अमेरिका का गंदा खेल
पूरब में भारत तथा चीन और पश्चिम में फारस व मध्यसागरीय दुनिया के बीच एक जंक्शन के रूप में स्थापित अफगानिस्तान इतिहास का कई सदियों तक व्यापार के लिए ‘क्रॉस रोड्स’, तमाम संस्कृतियों एवं पड़ोसियों के ‘मीटिंग प्लेस’ के साथ-साथ प्रवास व आक्रमण के लिहाज से ‘फोकल प्वाइंट’ रहा है।
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इस दृष्टि से तो अफगानिस्तान वैश्विक धरोहर के रूप में तमाम दस्तावेज में दर्ज होना चाहिए, लेकिन आधुनिक इतिहास के बहुत से पन्ने इसे ‘प्लेस ऑफ कॉन्फ्लिक्ट’ के रूप में पेश करते हैं। कारण यह है कि अफगानिस्तान औपनिवेशिककाल से शीतयुद्ध व शीतयुद्धोत्तर काल तक कभी सोवियत संघ, कभी अमेरिका और कभी चीन की चालों का शिकार होता रहा। फलत: उसकी मौलिक विशेषताएं नेपथ्य में चली गई। सामने आया वर्तमान स्वरूप जहां आतंकवाद और ध्वंस के नीचे दबी मानवता कराह रही है।
इसे क्या माना जाए? वैश्विक शक्तियों का डर्टी गेम या अफगानिस्तान की किस्मत? इस समय अमेरिका जिस तरह के प्रयासों में लगा हुआ है, उससे क्या नहीं लगता कि वह इतिहास के किसी खेल को दोहराना चाहता है, जिसमें पाकिस्तान उसके मुख्य सिपहसालार की भूमिका में हो? पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान जब अमेरिकी यात्रा पर गए तो दोनों राष्ट्रों के बीच बात होनी थी अफगानिस्तान पर लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रेस को संबोधित करते समय जम्मू-कश्मीर तक पहुंच गए, तभी समझ में आ गया था कि अमेरिका कोई नई चाल चलने की तैयारी में है क्योंकि ट्रंप ने यह सोची-समझी रणनीति के तहत कहा था। इस रणनीति के कुछ बिंदु इस प्रकार हो सकते हैं। प्रथम-ट्रंप संदेश तो नहीं देना चाह रहे हैं कि दक्षिण एशिया में अशांति और आतंकवाद की वजह जम्मू-कश्मीर मुद्दा है। द्वितीय-पाकिस्तान इस समय आर्थिक संकट से गुजर रहा है। इसलिए उसे अमेरिकी सिपहसालार बनाना आसान है बशत्रे उसका प्रिय मुद्दा उठा दिया जाए। तृतीय-अफगानिस्तान संकट को किसी और मुद्दे में विस्थापित कर नया ग्लोबल नैरेटिव तैयार करना जिसका सरोकार दक्षिण एशिया और भारत-पाकिस्तान से हो।
लेकिन सवाल उठता है कि तालिबान इस अमेरिकी खेल का हिस्सा बनेंगे? यदि हां तो उस स्थिति में अफगान सरकार की पोजीशन क्या होगी? दूसरा सवाल है कि वे तालिबान, जो अफगानिस्तान के चुनाव की प्रक्रिया को फिजूल की हरकत मानते हैं, अफगान व्यवस्था में किस तरह से शामिल होना चाहेंगे? क्या सीधे अफगानिस्तान की व्यवस्था में हिस्सा लेंगे या फिर चुनाव के जरिए व्यवस्था तक पहुंचने का रास्ता अपनाएंगे?
कुछ समय पूर्व अमेरिकी सीनेट की कमेटी के समक्ष संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) ने कहा था कि सैन्य प्रयासों के बावजूद अफगानिस्तान में तालिबान अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। इस स्थिति को देखते हुए डिफेंस डायरेक्टर ले. जनरल विन्सेंट स्टीवर्ट ने ट्रंप प्रशासन से अपील की थी कि क्षेत्र में मौजूदा दौर में सक्रिय 20 आतंकी संगठनों से निपटने के लिए अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों के साथ मिलकर काम करे क्योंकि इन संगठनों से न केवल अफगानिस्तान और पाकिस्तान पर, बल्कि पूरे क्षेत्र को खतरा है। ध्यान रहे कि ये स्थितियां आज भी न केवल बरकरार हैं, बल्कि और बदतर हुई हैं यानी इन स्थितियों पर काबू न पा सकने के कारण ट्रंप प्रशासन अब नई रणनीति अपना रहा है। इसके दो पहलू हैं। पहला-पाकिस्तान के जरिए तालिबान को मनाना; और दूसरा जम्मू-कश्मीर को ऐसे मुद्दे में तब्दील करना जिससे ग्लोबल डिप्लोमैसी काबुल से श्रीनगर की ओर विचलित हो जाए। सभी जानते हैं कि तालिबान अमेरिकी दिमाग और पाकिस्तानी गर्भ की उपज हैं। इसलिए ट्रंप प्रशासन को लगता है कि पाकिस्तान अफगान-तालिबान शांति वार्ता में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। लेकिन ऐसा है नहीं।
फिलहाल, तालिबान इतने दिन तक अमेरिका से लड़कर और अफगानिस्तान में अमेरिकी सांसें फुलाकर वह हैसियत प्राप्त कर चुके हैं कि सौदेबाजी से समर्पण की मुद्रा में नहीं आएंगे। तो संभव है कि अमेरिका ऐसी चालें चलेगा जो दक्षिण एशिया के हित में नहीं होंगी। जो भी हो भारतीय राजनय को आंख-कान खुले रखने होंगे ताकि न केवल अमेरिकी चालों का समझा जा सके, बल्कि उन्हें काउंटर करने के तरीके भी ढूंढे जा सकें।
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