न्यू इंडिया : निर्यात पर व्यवस्था बने

Last Updated 23 Jul 2019 12:14:48 AM IST

दूसरे विश्व युद्ध के बाद के आर्थिक इतिहास में एशियाई ताकत उभर कर सामने आई। दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, ताइवान और हांगकांग ने ज्यादा आय वाली अर्थव्यवस्था का मॉडल दुनिया के सामने रखा जिसका जोर निर्यात पर था।


न्यू इंडिया : निर्यात पर व्यवस्था बने

इसी तरह चीन और मलयेशिया ने मध्यम आय वाली अर्थव्यवस्था की राह पकड़ी जबकि भारत को अभी ट्रेड सरप्लस नेशन होना है।
एक बड़े जनादेश के साथ सरकार को सुधारवादी एजेंडे के दूसरे चरण पर ध्यान देना चाहिए ताकि देश निर्यात और निजी क्षेत्र की बुनियाद पर चलने वाली अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ सके।

आर्थिक सर्वे में यह बात भली भांति कही गई है कि कोई भी देश निर्यात क्षेत्र में बड़े उछाल के बिना तीव्र गति से विकास नहीं कर सकता। अभी जो मंदी दिख रही है, उसके पीछे तीन अहम क्षेत्रों में जाहिर हो रहीं बाधाएं हैं-निजी निवेश, उपभोग और निर्यात। वित्त मंत्री को अर्थव्यवस्था में जल्द से जल्द गति लाने के लिए एक ब्ल्यूप्रिंट तैयार करना चाहिए। भारत को वित्तीय वर्ष 2024-25 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का आइडिया बड़ा तो जरूर है पर तब तक सपना ही रहेगा जब तक निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ देश नहीं बढ़ेगा।

विकास दर के मुकाबले भारतीय निर्यात का अनुपात 20 फीसद की ऊंचाई तक पहुंचा जरूर है पर 2014 के बाद से इसमें लगातार कमी आती जा रही है। यही नहीं, इसी दौर में विकास दर के मुकाबले अपने निर्यात अनुपात को चीन 30 फीसद तक ले जाने में सफल रहा है। हमें लगता है कि हमारे नीति निर्माताओं के आगे ऐसा ही कोई लक्ष्य होना चाहिए।
अपने एशियाई साथियों की तुलना में भारत ने जहां लगातार चालू खाता घाटा बढ़ने दिया है, वहीं इससे उबरने के लिए जिस तरह कई बार टैरिफ लागू करने जैसी नीतियों का अनुसरण किया गया है, वो प्रतिकूल साबित हुई।

यह इस लिहाज से चरम दौर है जिसमें एक तरफ भारत संरक्षणवादी राह से अलग हो रहा है, वहीं बड़े निर्यातक देश के तौर पर उभरना चाह रहा है, जो दुनिया की मांग पूरी कर सके। एक उभरती अर्थव्यवस्था होने के नाते स्वाभाविक है कि देश चालू खाते के घाटे को साथ लेकर चले ताकि वित्तीय प्रवाह बना रहे। मौजूदा विकास दर के स्तर पर दो से तीन फीसद का चालू खाता घाटा बगैर किसी खतरे के उठाया जा सकता है। सरकार अपने कार्यकाल के दूसरे दौर में खास तौर पर ऐसी चुनौतियों से जूझ रही है, जब उसे विदेश व्यापार नीति को लेकर कई तरह के संकटों का सामना करना पड़ रहा है।

मसलन तरजीह वाले क्षेत्रों में व्यापार (जीएसपी) को लेकर अमेरिकी पाबंदी। यह अब जाहिर तथ्य है कि विश्व व्यापार के क्षेत्र में कई तरह की बाधाएं आई हैं, पर इसी बीच कई तरह के अवसर भी सामने आए हैं। अमेरिका के साथ चीन के व्यापारिक मतभेद से जो हालात बने हैं, उसमें भारत चाहे तो उस रिक्तता की भरपाई कर सकता है जो चीनी व्यापार की अस्थिरता के कारण पैदा हुई है। पर भारत ऐसा करने में विफल रहा है, जबकि इस होड़ में वियतनाम और थाइलैंड सरीखे देश अगुवाई कर रहे हैं। बहरहाल, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर ध्यान केंद्रित करने के साथ भारत को उन देसी कंपनियों के लिए नियमों में सुधार करके उत्साहजनक स्थिति बनानी होगी ताकि वे देश के अंदर और बाहर आसानी से अपने उत्पादों को बेच सकें।

