दखल : नापसंद क्यों है अमन की राह?
वैसे तो यह धरती और आसमान हर इंसान का है, और देश या राष्ट्र कागज पर खींची गई महज लकीरें नहीं यानी महज भूगोल नहीं।
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हालांकि ये महाद्वीपों, उपमहाद्वीपों और महासागरों में रेखांकित की जा चुकी हैं। समंदरों और आसमानों पर अपने-अपने दावे हैं, तो इसको लेकर कूटनीतिक चालें भी कम नहीं। फिर भी यह धरती हम सबकी है। कहने को तो यह विग्राम में भी बदल गई है। आज के नागरिक को विनागरिक माना और कहा जा रहा है। पर उसके निर्माण को, रचनात्मक योगदान को तुच्छ करार देने की गलतियां भी दोहराई जा रही हैं। लेकिन सच तो यही है कि देश-दुनिया को खून से नहीं, पसीने से सींच कर ही जीने लायक बनाया गया है।
हां, इतिहास इस बात का गवाह है कि साम्राज्य और दबदबे के विस्तार के लिए खून भी कम नहीं बहाए गए हैं। दो-दो विश्व युद्ध और तमाम लड़ाइयां हमें मुंह चिढ़ाती हैं। दरअसल, जोर इस बात पर रहा है कि इसे सजाने, संवारने और बसाने के लिए खेतों, खलिहानों, कारखानों में पसीने ही कहीं ज्यादा बहाए गए हैं। सड़कें, अट्टालिताएं यानी कि सब कुछ इंसानी पसीने की बदौलत ही हमें हासिल हुआ है। और इसी श्रम से, मेहनत से और लगन से ही जुटती है रोटी। कपड़ा, मकान और उड़ान भी। किसी की दया या भीख से नहीं।
अगरचे कहीं अब भी भीख के हालात हैं, रिवाज है, तो इसमें व्यवस्था का, सरकारों का दोष है, न कि निरीह नागरिकों का। जहां कहीं भी असुंतलित विकास होता है, वह सरकारों की अदूरदर्शिता का ही नतीजा होता है, इसे नकारना जिद और जिम्मेदारी से मुंह चुराने से जुदा कुछ नहीं। किसी देश की अधिकांश दौलत कुछ लोगों के निजी खजाने में कैद हो जाए और नब्बे फीसद के हिस्से अभाव ही अभाव आए तो यह एक दुखद विडंबना ही तो है।
लेकिन बावजूद इस हकीकत के सत्ता की भूख बिला शक बरकरार है। इसी सत्ता की भूख ने बार-बार अपनी ही जनता को, नागरिकों को, अपने ही समाजों को आपस में लड़ा कर एक दूसरे का वैरी बना दिया है। कभी जाति के नाम पर तो कभी भाषा, संप्रदाय या क्षेत्र के नाम पर। और दुखद यह है कि इस तरह की साजिशें बराबर जारी रहती हैं। नये-नये एजंडे के साथ। कितना सुंदर, मानीखेज है यह नारा-दुनिया के मजदूरों एक हो। पर इन्हीं को बांटने और लड़ाने और इनकी एकता को तोड़ने में जुट गई हैं कुछ ताकतें। ‘बांटो और राज करो’ के ब्रतानियाई मंत्र को अमल में लाते हुए इस सब को अंजाम दिया जाता है। दंगे-फसाद या दूरे झमेलों में इस तबके यानी वंचित या सर्वहारा वगरे को ही आमने-सामने कर दिया जाता है। जान-माल का नुकसान इन्हें ही सबसे ज्यादा उठाना पड़ता रहा है। अब जब इनके पीछे की ताकतों की कलई खोलो या इनकी मंशा पर कुछ बोलो या लिखो तो ये लोग या इनके भोंपू खुद को देशप्रेमी और आलोचकों को राष्ट्रद्रोही का खिताब बांटना शुरू कर देते हैं। उन्हें अर्बन नक्सल करार देने लगते हैं। इनके बरक्स उनको खड़ा कर देते हैं। प्रधानमंत्री को खत लिखने वाले 49 बुद्धिजीवियों के खिलाफ जिस तरह 62 कथित बुद्धिजीवी सेलीब्रेटी सामने आ डटे वह इसी सोच का नतीजा है। कहने की जरूरत नहीं कि समाज को विद्वेष, नफरत और हिंसा में झोंकने के एजंडे को ऐसी ताकतें या संगठन ही चला रहे हैं। सजा के असली हकदार तो ये हैं। मगर निशाने पर बेगुनाह लोगों को लिया जा रहा है। सवाल यह उठता है कि ऐसा कब तक चलने दिया जा सकता है। रोजी-रोटी की समस्या, शिक्षा-चिकित्सा की समस्या, बहन-बेटियों की सुरक्षा आदि की जगह मंदिर-मस्जिद का झमेला पैदा कर बेगुनाह लोगों को दंगों में मार डालना, जातीय तनाव पैदा कर कत्लेआम करना, राजधर्म को भूल कर नन्हें-मासूम बच्चों तक को मार डालने देना। समाज में अपने ही लोगों को यानी भारतीयों को जब-तब नफरत की आग में झोंक देना। आजादी के इतने सालों के बाद क्षेत्रीयता की भावना को खत्म नहीं कर पाना। यह सब हमारी नाकामी है। तरक्की और अमन की राह में बिखरे कांटे हैं। इन विसंगतियों पर, विडंबनाओं पर सवाल तो उठाए ही जाएंगे। लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी ही नहीं, साधारण लोगों को भी इससे रोका नहीं जा सकता। ऐसे हालात में ही व्यक्ति स्वयं से पूछने लगता है कि आखिर, इस रात की सुबह कब होगी? और जब वह ऐसा सोचने लगता है, तो और ज्यादा उत्पीड़न या दमन सहने की उसकी हिम्मत जवाब दे चुकी होती है। इतिहास के ऐसे ही लम्हों ने कुछ नया रच डाला है।
