कश्मीर मसला : हस्तक्षेप कतई मंजूर नहीं
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक ताजातरीन बयान ने भारत में हड़कंप मचा दिया है।
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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के साथ संयुक्त प्रेस सम्मेलन में उन्होंने नाटकीय खुलासा किया कि अभी हाल में दो हफ्ते पहले ओसाका में उनके साथ अपनी मुलाकात में नरेन्द्र मोदी ने उनसे कश्मीर विवाद में मध्यस्थता का अनुरोध किया था। भारतीय विदेश मंत्रालय ने तत्काल बयान जारी किया है कि ऐसा कोई प्रस्ताव भारत ने ट्रंप के सामने कबूल करने या ठुकराने को नहीं रखा था। इस बयान में यह बात जोर देकर दोहराई गई है कि कश्मीर विवाद भारत और पाकिस्तान के बीच एक उभयपक्षीय समस्या है, जिसमें किसी तीसरे देश, संगठन या व्यक्ति के हस्तक्षेप-मध्यस्थता या पंचाट की कोई गुंजाइश नहीं है।
भारत ने कभी भी कश्मीर समस्या के अंतरराष्ट्रीयकरण को स्वीकार नहीं किया है। इसे उपमहाद्वीप में ही निपटाने की पारंपरिक नीति को पुष्ट किया है। शिमला समझौते से आज तक यही बात जगजाहिर है। पाकिस्तान का प्रयास हमेशा यही रहा है कि किसी बाहरी शक्ति को ‘अखाड़े’ में उतार अपने से ताकतवर भारतीय पहलवान को धूल चटाए। आज इस बात को लोग भूल गए हैं कि कश्मीर समस्या का उलझना 1950 के दशक के आरंभिक वर्षो में अमेरिकी राजनयिक दखलंदाजी के कारण ही शुरू हुआ। दिल्ली में तैनात तत्कालीन अमेरिकी राजदूत चेस्टर बोल्स की शेख अब्दुल्लाह के साथ मुलाकातों ने नेहरू के मन में संदेह पैदा किया कि शेख साहब के मन में संप्रभु शासक बनने की महत्त्वाकांक्षा अमेरिकी प्रोत्साहन से पनप रही है। वह दौर शीतयुद्ध वाला था। अमेरिका सोवियत संघ की घेराबंदी के लिए हर संभव कोशिश कर रहा था।
भारत की गुटनिरपेक्षता उसे कतई रास नहीं आ रही थी, बल्कि विदेश मंत्री डलिस का तो यह मानना था जो हमारे साथ नहीं वह हमारे दुश्मन के साथ है। तब से अब तक पाकिस्तान निरंतर अमेरिका का संधि मित्र रहा है, और पाकिस्तान में जनतंत्र की भ्रूण हत्या में शीतयुद्धकालीन अमेरिकी आचरण की अनदेखी नहीं की जा सकती। आज भी अफगानिस्तान हो या पश्चिम एशिया भारत की तुलना में पाकिस्तान की अहमियत अमेरिका के लिए ज्यादा है, और इमरान खान को अमेरिकी प्रशासन गंभीरता से नहीं लेता। पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष बाजवा और आईएसआई के प्रमुख ही पाकिस्तान के असली हुक्मरान माने जाते हैं। इसलिए यह सोचना कि ट्रंप ही नहीं कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति भारत-पाक विवाद में तटस्थ भूमिका निभा सकता है, आत्मघातक मूर्खता ही कही जा सकती है। दिलचस्प बात यह है कि कुछ ही दिन पहले समाचार मिला था कि इस वर्ष ट्रंप भारतीय गणतंत्र दिवस में शाही मेहमान हो सकते हैं। उन्होंने सैद्धांतिक रूप से निमंत्रण स्वीकार कर लिया है परंतु इस बयान के बाद ऐसा नहीं लगता यह राजनयिक बवंडर जल्द ही शांत होगा। भारत पहले ही ट्रंप के दबाव में बहुत सारे राजनयिक समझौते कर चुका है, जो उसके राष्ट्रहित के प्रतिकूल लगते हैं। इनमें ईरान से तेल के आयात में कटौती, चाबहार बंदरगाह परियोजना का स्थगन और पर्यावरण विषयक अंतरराष्ट्रीय राजनय में अमेरिका की अगुवाई को आंख मूंदकर स्वीकार करना शामिल हैं।