गौरतलब है कि अपने पिछले कार्यकाल में सरकार ज्यादातर समय चुनावी मोड में रही है पर मौजूदा कार्यकाल में जरूर आर्थिक एजेंडे पर ध्यान दे रही है। संरक्षणवादी प्राथमिकताओं को बरकरार रखते हुए भी प्रभावशाली नीतियों और सुधारों के बूते भारतीय अर्थव्यवस्था को इस लिहाज से प्रतिस्पर्धी बनाया जा सकता है, जिससे मेक इन इंडिया जैसे अभियान को बल मिले। चीन ने अपने सस्ते निर्यात से भारत को अपने घटिया उत्पादों का डंपिंग ग्राउंड बना दिया है।

इस पर तत्काल ध्यान देना होगा क्योंकि इससे हम विऔद्योगिकरण के खतरे तक पहुंचते जा रहे हैं। भारत जनसंख्या के लिहाज से ऐसी अनुकूल स्थिति में है, जब अपना निर्भरता अनुपात संतुलित कर सकता है। तात्पर्य यह कि युवा आबादी तेजी के साथ कार्यबल में तब्दील हो रही है। इससे नौकरी की उपलब्धता के साथ, श्रमाधारित निर्यात को बल मिल सकता है। साथ ही, कृषि आधारित कार्यबल जिस तरह उत्पादन के बड़े क्षेत्रों की दिशा में मुड़ रहा है, उससे भारत में कामगारों की आय में बड़ा इजाफा देखने को मिल सकता है। सरकार को अपने पुरातन श्रम कानूनों में संशोधन करने की आवश्यकता है क्योंकि ये निवेश और रोजगार सृजन में बाधा हैं।

नई कंपनियों के लिए भूमि और श्रम की उपलब्धता उनकी निवेश नीति को कारगर आकार लेने के लिए अहम कारक हैं। भूमि अधिग्रहण की जटिलताएं दूर की जा सकती हैं। चीन में जिस तरह से मजदूरी बढ़ रही है, उसने उत्पादकों को दूसरे विकल्प की तरफ देखने को मजबूर किया है। भारत इस लिहाज से ऐसा देश है जहां सबको अनुकूलता नजर आती है। पर अगर तुलना करें एशिया में भारत के दूसरे प्रतिद्वंद्वी देशों की तो वहां अपने देश के मुकाबले जमीन की कीमत काफी ज्यादा है, और यह स्थिति उसे प्रतिस्पर्धी होड़ से बाहर कर सकती है। अलबत्ता, पेट्रोलियम और ऑटो सेक्टर से जुड़े निर्यात आनुपातिक रूप में ज्यादा श्रमाधारित नहीं हैं।

बावजूद इसके श्रम बाजार में आ रही स्थिरता से उत्पादन की अधिकतम क्षमता तक पहुंचना मुश्किल होगा और इस दिशा में निश्चित तौर पर ध्यान देने की दरकार है। इसके अलावा, भारत में व्यापार करने की आसानी के लिए कई क्षेत्रों में बड़े सुधारों की जरूरत है। आखिर में अधोसंरचना के क्षेत्र में गौर करने की बात इसलिए जरूरी है कि लॉजिस्टिक परफारमेंस इंडेक्स में भारत का स्थान 44 है,  और वह थाइलैंड और ताइवान से पीछे है।
साफ है कि इस क्षेत्र में बगैर बड़े निवेश के बात बनेगी नहीं। इसी तरह विदेशी कंपनियों के लिए राह बुहारने के क्रम में हमें उन देसी कंपनियों की भी परवाह करनी होगी जो पहले से संकटों से जूझ रही हैं।

भारत में कॉरपोरेट टैक्स काफी ज्यादा है, और इस बारे में नये नजरिए के साथ सोचने की जरूरत है। बजट में वित्त मंत्री ने 400 करोड़ रुपये तक के कारोबार करने वाली कंपनियों के लिए कॉरपोरेट टैक्स में 25 फीसद कमी की घोषणा जरूर की है पर यह भी कई एशियाई मुल्कों के मुकाबले अभी ज्यादा ही बैठती है। साफ है कि सीतारमण को भारतीय अर्थव्यवस्था को रफ्तार से भरने के लिए कई बड़े और अहम फैसले तत्काल और विवेकपूर्ण तरीके से लेने होंगे। अगर ये कदम उठाए जाते हैं, तो वैश्विक हालात की मौजूदा अनुकूलता भारत के पक्ष में तेजी से फलीभूत होती दिखेगी।

राजीव सिंह


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