सद्गति-2
एक शहरी एमबीए उद्यमी ने एक ‘डिलीवरी ब्वॉय’ के हाथ से खाने का डिब्बा लेने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि वह मुसलमान था, तो सबसे पहले खबर चैनल ही उस व्यक्ति पर बरसे कि ऐसा धार्मिक भेदभाव क्या उचित है?
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एक एंकर ने जब उस उद्यमी से पूछा तो वह बोला कि यह हमारा सावन का महीना है। भेजने वाली कंपनी ऐसे ‘डिलीवरी ब्यॉय’ को भेजती जो हमारी आस्था के बारे में जानता..।
न्यूज एंकरों को इस व्यक्ति का धार्मिक घृणा से भरा ऐसा व्यवहार ठीक न लगा। वे उसकी खबर लेने लगे। इसे ‘हेट क्राइम’ बताने लगे क्योंकि इस आचरण के पीछे एक धर्म से नये किस्म की घृणा काम करती महसूस हुई। लेकिन जब एक अंग्रेजी एंकर ने इस भेदभाव पर बहस कराई तो वो इसे ‘छूआछूत’ जैसा बताने लगी और इस तरह ‘हेट क्राइम’ में पानी मिलाने लगी। जाहिर है कि हमारे एंकर भी ‘हेट क्राइम’ के ऊपरी मानी देखते हैं। उसके पीछे काम करते और बहुत से गर्हित उत्पेरकों को नहीं देखते। इसीलिए हेट क्राइम और ‘छूआछूत’ एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं।
अगर यह छूआछूत थी तो भी कुछ नये प्रकार की थी। हमारे समाज में उच्च जातियां निम्न जातियों के प्रति छूआछूत मार्का गर्हित आचरण करती आई हैं, और आज भी कहीं कहीं से खबर आजाती है कि अमुक उच्च जाति के दबंग व्यक्ति ने गांव के उस निम्न जाति के युवक की बारात नहीं निकालने दी या मोटरसाइकिल नहीं गुजरने दी। ऐसे निंदनीय और गर्हित आचरण ‘जातिवादी अस्पृश्यता’ का परिणाम होते थे। इस अस्पृश्यता के पात्र मुसलमान नहीं होते थे। लेकिन अब हैं। डिलीवरी ब्वॉय के मुसलमान होने से उसके हाथ से अपने ऑर्डर किए भोजन का डिब्बा न ग्रहण करना नये किस्म की घृणा का द्योतक है, जो अस्पृश्यता की ऊंच-नीच से कहंीं अधिक है।
ऐसी घटनाओं का होना बताता है कि ऊपर से हम इक्कीसवीं सदी में रहने का या ‘नये भारत’ में रहने का कितना भी दावा करें, दिमाग से हम किसी पिछली सदी में ही रहते हैं, जहां धार्मिक भेद घृणात्मक आचरण का रूप ले लेते हैं, और शर्मिदा होने की जगह, कुछ हिंदुत्ववादी तत्व इस भेदभाव और इसमें निहित घृणा को भी उचित बताने लगते हैं।
इस खबर के साथ कुछ खबर चैनलों में प्रसारित बहसों में ऐसे विचारक सामने दिखे जो बाजाप्ता तर्क देते रहे कि खानपान का, शादी का और पूजा-पाठ का मामला पसर्नल होता है। ऐसे मामलों में ‘गाहक’ ही तय करता है कि उसे किससे सेवा लेनी है, किससे नहीं लेनी है। आप उस पर अपना सेलेक्शन थोप नहीं सकते और कि ‘भोजन का भी धर्म’ होता है, कि सावन का महीना है, कि ऐसे में किसी विधर्मी के मुकाबले स्वधर्मी के हाथ से खाना ही उचित है।
जब ऐसे कुतर्क बढ़े तो कहा गया कि आप कैसे भक्त हैं जो अपने कथित सावन के पवित्र महीने में घर की जगह होटल का खाना मंगा रहे हैं। कि डिलीवरी ब्वॉय का धर्म आपको दिख गया लेकिन जिनने इस भोजन को पकाया, क्या उनके धर्म के बारे में भी पता लगाया? फिर जिस अन्न, दाल, तेल, मसाले, सब्जी आदि से खाना बना वे किस धर्म के व्यक्ति के हाथ से छूकर आए थे? एक बहस में एक ने आलोचक ने कहा कि आप क्या हर वक्त हर एक के धर्म का पता लगाते रहेंगे और किस किस के धर्म का पता करते फिरेंगे?आप जिस मकान में रहते हैं, उसका राज मिस्त्री कौन था? किसके भट्टे की ईंट आई? उसे किस धर्म के व्यक्ति ने पकाया? किसने गधे पर रखकर उसे पहुंचाया? सीमेंट और लोहे वाले का धर्म क्या था? बढई का क्या था? नल-बिजली वाले का क्या था? फिर यह बताइए कि इस हवा का धर्म क्या है, पानी की बोतल किसने तैयार की है? आप तक जिसने पहुंचाई है, उसका धर्म क्या है?
जाहिर है कि न्यूज एंकरों के ऐसे सवालों के आगे ये धार्मिक घृणावादी लाजवाब रहे। साफ है कि एंकर अगर अपनी पर आ जाएं तो पिछड़े विचार रक्षात्मक हो उठते हैं। यही हुआ। कुछ देर के लिए ही सही एक ‘आलोचनात्मक वातावरण’ बना।
प्रेमचंद की जन्म-जयंती के दिन याद आया कि प्रेमचंद ने जाति-विद्वेष को एक्सपोज करने वाली एक कहानी ‘सद्गति’ लिखी थी, जिसमें एक पंडिज्जी एक सुबह से भूखे निम्न जाति के एक व्यक्ति से पूरे दिन ‘बेगार’ कराते हैं। घर के अंदर ही बेगार करते-करते जब वो मर जाता है, तो वे उसकी लाश तक से घृणा करते हैं। कहना न होगा कि इन दिनों हम अपनी आंखों के टीवी की खबरों में ऐसी ही ‘सद्गति-टू’ बनते देख रहे हैं, जिसका नायक एक ‘डिलीवरी ब्वॉय’ है जो मुसलमान है!
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