जहां तक भारत और अमेरिका के बीच उभयपक्षीय संबंधों का प्रश्न है, तो ट्रंप के साथ दोस्ती भारत के लिए अधिक लाभदायक सिद्ध नहीं हुई है। अमेरिकी किसानों और उद्योगों को अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से संरक्षण प्राप्त करने के लिए ट्रंप ने अमेरिका फस्र्ट वाली जो संरक्षणवादी आर्थिक नीतियां अपनाई हैं, उन्होंने निश्चय ही भारत की आर्थिक दर मंद की है। भारतीय कृषि उत्पादों को ही नहीं आईटी से जुड़ी सेवाओं को भी दोहरे मानदंडों के अनुसार लागू किए जा रहे शुल्कों और शुल्केतर प्रतिबंधों का खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जहां अमेरिका भारत के वित्तीय क्षेत्र में मेजबानी वाले क्षेत्र में अपने लिए खुला बाजार और समतल मैदान चाहता है, वहीं अपने देश में भारत के लिए यह सुलभ कराने को वह कतई तैयार नहीं। गनीमत है कि अब तक ट्रंप ने हिंदुस्तानियों के साथ उस तरह की नस्लवादी गाली-गलौज नहीं की है, जिसका निशाना वह अफ्रीकी मूल के अमेरिकियों, हिस्पानियों, तुकरे, अरबों आदि को बनाते रहे हैं।
सोचने की बात है कि फिर ट्रंप को घटाटोप अंधेरे में इतनी दूर की कैसे सूझी? निश्चय ही वह दृष्टिबाधित नहीं हैं, पर उनका दैत्याकार अहंकार उन्हें जमीनी हकीकत को नजरंदाज कराता रहता है। उन्हें लगता है कि वह सर्वशक्तिमान हैं। बहला-फुसलाकर या धौंस-धमकी से अपने मनमाफिक कोई भी समझौता करा सकते हैं। हालांकि उत्तर कोरिया में उनका बड़बोलापन उन्हें भारी पड़ा है। चीन और रूस के संदर्भ में भी कोई खास प्रगति सामने नहीं आई है। भारत-पाक के बीच कश्मीर विवाद में मध्यस्थता को असहनीय हस्तक्षेप ही कहा जा सकता है। मगर यह पूछा जाना अब भी जरूरी है कि आखिर, ओसाका बैठक में हाशिए पर ही सही मोदी और ट्रंप के बीच क्या बातचीत हुई थी? यह लगभग असंभव है कि मोदी जैसे राजनयिक सूझ-बूझ वाले व्यक्ति, जिन्हें आज अंतरराष्ट्रीय राजनय के क्षेत्र में अनुभवहीन भी नहीं कहा जा सकता, ने ऐसा कोई अनुरोध करने की नादानी की होगी। अधिक-से-अधिक इस बात की गुंजाइश है कि ट्रंप ने अपने चिरपरिचित अदांज में ‘मित्र मोदी’ से कह डाला हो कि अगर चाहो तो मैं कश्मीर में तुम्हारी मदद कर सकता हूं। यह भी संभव है कि मोदी ने इसका अर्थ यह लगाया हो कि अमेरिका घाटी में सक्रिय हुर्रियत वालों पर अंकुश लगाने के लिए पाकिस्तान पर दबाव डाले या अपने दिल्ली स्थित राजदूत को हिदायत दे कि वह हुर्रियत के अलगाववादी नेताओं को मुंह ना लगाएं।
उनसे मुलाकातें कर उनकी हौसला अफजाही ना करें। ऐसा भी हो सकता है कि ट्रंप के प्रस्ताव को साफ-साफ ठुकराने के बजाए मोदी ने चुप रहना ही बेहतर समझा हो जिसे ट्रंप मोनम संमति लक्षणम् समझ रहे हों। बहरहाल, भारत का विदेश मंत्रालय दो टूक कह चुका है कि मोदी ने ऐसी कोई पेशकश नहीं की यानी सीधा मतलब यह कि ट्रंप मिथ्या वचन बोल रहे हैं। इस बात की सख्त जरूरत है कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय और अमेरिकी राष्ट्रपति का कार्यालय जल्द-से-जल्द दूर करें वरना वही हाल होता नजर आ रहा है, ‘जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी-बात कुछ बिगड़ ही गई’!
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