कितनी अफसोस की बात है कि अपने ही देश में श्रम बेच कर पेट भरने वाले बाहरी ही नहीं करार दिए जा रहे बल्कि मारे-पीटे यहां तक कि मौत की घाट तक उतार दिए जाते रहे हैं। ..पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंग..के संदेश का तो जैसे किसी को ख्याल ही नहीं रह गया है। क्या यही होना चाहिए हमारी अनेकता में एकता की सोच का नतीजा? आज जरूरी है कि अपनी विविध संस्कृति, धर्म, संप्रदाय, भाषा, पहनावे, खान-पान वाले इस महादेश को हर तरह से जोड़ कर रखा जाए। जरूरत है हर किसी की भावना और सम्मान का ख्याल रखने की। न कि जबरन कुछ भी थोपने की। लेकिन खेद की बात है कि हमारे यहां यह सब होता दिख रहा है। लगता है हमारे यहां राष्ट्रीय सोच वाले नेताओं की कमी पड़ती जा रही है। अकाल पड़ता जा रहा है। कांग्रेस-भाजपा जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टयिां चुनावों के वक्त क्षेत्रीय भावनाओं के दोहन तक से परहेज नहीं करती। रही-सही कसर क्षेत्रीय दल पूरा कर देते हैं। बाहुबलियों-भ्रष्ट धनिकों की पनाहगाह ये पार्टयिां ही बन गई हैं। दंगों-फसादों के बबूल उगाने के गुनहगार कोई गैर नहीं, वोटों के भूखे ये लोग ही हैं। वोटों के लिए धर्म का राजनीतिकरण बेशर्मी से किया जा रहा है। कितनी अजीब बात है कि विपक्ष में रहते वक्त यह दावा करने वाले कि हम होते तो यह कर देते, वह कर देते, सत्ता में आते ही जुमलेबाजी करने लगते हैं। उन्हें अपने शाखाई अंध समर्थकों के गुनाह नजर आते ही नहीं, दंगे, फसाद, लिंचिंग जैसे अपराधों के लिए उन्हें वे कड़ी क्या, सजा तक नहीं दिलाना चाहते। भटके या भटकाए गए लोगों को फांसी न सही, सजा तो मिलनी ही चाहिए ताकि वे जेलों में रहकर कुछ विचार करें, भूलों को महसूस करें, सुधरें। साधारण लोगों के दिलों में नफरत-कट्टरता भरने वाले सबसे बड़े गुनहगारों और उनके संगठनों की गतिविधियों पर भी दृढ़ता के साथ रोक लगा देनी चाहिए। ये अमन-चैन के दुश्मन हैं, इनको धर्म और कथित संस्कृति के नाम पर जहरीले सांप-बिच्छू जनने की छूट नहीं दी जा सकती।
आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, सांप्रदायिकता-मुर्दाबाद के नारे बुलंद करने का समय आ गया है। विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है-सबसे ऊपर मनुष्य। कथित राष्ट्रवाद पर प्रेमचंद जैसे लेखकों ने भी सवाल उठाए हैं। हमें इन समस्याओं में उलझ कर नहीं रहना है। हमारी असली समस्या रोजी-रोटी की है। शिक्षा-स्वास्थ्य की है। जरूरत अमन-चैन, तरक्की की है। जो खुद को महान देशभक्त समझते हैं, उन्हें इन समस्याओं, जरूरतों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। देश के शिक्षाविद्, लेखक-पत्रकारों, कलाकारों, न्यायविद् को थोड़ा सम्मान देने की जरूरत है। न कि सवाल उठाने पर राष्ट्रद्रोही करार देने की। ऐसा माहौल बनाया जाना चाहिए, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, आस्तिक-नास्तिक सभी भारतीय के रूप में अपना परिचय देने में गर्व महसूस करें। हम एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं, इसे हमेशा याद रखना चाहिए। और इसकी तरक्की, अमन की राह से ही संभव है, इसे भुलने से बात नहीं बनने वाली है।
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