बिहार : कयासबाजी का दौर दौरा

Last Updated 23 Jul 2019 12:10:21 AM IST

कई बार सूत्रों के हवाले से खबर बनाने की कोशिश की जाती है। मुख्यधारा मीडिया में यह परंपरा विशेष रूप से प्रचलित है।


बिहार : कयासबाजी का दौर दौरा

आम तौर पर कोई खबर न होने की परिस्थिति में कयासों के सहारे खबर बनाई जाती है। कई बार ऐसी अटकलें पुष्ट खबर बन भी जाती हैं। संकेत के माध्यम से दिए गए संदेश भी राजनीति में कई बार सियासी मोड़ के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रचंड बहुमत मिलने के बाद भाजपा ने जब मंत्रिमंडल का गठन किया तो सहयोगियों के लिए सांकेतिक प्रतिनिधित्व के रूप में एक संकेत दिया।
इसमें छिपे संदेश ने बड़ी जीत में सहयोगी रहे घटक दलों की खुशी में विघ्न डाल दिया। सत्ता में सांकेतिक हिस्सेदारी को जदयू ने अस्वीकार करते हुए मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने का फैसला किया। मगर इस तरह का विरोध भी सांकेतिक दिखा क्योंकि जदयू ने एनडीए गठबंधन के साथ बने रहने की प्रतिबद्धता को भी दोहराया। इसके बाद के घटनाक्रम में जब नीतीश कुमार ने राज्य मंत्रिमंडल का विस्तार किया और भाजपा कोटे से एक भी मंत्री ने शपथ नहीं ली तो कयासों को और बल मिला। मीडिया में दो खबरें बनीं। एक तो नीतीश कुमार की महागठबंधन में वापसी हो सकती है, और दूसरी भाजपा भी राजद के साथ संभावना तलाश रही है। हाल ही में तेजस्वी यादव ने मीडिया के सवाल पर दो टूक कहा कि राजद के पास भाजपा और जदयू, दोनों में से किसी का प्रस्ताव नहीं आया है, तो फिर टिप्पणी किस बात की। लेकिन राजद के उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी ने राजद और जदयू की वैचारिकी में समानता की बात कहकर कयासबाजों को एक और मौका दे दिया कि नीतीश के लिए महागठबंधन ने दरवाजे खोल दिए हैं। इन खबरों के संदर्भ में बिहार की दलीय प्रणाली का विश्लेषण जरूरी है। क्या बिहार में नये राजनैतिक समीकरण बन सकते हैं? क्या भाजपा की नजर बिहार सरकार का नेतृत्व करने पर है? क्या जदयू फिर किसी रास्ते की तलाश में है?

बिहार ऐसा राज्य है जहां राष्ट्रीय दलों के बरक्स क्षेत्रीय दल राज्य की राजनीति में वर्चस्व रखते हैं। राजद और जदयू, दोनों अपने- अपने गठबंधन का नेतृत्व करते रहे हैं। बीते दो दशक में दोनों दल सिर्फ  2015 विधानसभा में महागठबंधन के बैनर तले 20 महीने तक साथ रहे और फिर एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हो गए। इस लोक सभा चुनाव के बाद परिस्थितियां बदली हुई हैं। एक तरफ राजद शून्य सीट के बावजूद सबसे ज्यादा लगभग सोलह फीसद मत पाकर महागठबंधन में बढ़त बनाए हुए है, वहीं जदयू-लोजपा की संयुक्त मत संख्या बीजेपी की तुलना में ज्यादा है। विधानसभा 2020 के परिप्रेक्ष्य में कयासों के आधार पर तीन संभावनाएं बन सकती हैं। एनडीए बनाम महागठबंधन पहला और सर्वाधिक संभावित सियासी समीकरण हो सकता है। अगर जदयू की राहें भाजपा से अलग हुई तो फिर नीतीश महागठबंधन के साथ जा सकते हैं, और वह दूसरा विकल्प हो सकता है। राजद और जदयू अगर एक साथ नहीं आने को राजी हुए तब तीसरी परिस्थिति बन सकती है। ऐसे में त्रिकोणीय मुकाबला होगा। हालांकि दोनों सियासी समूहों के घटक दल अपनी-अपनी स्थिति की समीक्षा और रणनीति पर पुनर्विचार करने में व्यस्त हैं। महागठबंधन का सबसे बड़ा घटक दल राजद जहां अपनी जमीन बचाने और बढ़ाने की कोशिश कर रहा है वहीं रालोसपा, हम और वीआईपी पार्टी अपनी-अपनी जमीन साधने में लगे हैं। 
कांग्रेस पिछले तीन दशकों से अपने खोए आधार वोट  की वापसी की जद्दोजहद में लगी हुई है वहीं एनडीए में भाजपा और जदयू बीते लोक सभा चुनाव में बराबर सीटों पर चुनाव लड़े लेकिन जद (यू) की तुलना में भाजपा का विधानसभावार प्रदशर्न ज्यादा अच्छा रहा। इससे उत्साहित होकर भाजपा आगामी चुनाव में बिहार सरकार का नेतृत्व करने की रणनीति में जुट गई है। लोजपा प्रमुख की रुचि नेतृत्व परिवर्तन से ज्यादा सत्ता के साथ बने रहने में होगी। पिछले तीन दशक में दो राजनैतिक धाराएं बिहार में आमने सामने रही हैं। एक तरफ सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और समावेशी विकास की राजनीति है, तो दूसरी तरफ हिंदुत्व, सोशल इंजीनियरिंग और विकास की राजनीति रही हैं। वैचारिक तौर पर राजद ही भाजपा के विरोध में खड़ी रही है। बाकी सभी क्षेत्रीय दल कभी न कभी भाजपा के साथ रह चुके हैं। जुलाई, 2017 में बनी बिहार सरकार सृजन घोटाला, मुजफ्फरपुर शेल्टर होम रेप केस के साथ-साथ हाल के दिनों में स्वास्थ्य, शिक्षा, विधि व्यवस्था के मुद्दों पर चौतरफा आलोचना झेल रही है। ऐसे में बिहार की जनता और उनकी नुमाइंदगी करने वाले किस विकल्प की तलाश में हैं, यह देखना काफी दिलचस्प रहेगा।

नवल किशोर


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