रंज लीडर को बहुत है मगर..

Last Updated 24 Jul 2019 05:40:58 AM IST

हिमाचल प्रदेश के सोलन में चार मंजिला एक इमारत, जिसमें एक रेस्तरां भी चलता था, के अचानक ढह जाने से सेना के तेरह कर्मचारियों समेत 14 लोगों की मौत का शोक ताजा ही था कि महाराष्ट्र में मुंबई के डोंगरी क्षेत्र में भी चार मंजिला एक आवासीय इमारत ढह गई।


रंज लीडर को बहुत है मगर..

उसमें रह रहे चौदह लोग काल के गाल में समा गए। इन दोनों हादसों में जान गंवाने वालों की संख्या ही समान नहीं है, उन्हें लेकर संबंधित मुख्यमंत्रियों और सरकारी प्रवक्ताओं के बयान भी लगभग एक जैसे हैं, जिन्हें बहानेबाजी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कहा कि सोलन में जो इमारत अचानक ढह गई, वह निर्माण के निर्धारित मानकों और दिशा-निर्देशों के अनुसार नहीं बनी थी। फिर भी उसे ध्वस्त क्यों नहीं किया गया? इसकी जांच कराई जा रही है। जो भी दोषी पाए जाएंगे, उन पर सख्त कार्रवाई की जाएगी। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस भी इस सवाल के सामने निरुत्तर हैं कि जब उन्हें मालूम था कि डोंगरी में ढही ‘केशरबाई भवन’ नाम की इमारत सौ साल पुरानी और पिछले कई सालों से ‘खाली कराने व गिराए  जाने लायक’ भवनों की श्रेणी में है, तो उसे खुद  ढहने के लिए इतने लंबे अरसे तक खड़ी क्यों रहने दिया गया? बहरहाल, फड़नवीस यह कहकर तमाम सवालों से निगाहें बचाते दिखे कि अभी उनका और उनके अमले का फोकस लोगों को बचाने पर है। लोगों को बचाने पर फोकस का उनका बहाना कितना बेहिस था और कितना अपनी गैरजिम्मेदारी छिपाने की आड़, इसे इस तथ्य से समझ सकते हैं कि मुंबई की बाबत यह खुला तथ्य है, फड़नवीस की जानकारी में भी, कि उसकी कोई बीस हजार सौ साल पुरानी और जर्जर इमारतों में आठ लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। इनमें से ज्यादातर पर फड़नवीस सरकार के नियंत्रण वाले महाराष्ट्र हाउसिंग एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी का स्वामित्व है।

उनकी देख-रेख यानी मरम्मत या ध्वंस का जिम्मा भी उसी का है। हमारे देश-प्रदेश ऐसे शासकों-प्रशासकों या जनप्रतिनिधियों का अकाल झेलने को अभिशप्त हैं, जो अपनी या अपने तंत्र की कर्तव्यहीनता उजागर होने पर उसकी किंचित भी शर्म महसूस करें। इसके उलट हम उन्हें ऐसे हर मौके पर निपट ढीठ होकर मुंहजोरी करते देखते हैं-अकबर इलाहाबादी की ‘रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ’ जैसी पंक्ति को सार्थक करते हुए। उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले के उतरौला कस्बे में सैकड़ों की छात्र संख्या वाले एक सरकारी प्राइमरी स्कूल भवन में हाईटेंशन विद्युत लाइन का करंट फैल जाने से पचास से ज्यादा बच्चों के झुलस जाने से भी इस लीडर जमात को कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अकेली मुंबई के ही निजाम को कोसने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि जिम्मेदारी समझने व निभाने वाले शासकों-प्रशासकों या जनप्रतिनिधियों का अकाल पूरे देश में एक जैसा ही है। तभी तो उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में निर्माणाधीन पुल गिरा तो भी ढाई महीने बाद जाकर कार्रवाई मुमकिन हो पाई थी-वह भी औपचारिक। कोलकाता में तीन साल के भीतर दो पुलों के गिरने और कई लोगों की जान पर बन आने के बावजूद दोषियों पर कार्रवाई की लकीरें ही पीटी जा सकीं।
हिमाचल प्रदेश के सोलन लौटें तो इस नगर और उसके आसपास के इलाकों में नियम-कायदों की आंख बचाकर या उन्हें ठेंगे पर रखकर हाइवे व सड़कों के किनारे कारोबार के लिए नब्बे डिग्री स्लोप पर चार-छह खंभों पर चार-चार मंजिला इमारतें खड़ी कर ली गई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ये इमारतें न तेज बारिश झेलने में सक्षम हैं, न भूस्खलन और न भूकंप। फिर भी इन्हें गिराने या ऐसी और के निर्माण पर रोक लगाने की कोई पहल नहीं दिख रही। दिखे भी कैसे? कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश के इंदौर में एक भाजपा विधायक द्वारा की गई ‘बल्लेबाजी’ गवाह है कि ऐसे मामलों में संबंधित अधिकारी कितने लाचार बना डाले गए हैं। अधिकारी कहीं भी ऐसी इमारतों पर कार्रवाई के लिए पहुंचे नहीं कि राजनीति रंग दिखाने लग जाती है। इंदौर में भी वे जर्जर मकान को गिराने पहुंचे ही थे कि भाजपा विधायक ने उन पर बैट चला दिया। हाईकोर्ट के दखल के बाद ही उसे गिराया जा सका। साफ है कि गैरजिम्मेदार सत्ताधीशों की कृपा से मुंबई हो, पुणो, सोलन या इंदौर राजनीति, प्रशासन और भ्रष्टाचार का जनिवरोधी रंग-ढंग सब जगह एक जैसा ही है। इसके चलते कहीं पुलों में इस्तेमाल घटिया निर्माण सामग्री उनको श्मशान में बदल दे रही है, तो कहीं पुराने, जर्जर व अवैध निर्माण गाज गिरा रहे हैं। पीड़ितों के सब्र की परीक्षा ले रहे सत्ताधीशों को कब समझ में आएगा कि उनकी बेदिली एक दिन इनके सब्र का बांध भी ढहा डालेगी।

कृष्ण प्रताप सिंह


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