उसकी अभिरुचियों को प्रोत्साहित कर उसमें आत्मविश्वास जगाए।
अस्वस्थ व्यक्ति के प्रति हमदर्दी दिखाए और उसकी बात को ध्यान से सुने। अस्वस्थ व्यक्ति को बोलने के लिए और उसकी भावनाओं को साझा करने के लिए प्रेरित करे। उसको विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रेरित कर उसमें सकारात्मक भाव पैदा करे। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने शोध में पाया है कि यदि कोई व्यक्ति लगातार सकारात्मक सोच का अभ्यास करता है तो वह अवसाद से बाहर निकल सकता है। ज्यादतर समय अवसाद छिपा हुआ रहता है क्योंकि इससे ग्रस्त व्यक्ति इस बारे में बात करने से हिचकता है। अवसाद से जुड़ी मर्म की भावना ही इसके इलाज में सबसे बड़ी बाधा है। अगर अवसाद की गंभीरता पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2020 तक अवसाद दुनिया में सबसे बड़ी मानसिक बीमारी का रूप ले सकती है।
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