आप तो बस लड्डू खाओ ददाजू
‘लो ददाजू, मुंह मीठा करो।’ झल्लन लड्डू का डब्बा हमारी तरफ बढ़ाते हुए बोला। डब्बा आधा खाली था तो हमने अनुमान लगाया कि वह औरों को भी लड्डू खिलाता हुआ आया है।
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हमने डब्बे में से लड्डू उठाते हुए कहा, ‘तेरा रिश्ता पक्का हो गया है क्या?’ वह बोला, ‘क्या ददाजू, कैसी बात करते हो। आजकल हम जैसों के रिश्ते कहां पक्के होते हैं, पकने से पहले ही टूट जाते हैं।’ ‘तो ये लड्डू किस बात के?’ हमने पूछा। वह बोला, ‘क्या ददाजू, पूरे देश में लड्डू बंट रहे हैं और आप पूछ रहे हैं कि लड्डू किस बात के। लीजिए एक और उठाइए।’ हमारा दिमाग चकराया पर समझ में कुछ नहीं आया। वह बोला, ‘नहीं समझे ददाजू, अरे तीन तलाक बिल पास हो गया है, कानून बन गया है। मुस्लिम तलाक पीड़िताएं भाजपा नेताओं के घर जा-जाकर उन्हें लड्डू खिला रही हैं, जश्न मना रही हैं। देश खुश हो रहा है तो हमने सोचा कि देश की खुशी में खुश हुआ जाए और दोस्तों-मित्रों को लड्डू खिलाया जाये।’
हमने कहा, ‘तलाक बिल मुस्लिम औरतों के हक में पास हुआ है तो खुशी तो मुस्लिम पुरुषों को मनानी चाहिए। लड्डू उनकी ओर से आने चाहिए पर खुशियां तू मना रहा है, लड्डू तू खिला रहा है।’ झल्लन बोला,‘कैसी बात करते हो ददाजू, वो खुश क्यों होंगे। उन्हें तो यही लगेगा न कि उनकी औरतों को उनके खिलाफ भड़काया जा रहा है। मदरे के हकों पर डाका डलवाया जा रहा है। जब औरत के हक की बात हो तो मदरे की चिंता क्यों की जाये, मदरे की जली कटी संज्ञान में क्यों ली जाये।’ हमने कहा, ‘देख झल्लन, सवाल सिर्फ मुस्लिम मदरे का नहीं है। मुस्लिम मदरे को तो लगता है कि उनके मजहब की नजरअंदाजी की जा रही है,उनके निजी मामलों में दखलअंदाजी की जा रही है। उनका सोचना जायज है पर असली सवाल तो देश की उन जमातों का है जो औरतों के हक-हकूक की बात करती रहती हैं, उनके साथ हुए अन्याय के विरुद्ध झंडा लिये रहती हैं, बहस-मुबाहिसों में जमीं-आसमां एक किये रहती हैं। जब ऐसी कोई ताकत तलाक बिल का विरोध करती है तो मन में शंका तो खड़ी होती है। हमारी बात पर झल्लन पहले थोड़ा झल्लाया फिर थोड़ा मुस्कुराया और बोला, ‘ददाजू, इनके पेट के दर्द को औरतों के दर्द से मत जोड़िए, उसे राजनीति के तराजू पर तोलिए। जो काम इन्हें करना था उसे करने की हिम्मत ये तो कभी जुटा नहीं पाये, इनका दर्द ये है कि एक अच्छे काम का श्रेय किसी विरोधी पार्टी को क्यों जाये।’
अब अच्छा काम क्या होता है इसे तय करने का न तो हमारे पास कोई ठोस बहाना था और न कोई पक्का पैमाना था। एक वर्ग इस अच्छे काम के परिणाम अच्छे बता रहा है तो दूसरा वर्ग इसके बुरे परिणामों से डरा रहा है। लंबे समय से एक व्यापक परिदृश्य उभर रहा था जो लोगों के दिल-दिमाग में पूरी शिद्दत से उतर रहा था। तीन तलाक पीड़िताओं के नित नये किस्से सामने आ रहे थे जो मीडिया में भरपूर जगह बना रहे थे। पीड़िताओं के दर्द, उनके आंसू, उनकी बदहाली, उनकी बेबसी और उनके डर आये दिन टीवी चैनलों से झांकते थे। समाज की व्यवस्था से गुहार लगाते थे और देश की कानून व्यवस्था से न्याय मांगते थे। तब मजहबी अस्मिता की दुहाई देने वाले इन्हें क्यों नहीं सुन रहे थे, मजहबी व्यवस्था के भीतर से ही समाधान का तानाबाना क्यों नहीं बुन रहे थे? और वे जो खुद को प्रगतिशील, तरक्कीपसंद, आधुनिकतावादी, औरतों के अधिकारों के हिमायती बताते हुए नहीं थकते थे वे क्यों चुप्पी मारे हुए थे, क्यों कुछ नहीं कर रहे थे? क्या हिचक थी उन्हें और वे किससे डर रहे थे? शायद उन्हें एक वर्ग विशेष को नाराज न करने की और अपने नंगे स्वाथरे की राजनीति डरा रही थी जो उन्हें एक ज्वलंत मुद्दे पर बार-बार चुप करा रही थी और उनके समूचे वामपंथ को नपुंसक बना रही थी। फिर जब दक्षिणपंथियों ने ही इस मुद्दे को अपना मुद्दा बना लिया, अपनी कार्य सूची में मिला लिया और इसे कानून के अंजाम तक पहुंचा दिया तो उनकी सांसें घुटने लगीं, उनके पेट में मरोड़ें उठने लगीं। अब उनके पास न पीड़ित औरतों की सहानुभूति बची थी, न जन समर्थन बचा था। अगर कुछ बचा था तो सिर्फ खोखला विरोध करना भर बचा था।
झल्लन बोला, ‘कहां खो गये ददाजू, न आप कुछ बोल रहे हैं, न अपनी खुशी का इजहार कर रहे हैं, न अपनी कोई राय दे रहे हैं।’ हमने उलझे हुए मन से कहा, ‘देख झल्लन, हमारी नजर में अच्छा काम वह होता है जो सबको अच्छा लगता है, जो न किसी की आंखों में खटकता है और न किसी दिमाग को चुभता है। मगर यहां तो एक पूरा का पूरा समुदाय इस कानून को अपनी तौहीन मान बैठा है और कानून बनाने वालों से अपनी दुश्मनी ठान बैठा है। झल्लन बोला, ‘चिंता छोड़िए ददाजू, सब ठीक हो जाएगा। आप लड्डू खाइए, बाकी जो होना होगा अपने आप हो जाएगा।’
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